शनिवार, दिसंबर 10, 2011

फॉर्मूला वर्सेस एंटरटेनमेंट

दो बातें याद आ रही हैं। एक पिछले हफ्ते आई डर्टी पिक्चर का
डायलॉग, फिल्म सिर्फ तीन चीजों से चलती है एंटरटेनमेंट,
एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट। दूसरी बात कुछ महीने पुरानी है।
भास्कर ऑफिस नो वन किल्ड जेसिका के डायरेक्टर राजकुमार
गुप्ता आए थे। उन्होंने कहा था कि मैं नहीं चाहता कि मेरी दूसरी
फिल्म देखकर लोगों को पहली की और तीसरी देखकर दूसरी फिल्म की
याद आए।

लेडीज वर्सेस रिकी बहल देखकर बार-बार बैंड-बाजा-बारात की याद
आती है। और इस याद के साथ ध्यान आता है यशराज फलसफा,
एंटरटेनमेंट और स्टाइल का फॉर्मूला। मगर इसके साथ वर्सेस में
है नयापन, जो इस फिल्म से मिसिंग है। लेडीज वर्सेस रिकी बहल जिसे हम
शॉर्ट में एलवीआरवी कहेंगे, फर्स्ट हाफ में कुछ गुदगुदाती है
थैंक्स टु हबीब फैजल के लिखे विटी और करारे डायलॉग, मगर
सेकंड हाफ दोहराव से भरा और बोरिंग लगता है। इसमें राहत के
नाम पर सिर्फ रणवीर की सर्फिंग के दौरान और बाद दिखाई गई
मैटेलिक शेड बॉडी और अनुष्का शर्मा का खूबसूरत बिकनी सीन ही
है। एलवीआरवी देखिए, अगर देखने को कुछ और नहीं है और वाकई
टाइम पास के लिए पस्त हुए जाते हैं।

कुछ चुके हुए फॉर्मूले

शाद अली की फिल्म थी बंटी-बबली। रानी की एंट्री होती है
धड़क-धड़क धुंआ उठाए रे गाने से। एलवीआरवी में अनुष्का मुंबई
की गलियों में बच्चों के साथ क्रिकेट खेलती हैं, गाना गाती हैं,
फिर प्लेटफॉर्म पर डब्बे वालों के साथ ठुमके लगाती हैं। यहीं से
फिल्म की कहानी खिंचने लगती है। उससे पहले फस्र्ट हाफ में भी
रणवीर मैं हूं आदत से मजबूर गाने में रैप की रेग्युलर हो चुकी
स्टाइल दिखाते हैं। इसी तरह लास्ट में ग्रैंड स्टेड पर नीली-लाल
रोशनी के बीच पार्टी गाना और उसके दौरान रणवीर-अनुष्का का
लिपलॉक हो या फिर दिल्ली की लड़की डिंपल के बहाने वहां के
सिग्नेचर टॉकिंग टोन के जरिए हंसाने की कोशिश, नयापन मिसिंग
ही रहता है।

कॉनमैन को जब प्यार आता है, तो धूम2 के ऋतिक और ऐश आने लगते
हैं, जहां एक तरफ प्रफेशनल कमिटमेंट है, तो दूसरी तरफ
प्यार। वहां तो फिर भी चोरी का रोमांच है, यहां तो मामला लैट
ही है। इस फिल्म की स्टोरी लिखी है आदित्य चोपड़ा ने, जिनका बैनर
पहले बंटी और बबली और धूम फ्रेंचाइजी बना चुका है। यकीन नहीं
आता कि इसी आदी ने इस देश को मुहब्बत का नया मुहावरा डीडीएलडी
और मुहब्बतें के जरिए दिया था। स्टोरी रुटीन थी, तो फिर मनीष
शर्मा का डायरेक्शन या फिर हबीब के डायलॉग कितना खींचते।
अमिताभ भट्टाचार्य के गाने भी बहुत कमाल नहीं दिखा पाए। शायद फिल्म
की टोन ध्यान में रखकर उन्हें हल्के मिजाज के गाने लिखने को कहा
गया हो। मगर सिंपल शब्दों में हर एक फ्रेंड जरूरी होता है भी तो
उन्होंने ही लिखा है न।

तो कुछ अच्छा भी है क्या

एक पुराना फॉर्मूला इस बार भी अच्छा लगा है। थोड़ी चब्बी और
पंजाबी बिजनेसमैन की बेटी यानी डिंपल चड्ढा के रोल में परणीति
चोपड़ा कमाल करती हैं। फस्र्ट हाफ में उनकी वजह से फ्रेशनेस
बनी रहती है। इसके अलावा शार्प बिजनेस मैनेजर के रोल में दीपानिता
शर्मा भी ठीक लगी हैं।

बाकी सो कॉल्ड सितारों की बात करें, तो अनुष्का को अब ट्रैक
बदलने की जरूरत है। माना कि बबली गर्ल के रोल में वह बेहतर
करती हैं, मगर उसके बाद क्या। और रणवीर इमोशनल सीन में फनी
लगते हैं और एक्टिंग के लिहाज से इससे ज्यादा फूहड़ बात कुछ
नहीं हो सकती। रिकी बहल का किरदार बिट्टू शर्मा का वानाबी
अवतार ही लगता है। मगर रणवीर जी, हम सिनेमा हॉल में वॉलपेपर
नहीं, फिल्म देखने जाते हैं, जो मजेदार हो। इस बार पइसा फुल्टू
वसूल नहीं हुआ रणवीर-अनुष्का और मनीष-हबीब की जोड़ी से।

शनिवार, नवंबर 12, 2011

जॉर्डन का जादू जबर्दस्त

सौरभ द्विवेदी
ऐसा कब होता है कि फिल्म के आखिरी शॉट के बाद, टाइटल खत्म होने के बाद, हॉल की लाइट्स जलने के बाद भी यंगस्टर्स एक इंतजार में स्क्रीन पर आंखें गड़ाए रहें। इस इंतजार में अफसोस नहीं, एक ख्वाहिश हो, कि शायद कुछ फिल्मी हो जाए। मगर ऐसा नहीं होता और यहीं रॉक स्टार हिंदी फिल्म के दायरे को कुछ बड़ा कर देती है। अंत के नाम पर आता है सरसों की डंडी पर रेशम सा लिपटा गाना तुम हो और रूमी की पंक्तियां - हम उस दुनिया में मिलेंगे, जहां पाप नहीं, पुण्य नहीं, बिछुडऩे का डर और वजह नहीं। संगीत, पागलपन, क'चापन, मासूमियत, मजाक और हां इन सबके साथ और बिना भी घ्यार, रॉक स्टार एक पेंडुलम से झूले पर बिठा ढाई घंटे में इन सब एहसासों के साथ सहलाती घुमाती है।

रॉक कर देंगे
स्टीफंस कॉलेज, दिल्ली का सबसे हेप क्राउड, नायिका हीर कौल दोस्तों के साथ बैठी है और पीतमपुरा का जाट जनार्दन जाखड़ उसके पास पहुंचता है। हाथों को क्रॉस करते हुए लहराता है और एक पैर उठा बोलता है, दोनों मिलकर रॉक कर देंगे। फिल्म में रणबीर रॉक से भी 'यादा रॉक करते हैं। भूल जाइए, टॉवल गिराकर किशोर कामनाएं जगाने वाले सांवरिया को, भूल जाइए वेक अप सिड के कन्फ्यूज मगर क्यूट युवा को, भूल जाइए प्रकाश झा की राजनीति के व्यूह रचते आधुनिक अर्जुन को, ये जाखड़ जिसे उसका घ्यार और संगीत जॉर्डन नाम बख्शता है, एक नए तिलिस्म को रचता है पर्दे पर। मिडल क्लास का बेढब फैशन, धारी और जाली वाले हाथ के बुने स्वेटर, उसके ऊपर डेनिम जैकेट, आवाज को आरोह-अवरोह के भंवर में फंसाए बिना संवाद अदायगी और संगीत के जुनून को स्याहपन बख्शती गाढ़ी दाढ़ी। माइक पर रणबीर की चीख कहीं दूर तक अंदर आपके अंदर गुम हो गूंजती रहती है। उन्होंने फस्र्ट हाफ में हिंदू कॉलेज के कुछ अनजान, कुछ सनकी-पागल युवा को ठीक वैसे ही जिंदा किया है, जैसा रियल लाइफ में इस कॉलेज में पढ़े इम्तियाज अली ने सोचा होगा। सेकंड हाफ उनसे डार्क होने की उम्मीद करता है, यहां चीख हैं, स्टेज पर भीड़ से घिरा होने पर भी अकेले होने की त्रासदी है । इन सबके ऊपर बादलों सा घिरा स्कार्फ सा इर्द गिर्द उड़ खुशबू बिखेरता घ्यार है।

और बाकी सब
नरगिस फाखरी की एक्टिंग वैसी ही है, जैसे आप हल्का सा मुंह खोले बैठे हों और कोई जीभ के किनारे एक छिला हुआ आंवला छुआ दे। एक खट्टी सी गुदगुदी जो रीढ़ की हड्डी से तलुए तक लहर पैदा
करती है। वह खूबसूरत दिखी हैं, यह कहना औसत कथन होगा। उन्होंने उम्मीद से कहीं 'यादा अ'छी एक्टिंग की है और इसका श्रेय अली के साथ उन्हें भी जाता है। कुछ छोटे मगर जरूरी रोल इस गाढ़े किस्से को और स्वाद बख्शते हैं। कैंटीन वाले के रोल में कुमुद मिश्रा, म्यूजिक कंपनी के मालिक के रोल में पीयूष मिश्रा, जर्नलिस्ट के रोल में अदिति राव ऐसे ही कुछ नाम हैं।

आगे बढ़ो, पीछे लौटो, फिर आगे बढ़ो
ये इम्तियाज अली के कहानी सुनाने का तरीका है। फिल्म बीच से शुरू होती है, कई बार शुरू से भी, फिर जंप मारती है, कभी बैक, कभी फॉरवर्ड। ये मूवमेंट कहीं भी खटकता नहीं, बल्कि एक अलग किस्म का जुड़ाव खिंचाव पैदा करता है। ऐसा जब वी मेट में हुआ, लव आजकल में भी हुआ और यहां भी है। इसके अलावा कन्फ्यूजन या हां और न की ठिठक उनके यहां प्रेम के पलने के दौरान केंद्रीय भाव होती है। इसकी शुरुआत उनकी पहली फिल्म सोचा न था से होती है और अभी तक ऐसा हो रहा है। हीर कहीं ठिठकी है ये कहने में कि जॉर्डन इसकी जिंदगी का हिस्सा बन गया है, जनार्दन भी रेलिंग पर इंतजार करता सा है और जब दोनों चादर के नीचे की सफेद दुनिया में ये कबूलते हैं, फिल्म एक पीले बुखार में आने वाली नींद सी मीठी हो जाती है।
कहानी के अलावा फिल्म के डायलॉग भी सुरीले और जोशीले हैं, कहीं आपको आदी बनाते, कहीं अदा दिखाते। अ'छा ये रहा कि नरगिस के हिस्से 'यादा हैवी डायलॉग्स नहीं एक जर्द खामोशी आई, जिसमें सूनापन ही अलग-अलग शेड्स लिए था।
रॉकस्टार मैं कुछ एक बार और देख सकता हूं, और यकीन है कि आप भी पहली बार देखने के बाद यही सोचेंगे। इसकी वजह है तमाम तहों में छुपा मगर फिर भी नुमायां होता है वो नूर, जिसे घ्यार कहते हैं।

शनिवार, सितंबर 17, 2011

गुनगुनाना गुलाम अली का

फिल्म खुशियां के म्यूजिक रिलीज पर आए गायक गुलाम अली। उनके नाम के साथ कोई विशेषण जोडऩा उस शब्द को इज्जत बख्शना है, इस शख्स को नहीं। ठीक उसी तरह से गुलाम अली ने बुधवार शाम तमाम सवालों के जवाब में जो कहा, उसके सिलसिले के बीच में आना गुनाह की तरह है। इसलिए आज आप सुरीले गुलाम अली साहब के ख्याल सुनिए। बीच में आपको सिर्फ यह बताया जाएगा कि किस सवाल के जवाब में ये सुर फूटे।
मैं किस भाषा में बोलूं, उर्दू या पंजाबी, अच्छा पंजाबी में ही बात करते हैं। वैसे भी जबान का क्या, आप लोग इतने समझदार हैं।
हम आर्टिस्ट को आप जैसे समझदार सुनने वाले ही चाहिए। समझ के साथ सुनना भी बहुत सुरीला काम है। जस्सी (फिल्म खुशियां के हीरो जसबीर जस्सी) मेरे छोटे भाई की तरह हैं। इन्होंने कहा कि खां साहब जरूर चलना है। मैंने कहा, भाई खां साहब का तो पता नहीं, मगर चलना जरूर है।
जिंदगी की हर चीज में लय चाहिए होती है। गाड़ी हो या गाना टेंपो सही होना जरूरी है। मैं गजल गाता हूं, जो उर्दू जबान के सहारे चलती है। मगर मेरी मादरी जबान पंजाबी है। आज से 50 साल पहले मैंने अपना करियर रेडियो पाकिस्तान के लिए दिल पे लुट देआ गाकर किया था।फिर गजल की तरफ ड्यूटी लग गई, तो पंजाबी गाना काफी कम हो गया। मगर मेरी मां कहती थी कि पंजाबी में जरूर गाना है। कई बार बोलती, ओन्हूं सद्दो, जेड़ा वड्डा खां साहब बणया फिरदा है।मैं पूछता, अम्मा जी क्या सुनाना है। तो मां कहती, नित दे विछोड़े, सारा सुखचैन खो गया सुना। मैं माई को देखता रहता और गाता रहता। हर मां अपने बेटे से बेपनाह मुहब्बत करती है, मगर जब बच्चा कुछ मशहूर हो जाए, तो माई को और प्यार आता है। उस वक्त वैसा ही कुछ हो रहा था। देखिए कितना अच्छा रहा कि बातों के सिलसिले में मां का जिक्र आ गया। उसकी दुआ के बिना सबकुछ अधूरा रहता है।
सियासत का सवाल...
(पिछले दिनों राहत फतेह अली खान को लेकर दिल्ली एयरपोर्ट पर कुछ मसला हुआ, उस दौरान पाकिस्तान में तमाम राजनेताओं ने बयानबाजी की, उससे कैसे प्रेशर कायम हुए आप कलाकारों पर...)
जिदबाजी है ये सब। प्यार तो सुर से सुर जोड़ता है। उन सियासत वालों की सुनने लगे, तो सुर गुम जाएगा। मगर हां, मेरा मानना है कि कलाकारों को कुछ रियायतें तो मिलनी ही चाहिए। मगर ठीक उसी वक्त मेरा इस बात पर भी जोर है कि फनकारों को हर मुल्क के कानूनों की कद्र करनी चाहिए।
जगजीत सिंह के साथ जुगलबंदी
पिछले दिनों दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में उनके साथ जुगलबंदी की। जगजीत साहब मेरे दोस्त हैं, भाई हैं और बहुत बड़े फनकार हैं। मैं मामूली सा एक कलाकार हूं। आप लोगों का प्यार है, जो इतनी इज्जत बख्श देते हैं। अपने लिए तो बस वही याद आता है कि किधर से आया, किधर गया वो, अजनबी था...
गजल की किस्मत
हिंदुस्तान ही नहीं पाकिस्तान में भी गजल गाने वाले कम हुए हैं। मगर मेरा यकीन है कि जब तक सुनने वाले हैं, गजल तो क्या कोई भी कला खत्म नहीं हो सकती। मैं अभी अमेरिका से कॉन्सर्ट कर लौटा। कई लोग थे, जिन्हें गाए हुए के माने समझ नहीं आ रहे थे, मगर वे इसका पूरा आनंद ले रहे थे। 55 साल से गा रहा हूं और कभी नहीं लगा कि अब रुक जाना चाहिए। ये हौसला सुनने वालों से ही तो मिलता है।
मेरा फलसफा किस गजल में
(प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान इस सवाल पर गुलाम साहब ठहर गए और फिर बोले मेरा सच्चा सुर कहां बसता है, ये बाद में बताऊंगा। मगर बाद में गुफ्तगू के दौरान उन्होंने दिल के कुछ और दरवाजे खोले और इस सवाल का भी जवाब दिया...)
ये गजल मैं मंच पर बहुत कम ही गाता हूं। मगर जेहन के बड़े करीब है। आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक। इसके अलावा मेरे सबसे अजीज शायर नासिर काजमी साहब की लिखी दिल में एक लहर सी उठी है अभी। इसके अलावा तमाम नामचीन शायर हैं, जिनका लिखा तसल्ली बख्शता है। गालिब, जौक, फराज, फैज और आज के दौर में बशीर बद्र, राहत इंदौरी।
मेरे लिए गाने से पहले लफ्ज की अदायगी समझना और उस पर यकीन करना खासा जरूरी है। वीराने में ये सुर आबाद नहीं होते। इसलिए मैं जो भी गजल गाता हूं, वो मेरे दिल के करीब होती ही है।
मेरे गुरु की नसीहत
(सवाल ये था कि गुलाम अली साहब किसके मुरीद हैं और वह कौन सी सीख है उनकी, जो आज भी जेहन में दर्ज है...)
मरहूम बरकत अली खान साहब और बड़े गुलाम अली खां, इन्हीं से सीखा है सबकुछ। बड़े गुलाम अली खां साहब की तरह मैं भी पटियाला घराने से ताल्लुक रखता हूं। उनकी हर बात एक सबक की तरह थी। वह कहते थे आराम से गाना हमेशा। हाल बुरा हो, तो सुर अच्छे नहीं रहेंगे। इस बात की चिंता मत करना कि चेहरे पर कैसे भाव आ रहे हैं, हाथ कितने हिल रहे हैं। जब मैं ही हंसकर नहीं गाऊंगा, तो मेरे सुर कैसे मुस्कराएंगे। जब भी स्टेज पर चढ़ता हूं, यह याद रखता हूं।
कोक स्टूडियो और म्यूजिक संग हो रहे दूसरे प्रयोगों पर...
मुझे भी इसके लिए अप्रोच किया गया था, मगर वक्त नहीं निकाल पाया। बहुत अच्छा है ये सब देखना। मेरा साफतौर पर मानना है कि संगीत के साथ किया गया कोई भी प्रयोग उसकी बेहतरी की तरफ एक कदम है। कुछ न कुछ तो कर ही रहे हैं न ये नौजवान। मेरा पूरा समर्थन है, इस तरह की मुहिम को।
वो एक वाकया
एक बार कोलकाता में गा रहा था। तमाम फऱमाइश के बीच मैंने कहा कि आपको पंजाबी में कुछ सुनाता हूं। पसंद नहीं आएगा, तो बीच में ही खत्म कर दूंगा। फिर उन्हें जदो मी मेरा माइया रुसया सुनाया। आप यकीन नहीं करेंगे, उन लोगों ने इसे तीन बार सुना। तो ऐसा है निराला हिंदुस्तान और यहां के सुरीले लोग।
पाकिस्तान के हालात
हर जगह वहशीपन है, खराब हालात हैं। हम तो बस दुआ करते हैं और हर जगह गाते हैं क्योंकि सुर हौसला देते हैं।

बुधवार, अगस्त 31, 2011

ब्रेन गार्ड चाहिए बॉडीगार्ड देखने के लिए

सौरभ द्विवेदी
एक स्टार
एक हीरो थे, अब लगातार फ्लॉप दे रहे हैं, इसलिए एक्टर हो गए हैं, नाम है अक्षय कुमार। उन्होंने दो एक साल पहले बैक टु बैक कई सुपरहिट फिल्में दीं। उन्हें और उनसे ज्यादा प्रॉड्यूसर्स को लगा कि फॉम्र्युला मिल गया है। उसके बाद अक्षय एक हिट के लिए तरस रहे हैं। मगर बॉडीगार्ड तो सलमान खान की फिल्म है, तो फिर अक्षय का जिक्र क्यों। आज मुझे लगा कि सलमान भी उसी रास्ते पर जा रहे हैं या कहें कि धकेले जा रहे हैं। वॉन्टेड, दबंग, रेडी के खुमार में डूबकर अगर ऐसी ही फिल्में वह करते रहे तो उनकी स्टार पावर पास्ट टेंस की चीज बन जाएगी। बॉडीगार्ड में एक भी नया थॉट, डायलॉग या स्टोरी पॉइंट नहीं है। जब फिल्म खत्म होने को आई तो डायरेक्टर सिद्धीक को क्रिएटिविटी की सूझी और उन्होंने क्लाइमेक्स में कहानी के साथ ऐसे खिलवाड़ किए कि आपकी कल्पना कराहती नजर आई।
आज रेग्युलर रिव्यू नहीं, आप तो बस फिल्म के कुछ फॉम्र्युलों के बासीपन पर उदाहरण सहित नजर फरमाएं।
सलमान की एंट्री : असली शॉट ट्रांसपोर्टर 2 से लिया गया। हीरो अपने एंट्री शॉट में बहुत सारे गुंडों की धुलाई करता है और बीच-बीच में कॉमिक सिचुएशन पर गुंडों समेत हंस भी लेता है। इस शॉट को प्रभु देवा ने वॉन्टेड में सलमान की एंट्री के लिए यूज किया। अभिनव कश्यप ने दबंग में यूज किया और अब सिद्दीक ने बॉडीगार्ड में यूज किया। मकसद 1, पब्लिक को ये बताना कि तुम्हारा नायक बिना किसी नखरे के कितनों की धुलाई कर सकता है। मकसद 2, सलमान के बदन से शर्ट नाम की चिडिय़ा को हट्ट-हुर्र करके उड़ाना। मकसद 3, आगे की फिल्म की टोन सेट करना।
सलमान की एंट्री का गाना : माफ कीजिए सलमान पर फिर लौट रहा हूं क्योंकि फिल्म उनके मजबूत बदन पर टिकी है।औसत फिल्म मगर सल्लू के फेर में अच्छी ओपनिंग पाई फिल्म रेडी याद है आपको। उसका गाना ढिंका-चिका की मस्ती को फ्लैशबैक से वापस लाइए। अब एक गाना सोचिए जो मस्त हो, मगर हुड़ दबंग-दबंग वाले वीर रस से भरा हो। आओ जी-आओ जी... आ गया है देखो बॉडीगार्ड गाना तैयार है। डोले फड़काते स्लीवलेस शर्ट पहने सलमान, उनके इर्द-गिर्द भुजाएं फड़काते, दंड पेलते तमाम नौजवान। अभी सिंघम में भी कुछ ऐसा ही था न।
हीरो के साथ जोकर : एक कार्टून नायक के इर्द-गिर्द ताकि फिल्म का कॉमेडी वाला कोटा पूरा किया जा सके। वॉन्टेड में ये काम मनोज पाहवा ने किया था। जानू जानू बोलकर, फनी कपड़े पहनकर और आयशा टाकिया के आसपास घूमकर। बॉडीगार्ड में रजत रवैल ने सुनामी सिंह का किरदार निभाया है, जो मोटा है मगर मजाकिया नहीं। जब उसके डायलॉग नहीं हंसा पाते, तो डायरेक्टर उन्हें गल्र्स के कपड़े पहनाने और फिर गल्र्स से पिटवाने का उपक्रम भी कर लेते हैं, मगर हंसी, वो तब भी पराई ही बनी रहती है।
कुछ खास आवाजें और एक पंच लाइन : जब मैं एक बार कमिटमेंट कर देता हूं, तो अपनी भी नहीं सुनता, भइया जी स्माइल जैसे पंच लाइन की तर्ज पर इस फिल्म में डायलॉग है मुझ पर एक एहसान करना कि मुझ पर कोई एहसान न करना। इसके अलावा सलमान के किरदार लवली सिंह की एक खास रिंगटोन और हर बार फोन बजने पर उनका कूल्हों को पुश करके चौंकना बेढब लगता है।
करीना कॉकटेल में फंसीं : कभी खुशी कभी गम में करीना का एंट्री शॉट याद करिए। इट्स रेनिंग...की तेज बीट, मस्कारा और लिपस्टिक लगातीं, चमकीली ड्रेस पहनतीं करीना। अब जब वी मेट की करीना यानी गीत को याद करिए। शानदार चटख कंट्रास्ट के कुर्ते पहनने वाली शोख नायिका।इन दोनों को मिला दीजिए। बॉडीगार्ड में करीना यानी दिव्या की एंट्री हाजिर है। इसके अलावा जब लवली और दिव्या की लव स्टोरी डायरेक्टर के हिसाब से गहरे भंवर में फंस जाती है, तब एक गाना शूट होता है। इस गाने के लिए उन्होंने मैं हूं न की सुष्मिता को, दे दना दन में अक्षय कटरीना के गाने को और थ्री इडियट्स के जूबी डूबी गाने में साड़ी में लिपटी करीना को बार-बार देखा और गाना बना दिया।
कुछ और फॉम्र्युले बाकी हैं अभी : वफादारी बहुत बड़ा मूल्य है। सिनेमा के पर्दे पर जैसे तस्वीरें बड़ी दिखती हैं ये मूल्य भी मैग्निफाई हो जाता है। उसी के इर्द-गिर्द है बॉडीगार्ड की कहानी। लवली सिंह के मां-बाप को सरताज सिंह राणा (राज बब्बर) ने बचाया, लवली उनका एहसानमंद है। अब लवली को उनकी बेटी दिव्या को बचाना है। मगर दिव्या को लवली से प्यार हो जाता है। यहीं से मुश्किल शुरू होती है। बॉडीगार्ड मालिक की बेटी से कैसे प्यार कर सकता है। यही है कहानी फिल्म की।यहां रुककर नाइनटीज में आई फिल्म बंधन को याद करिए। जो जीजा जी बोलेंगे, मैं करूंगा बोलते सलमान खान। यहां इसी रट के साथ प्रकट हुए, कि मैडम आई एम योर बॉडीगार्ड। कोई कुछ कैसे कर सकता है।
इसके अलावा स्टोरी आगे बढ़ाने के लिए इसमें कभी खुशी कभी गम की तरह मर चुकी साइड एक्ट्रेस है, जिसका बच्चा, मां की डायरी पढ़कर अपने पापा की लव स्टोरी के बारे में जानता है। फिर पापा को उनके असली प्यार से मिलवाता है। इसके अलावा गाने की और एक्शन की ऐसी-ऐसी सिचुएशन हैं, जिनका तर्क से नहीं तकलीफ से लेना देना है। फिल्म पूरा देखने की तकलीफ। बॉडीगार्ड देखने के लिए ब्रेन गार्ड चाहिए।

शनिवार, अगस्त 20, 2011

काफी सही, कुछ गलत है ये फिल्म


दिल्ली सिर्फ चांदनी चौक और करोल बाग में या जनपथ-राजपथ पर ही नहीं बसती। एक दिल्ली, खालिस-भदेस दिल्ली उन ग्रामीण इलाकों में बसती है, जो पहले दिल्ली की सरहद पर थे और अब इसका हिस्सा हैं। उस दिल्ली को सेल्युलाइड पर पहली बार जोरदार ढंग से प्रवीण डबास ने दिखाया है। प्रवीण को अब तक आप एक मॉडल एक्टर के तौर पर जानते थे, जो मॉनसून वेडिंग और खोसला का घोसला के लिए याद रह जाते हैं। मगर सही धंधे-गलत बंदे एक दूसरे डबास को हमारे सामने रखता है। न्यू यॉर्क फिल्म इंस्टिट्यूट में सीखी चुस्ती को किरदारों के डिटेल्स डिवेलप करने में यूज करता, साथ ही ग्रामीण दिल्ली के औचक ह्यूमर और बेचारगी को त्रासद रूप में पेश करता राइटर और डायरेक्टर, जो फिल्म के लीड रोल में भी है। सही धंधे, गलत बंदे की कहानी और कैमरे में कई अच्छे प्रयोग हैं, मगर ट्रैजिडी को गाढ़ा करने के लिए कहानी में कन्टीन्यूटी और टेंशन होना जरूरी है। वो कहीं-कहीं मिस होता है। हरियाणवी भाषा की वजह से ह्यूमर के लिए बहुत गुंजाइश थी, वो कहीं-कहीं ही नजर आता है। इसके अलावा एक्टर प्रवीण की बॉडी लैंग्वेज उतनी रफ नहीं हो पाती, जितने की उन्हीं का लिखा कैरेक्टर राजबीर डिमांड करता है। इतना सब कहने के बाद भी मैं आपको सलाह दूंगा कि ये फिल्म एक बार देखनी चाहिए। क्यों ये आगे बताता हूं।

कच्चेपन की महिमा

फिल्म की कहानी प्रवीण के अपने गांव कंझावला और अपने एक्सपीरियंस के इर्द-गिर्द घूमती है। कंझावला दिल्ली के बाहरी इलाके में बसा एक गांव है। प्रवीण के पिता समेत वहां के तमाम किसान सरकारी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ पिछले कई सालों से संघर्ष कर रहे हैं। इसी थीम को प्रवीण ने अपनी पहली कहानी का आधार बनाया। कहानी है चार लड़कों की, जिनके निकनेम से उनके किरदार की लय पता चलती है। ये बालक हैं राजबीर (प्रवीण डबास), सेक्सी (वंश भारद्वाज), अंबानी (आशीष नय्यर) और डॉक्टर (कुलदीप रूहिल)। राजबीर का बाप जमीन के रेट चढऩे के गुमान में दारू पी और गड्डी खरीद मर गया, फिर मां भी मर गई, जमीन बिक गई। सेक्सी जैसा की नाम से पता चलता है छिछोरा टाइप और चब्बी चेजर है। अंबानी हर वक्त कैलकुलेटर लिए फिरता है और एक बड़ा हाथ मार सेटल होना चाहता है। डॉक्टर बीवी बच्चों वाला है और मेडिकल स्टोर चलाने की वजह से ये नाम पाता है। कंझावला के रहने वाले ये चारों एक छुटभैया गैंग चलाते हैं और एमएलए का सपना पाले फौजी (शरत सक्सेना)के लिए घर खाली कराने, धमकाने जैसे काम करते हैं। फिर फौजी इनको सौंपता है अपने ही गांव के लोगों का धरना तुड़वाने का काम और यहीं पर राजबीर की आत्मा जाग जाती है। अगर डॉक्टर का डायलॉग लेकर कहूं तो उनके अंदर से आवाज आती है कि बदमाश हैं, मगर कमीने नहीं हम। अब एक तरफ है सूबे की सीएम, जमीन पर कब्जा कर इंडस्ट्री बनाने की फिराक में लगा घाघ बिजनेसमैन अग्रवाल(अनुपम खेर) और उसका साथ देता फौजी और दूसरी तरफ है राजबीर की चौकड़ी। बंदे गलत हैं, मगर इस बार काम सही उठाया है। कैसे निपटाते हैं वे मुश्किलें, इसी से फिल्म का अंत तय होता है।

फिल्म में कई चीजें बहुत अच्छी हैं। जैसे ओपनिंग ट्रैक में फोक सॉन्ग का इस्तेमाल, गांव के धुंधले-भूरे विजुअल और चार बच्चों का ऊधम, जो बाद में लीड कैरेक्टर बनते हैं। धरने के दौरान रागिणी का सीक्वेंस बहुत प्रामाणिक और उसकी वर्डिंग बहुत मौजू है। इसके अलावा कई जगह डायलॉग उम्दा हैं। बालकों ने अपने किरदार में नांगलोई, नजफगढ़ की हवा पानी को उतार कर रख दिया। मुंबई माफिया पर, उसकी मैकेनिज्म पर हमने बहुत फिल्में देखीं, मगर दिल्ली में ये तंत्र कैसे काम करता है, ये फिल्म बखूबी दिखाती है। यूं समझ लें कि खोसला का घोसला में प्लॉट के बाहर लाठी लिए खड़ा वो गबरू, जो अनुपम खेर की फैमिली से कहता है कि मैं तेरा फूफा ओमवीर, ये फिल्म उसी ओमवीर की अपनी त्रासदी की कहानी है।


काश यूं होता कभी

फिल्म में जमीन का मुद्दा है, सरकारी तंत्र के आगे बेबस किसान हैं, मीडिया का रोल है और गुस्साए युवा हैं। अन्ना मूवमेंट के इस मोड़ पर रिलीज हुई इस फिल्म को इससे बेहतर समय संदर्भ नहीं मिल सकता था। मगर फिल्म की स्क्रिप्ट कई जगह सुस्ताती और झोल खाती है, जिसकी वजह से दर्शक पहलू बदलने लगता है। सीएम के बेटे की कहानी, उसका एटीट्यूड और लास्ट में उसका गांव वालों के सपोर्ट में आना फिल्मी सा लगता है।राजबीर का लव ट्राएंगल जबरन ठूंसा गया है, गोया हीरो के एक दूसरे साइड को दिखाने पर ही उसके अंदर का ह्यूमन पूरा नजर आता। इसके अलावा अनशन की साइट पर मीडिया के नाम पर सिर्फ एक ही टीवी पत्रकार का होना अजीब लगता है। वह भी तब जब सूबे की सीएम का बेटा धरने पर बैठा हो। फिल्म में नई लोकेशन हैं, किरदारों का लहजा नया है, मगर इन कुछ बारीक चूकों के चलते इसकी विश्वसनीयता कुछ घट जाती है। फिल्म खुद की जगाई उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाती, इसलिए कुछ अफसोस भी रह जाता है। ऐसा फील आता है कि यार अच्छी थीम और ट्रीटमेंट था, बस थोड़ी सी गुंजाइश रह गई। मगर पहली फिल्म के लिहाज से डबास का होमवर्क जबर्दस्त लगता है। ये फिल्म एक अनछुई दिल्ली और उसके बाशिंदों की तकलीफ समझने के लिए देखिए, कच्ची यानी कंक्रीट के बजाय मिट्टी की जमीन पर रहने वालों की दिल्ली के लिए देखिए। अच्छी से चिन्नी भर कम, मगर एवरेज से कहीं ज्यादा है सही धंधे-गलत बंदे।
2.5 star

सिनेमा का शानदार सबक है नॉट ए लव स्टोरी

बहुत समय पहले की बात है, एक आवारा, बागी जीनियस मुंबई में पाया जाता था, नाम था रामगोपाल वर्मा। सब उसे रामू कहते थे।रामू ने कई एक सालों की मेहनत से मुंबई नगरी का ग्रैमर बदल दिया था। उनकी फैक्ट्री से निकली शिवा, सत्या, कौन, कंपनी जैसी फिल्मों ने कैमरे की लचक, बैकग्राउंड स्कोर की धमक और कहानी के कटीले असर को स्थापित किया। इस फैक्ट्री से अनुराग कश्यप जैसे तमाम प्रतिभाशाली डायरेक्टर, राइटर निकले। फिर कुछ सालों में ही रामू एक सनक का नाम हो गए।उन्होंने नाच, फूंक, वास्तुशा जैसी फिल्में बनाईं जो बॉक्स ऑफिस पर फेल रहीं और इस सनक में पूर्णाहुति का काम किया रामगोपाल वर्मा की आग ने। उस आग में रामू की इमेज ऐसी जली कि सरकार जैसी इक्का-दुक्का हिट भी उसे बचा नहीं पाईं।
आज की बात है कि पुराना रामगोपाल वर्मा परदे पर, कहानी में, कैमरे के पीछे लौट आया है। इस शुक्रवार को रिलीज हुई उनकी फिल्म नॉट ए लव स्टोरी इस बात की ताकीद पूरे तेवरों के साथ करती है। एक कहानी, जिससे हर कोई वाकिफ है, इतने सरल और सघन तरीके से अपने अंत तक पहुंचती है, कि सीखने को पूरा एक चैघ्टर मिल जाता है। स्टार नहीं, एक्टर अपने रोल ऐसे निभाते हैं कि बरसों याद रहने लायक मेमरी रील मिल जाती है। और कैमरा, उस पर तो पूरा एक पेज लिखा जा सकता है। जिसे सिनेमा का शौक है, जिसे कैमरे का शौक है, या जिसे सीन के समंदर की अनंत गहराइयां सीखनी हैं, उसे तो ये फिल्म बार-बार देखनी चाहिए। फिल्म में कैमरा हर फ्रेम में इतना कुछ कहता है कि नजर चूकी नहीं और एक गहरी अर्थपूर्ण व्याख्या मिस हो गई।भदेस लहजे में कहूं तो रामू का रौला पूरी ठसक के साथ कायम करती है ये फिल्म।
कहानी और कलाकार
हल्ला मचा है कि फिल्म मुंबई के नीरज ग्रोवर मर्डर केस पर बेस्ड है। नीरज एक टीवी कंपनी में था, जिसकी हत्या मारिया सुसाईराज नाम की मॉडल के प्रेमी एमिली जीरोम ने कर दी। इस फैक्ट के इर्दगिर्द फिल्म की कहानी बुनी गई है। अनुषा (माही गिल) मुंबई में है और एक्ट्रेस बनने के लिए पापड़ बेल रही है। घड़ी-घड़ी फोन कर हाल लेता है उसका प्रेमी रॉबिन(दीपक डोबरियाल), जो किसी दूसरे शहर में वाइट कॉलर जॉब कर रहा है। अनुषा देह के स्तर पर कोई सौदा नहीं करना चाहती इसलिए उसे आसानी से काम नहीं मिलता। फिर एक जगह बात बन जाती है और उसी दौरान बनता है कास्टिंग डायरेक्टर आशीष (अजय गेही) से उसका रिश्ता। ये रिश्ता दोस्ती का लगता है, कम से कम अनुषा की तरफ से, मगर एक रात अजय भावुक हो, शराब के नशे में खुद को अनुषा पर थोप देता है। फिल्म दिलाने की कृतज्ञता के नीचे दबी अनुषा कुछ नहीं कर पाती। उस रात की सुबह होती है रॉबिन की सरप्राइज विजिट के साथ। और फिर, रॉबिन अनुषा के फ्लैट का सीन देख गुस्साता है, कत्ल करता है, लाश को ठिकाने लगाता है, मगर आखिर में दोनों पुलिस के चंगुल में फंस जाते हैं।
इस सपाट घ्लॉट को रामू ने घना बनाया है, सिंपल एक्टिंग के जरिए। हर शॉट में दीपक और माही नेचरल रिएक्शन देते लगते हैं। इससे ठीक उस पल तो सीन जेहन में कोई ड्रामा पैदा नहीं करता, मगर कुछ मिनटों में वो आपके अंदर पैबस्त हो जाता है, अपने नेचरल टोन की वजह से। और इस पूरे प्रोसेस की वजह से आप फिल्म देखते नहीं, उसका हिस्सा बन जाते हैं। इस हिस्सेदारी में मदद करता है कैमरा, जो कभी तो रुक कर एक चेहरे, एक इमोशन या एक फ्रेम को गहरे से पकडऩे लगता है। पहले धुंधला और फिर साफ होता। या फिर हिलता डुलता रहता है, जैसे स्थिर गर्दन के ऊपर आंखें हिल रही हों, जूम इन जूम आउट हो रही हों।
दीपक ने अब तक ओंकारा, गुलाल जैसी फिल्मों में रॉ शेड वाले रोल किए हैं और जमकर किए हैं। मगर इस फिल्म में उन्हें रॉ हुए बिना उस पागलपन को दिखाना था, जो एकबारगी एक पल को हावी हो गया और फिर उस पल का करम मिटाने के लिए कायम रहा। उन्होंने बिना चीखे, बिना चेहरा बनाए रॉबिन की बेचैनी को शानदार तरीके से सामने रखा। माही इस फिल्म का सेंटर पॉइंट थीं और उन्होंने अनुषा के रोल में ये साबित कर दिया कि इंडस्ट्री को उनके एक्टिंग हुनर की कद्र करनी ही होगी।
रामगोपाल वर्मा की फिल्मों का रेग्युलर चेहरा हैं जाकिर हुसैन। उन्हें आप सरकार समेत तमाम फिल्मों में देख चुके हैं। इस फिल्म में वह इंस्पेक्टर माने बने हैं, कम देर के लिए आए हैं, मगर अपने गब्दू अपीयरेंस, ऑर्डिनरी ड्रेसअप में वो चिलिंग फैक्टर पैदा कर देते हैं, जो आप मुंबई जैसे घाघ शहर में एक सीआईडी ब्रांच के इंसपेक्टर में देखने की उम्मीद करते हैं।
कैमरा है नायकम
मैंने पहले भी कहा और अब इस पूरे पैराग्राफ में कहूंगा कि इस फिल्म की जान कैमरा है। एक सीन है जिसमें माही के फ्लैट में नंगी लाश पड़ी है। कैमरा उस लाश के मुड़े हुए पैर से अपना सफर शुरू करता है, उसके बैकग्राउंड में एक दूसरा नंगा अधदिखा पैर है माही का, उस पर जूम इन करता है और फिर उस फ्रेम में तीसरा पेयर आता है पैरों का, जो दीपक का है। यह पूरा सीन इतना सघन और प्रतीकात्मक है, कि आप सांस रोककर इसे पूरा का पूरा आत्मसात कर लेना चाहते हैं। नॉट ए लव स्टोरी में ऐसे तमाम सीन हैं। एक्ट्रेस का रोल हासिल करने के लालच में इस मोड़ तक पहुंची माही रो रही है और उसका सिर घर में एक दीवार पर टंगे छुटकू से मंदिर के फ्रेम पर टिक जाता है। मंदिर की मेटल सरफेस पर लिखा लाभ चमक रहा है उस दौरान। या फिर कमरे में एंटर करते ही कैमरे की राह में आ जाता है विंड चाइम, जिसके एक स्टिक पर मुस्कुराता आधा चांद बना है।
फिल्म के कैमरा वर्क की एक और खासियत इसका वीभत्स और घिनौना हुए बिना डर पैदा करना है। कहानी है कि लाश को कई टुकड़ों में काटा जाता है, मगर रामू कहीं भी इस सीन को नहीं दिखाते। खून का एक्स्ट्रा शॉट नहीं भरते। लाश को जलते नहीं दिखाते। फिर भी सब कुछ आपके जेहन में दिखता है। यहीं ये फिल्म क्लासिक के दर्जे की दावेदार हो जाती है। सोचें एक सीन है, जिसमें माही को एक कमरे से होकर बाहर जाना है। उस कमरे में लाश के कई टुकड़े पड़े हैं। माही उबकाई न महसूस करे, इसलिए दीपक उसका चेहरा जबरन थामता है ठोड़ी से और नजर ऊपर छत पर कर बाहर निकालता है। आपको पता है कि लाश है, आपको दिख नहीं रही, मगर आपके जेहन से हट भी नहीं रही।
और अंत में...
रामू रियलिटी टच वाली स्टोरी के राजा हैं। कंपनी, जंगल और सरकार जैसी फिल्मों में वह यह साबित कर चुके हैं। नॉट ए लव स्टोरी उसी कड़ी का एक अहम पड़ाव है। हमेशा की तरह संदीप चौटा का बैकग्राउंड स्कोर अच्छा है, मगर गाने कहीं कहीं फिल्म की तीव्रता घटाते लगते हैं। और यहां जिक्र करना जरूरी है फिल्म के क्लाइमेक्स का, जो तसल्लीबख्श भी है और ये बताता भी है कि कहानी हजार अंत लेकर पैदा होती है। ये फिल्म देखिए, मगर कूची कूची लव स्टोरी मोड में नहीं। डीटी में फिल्म देखने के दौरान इस तरह के कई कपल उठकर चले भी गए थे। फिल्म देखिए क्योंकि ये सिनेमा का एक नया सपना, एक नई सच्चाई आपके सामने रखती है।
4 स्टार

शुक्रवार, अगस्त 12, 2011

आरक्षण क्यूईडी प्रॉब्लम नहीं है प्रकाश

सौरभ द्विवेदी
अमिताभ बच्चन, मैथ्स के प्रफेसर और एक प्राइवेट ट्रस्ट द्वारा चलाए जा रहे बेहद प्रतिष्ठित कॉलेज के प्रिंसिपल। एक बार अपने दूधवाले के तबेले में छोटे बच्चों को एक थ्योरम आसान उदाहरणों के जरिए सिखाते हैं। फिर एक शब्द बोलते हैं क्यूईडी यानी क्वाइट इजिली डन। डायरेक्टर प्रकाश झा ने आरक्षण जैसे जटिल मुद्दे का भी यही ट्रीटमेंट किया है, हमेशा की तरह। यहां आप ठहरकर याद कर सकते हैं गंगाजल, अपहरण और राजनीति को, प्रकाश फस्र्ट हाफ में उम्मीदें जगाते हैं, आपस में कई स्तरों पर गुंथा प्लॉट दिखाते हैं, मगर सेकंड हाफ में पहले से तय निष्कर्षों की तरफ हांफते हुए भागते हैं। यहां उनके अंदर के निर्देशक के ऊपर अंदर का बिजनेसमैन हावी हो जाता है। फिल्म को एक ड्रामेटिक और तसल्ली शुदा अंत तक पहुंचाने की हड़बड़ी उन पर हावी दिखती है। आरक्षण में भी यही हुआ। और इसके चलते मनोज वाजपेयी की उम्दा एक्टिंग, अमिताभ की रेंज और उनके सैफ और मनोज के साथ कुछ एक इंटेंस सीन वेस्ट हो गए। आरक्षण एक बार फिर इस यकीन को पुख्ता करती है कि बॉलीवुड बड़े कैनवस पर पॉलिटिकल एंगल वाला मुकम्मल स्टेटमेंट देता ड्रामा बनाने के लिए फिलवक्त तैयार नहीं।
कौन सी डोर खींचे, कौन सी काटे
पंडित छन्नू लाल मिश्र की हवा में बेताल सी डोलती आवाज जब आलाप भरती है और सुर फूटते हैं कौन सी डोर खींचे, कौन सी काटे, तो सम्मोहन पैदा होता है। सिनेमा और संगीत अपना धर्म पूरा करते लगते हैं। ये लाइन लिखने वाले प्रसून जोशी के हाथ चूमने का मन करता है। मगर फिर पूरी फिल्म के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि झा और फिल्म के राइटर अंजुम राजाबली नौकरी में आरक्षण, दलित और पिछड़ी जातियों के अंतर्विरोध, शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण और इस मैदान पर अपने-अपने पाले में खड़े हो हुंकारें भरते तमाम मोहरों को समेट नहीं पाए। फस्र्ट हाफ में फिल्म मोहब्बतें के नारायण शंकर के अनुशासन में सांस लेते गुरुकुल जैसे कॉलेज में शुरू होती है। प्रभाकर आनंद (अमिताभ) यहां के प्रिंसिपल हैं और दीपक कुमार (सैफ) यहां के सबसे होनहार स्टूडेंट, जो जाति से दलित हैं। प्रिंसिपल साहब की बेटी पूर्वी (दीपिका) दीपक की दोस्त है और ये दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं। इस ग्रुप में शामिल है सुशांत जो ऊंची जाति का है। इन सबके जीवन में हलचल आती है तब, जब सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली बेंच सरकारी शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी कैटिगरी के लिए 27 फीसदी रिजर्वेशन के पक्ष में फैसला सुनाती है। यहीं से राजनीति शुरू हो जाती है उस कॉलेज में जो प्राइवेट होने के कारण सीधे इस फैसले से प्रभावित नहीं होता, मगर यहां के लोगों की जातीय अस्मिता अचानक जाग जाती है। इस बीच कॉलेज के ही एक कोचिंग माफिया अध्यापक फलक पर उभरते हैं और अपनी राजनीति के जरिए रिजर्वेशन पर पक्ष और विपक्ष की फांक साफकर देते हैं। यहां होता है इंटरमिशन और लगता है कि आरक्षण और अनुशासन के बीच फंसा ये प्लॉट कुछ ठोस दिखाएगा। मगर इंटरवल के बाद फिल्म फोकस हो जाती है कोचिंग माफिया के ऊपर। कैसे कुछ कॉलेज और स्कूल अध्यापक अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करते। फिर खोलते हैं महंगी कोचिंग जिसमें एडमिशन को बच्चे मजबूर हैं क्योंकि उन्हें रैट रेस जीतनी है। ऐसे सीन में कॉलेज से रिजर्वेशन पर अपने स्टैंड के चलते चलता किए गए प्रिंसिपल साहब को एक व्यक्तिगत वजह मिल जाती है कोचिंग माफिया से लडऩे की और तमाम मुश्किलों के बाद क्या गरीब, क्या पिछड़े क्या अगड़े सबके बच्चे एक तबेला स्कूल में पढ़कर अपना भविष्य सुधारते हैं क्योंकि उन्हें पढ़ाते हैं कुछ नेक आदर्शवादी विचारों वाले लोग।
इस कहानी को सुनकर और अगर आप फिल्म देखने चले गए तो देखकर समझ नहीं आएगा कि आरक्षण फिल्म पर मचे बवाल की वजह क्या है। आखिर इसमें कुछ भी तो भयंकर, क्रांतिकारी या नया नहीं। और सेकंड हाफ में तो फिल्म फिल्मी ट्रीटमेंट के जरिए सबका भला करे भगवान की तर्ज पर बात करने ही लगती है।
एक्टिंग पर कुछ बातें
जैसा मैंने पहले भी कहा अमिताभ सफेद दाढ़ी और फॉर्मल जोधपुरी सूट में नारायण शंकर की याद दिलाते हैं। हां आवाज में कड़की की जगह एक सर्द नरमी जरूर है। फिर सेकंड हाफ में अपनों और दुश्मनों से जूझते वक्त वह विरुद्ध के मजबूर और फिर संकल्पशील पिता की याद दिलाते हैं, जो लेंस के पीछे छिपी पनियाई आंखों में अपने आदर्शों को घुलने नहीं देता। आरक्षण अगर कुछ जमी तो अमिताभ उसकी एक अहम वजह हैं। मनोज वाजपेयी ने मिथलेश सिंह के रोल में एक बार फिर कमाल अभिनय किया। राजनीति में भी वही बेस्ट थे।याद कीजिए वीरेंद्र प्रताप सिंह के हवा में हाथ झुलाकर करारा जवाब दिया जाएगा वाले डायलॉग को। मनोज अमिताभ के साथ किसी भी फ्रेम में कमजोर नहीं दिखे। साझा फ्रेम की ही बात करें तो अमिताभ से आरक्षण पर उनका स्टैंड पूछते सैफ उम्मीदें जगाते लगे। कलमी मूंछें और प्लेट वाली हेयर स्टाइल और बिना टक इन किए शर्ट में वह स्कॉलर वाली टिपिकल इमेज क्रिएट करते हैं। मगर सेकंड हाफ में उनकी एक्टिंग फ्लैट हो जाती है। स्क्रिप्ट में भी ज्यादा गुंजाइश नहीं बचती उनके लिए। दीपिका शहरी लड़की के रोल में चुहल के मोमेंट्स अच्छे से क्रिएट करती हैं, अच्छा लगता है गाने को वह एक देह बख्शती हैं, मगर उनके रोल में एक किस्म के भदेसपन की गुंजाइश थी, जो उन्होंने गंवा दिया।उन्हें अपने इलीट तेवर विसर्जित करने के लिए अपने को स्टार सैफ की ओमकारा देखनी चाहिए।प्रतीक बब्बर फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी हैं, उनका रोल अधूरा, उनके हाव-भाव भौंचक्के से। एक संभावनाशील एक्टर का इस तरह वेस्ट होना अखरता है।
और अंत में...
आरक्षण निराश करती है, कई स्तरों पर। इसमें शुरू किया गया राजनीतिक विमर्श सरलीकरण का शिकार है। इसके अलावा फिल्म में कई चीजें जबरन हैं, जैसे दे दे मौका गाना, जिसका कोई ओर-छोर और औचित्य नहीं। इसके अलावा कहानी को फाइनल रिलीफ देने के लिए हेमा मालिनी के किरदार का सहारा भी जमता नहीं। आखिर आरक्षण या एजुकेशन सिस्टम पर कोई भी लड़ाई इसी सिस्टम के अंगों के सहारे लड़ी जानी है, किसी गार्जियननुमा दैवीय से दिखते हस्तक्षेप के जरिए नहीं। प्रकाश झा ने दामुल जैसी तीखी क्लैसिक फिल्म बनाई, जो नहीं चली। झा ने बड़ी स्टार कास्ट के साथ राजनीति बनाई जो सुपरहिट रही। इस फिल्म में न तो तीखापन है और न ही बड़ी स्टारकास्ट के बावजूद हिट होने की कोई वजह।


शनिवार, अगस्त 06, 2011

नेक ख्यालों वाली बोरिंग फिल्म

टीवी सिरीज को फिल्म में बदलने के अपने जोखिम हैं। टीवी सीरियल 24 मिनट का और कम से कम तीन ब्रेक वाला होता है। ऐसे में हफ्तों महीनों में जिन किरदारों से राब्ता कायम होता है, उनकी हरकतों के साथ एक पहचान स्थापित हो जाती है। इसलिए आगे चलकर बार बार वो तनाव नहीं बुनना पड़ता, जो किसी किरदार को उसकी खास रंगत मुहैया कराता है। ऑफिस ऑफिस बीते बरसों का ऐसा ही सीरियल था। इसके किरदार अपनी सिग्नेचर टोन के साथ हमारी बातचीत और जेहन का एक हिस्सा बन गए थे। पानी में जो दिखती नहीं, वो छवि हूं मैं, मुसद्दी लाल नाम है मेरा, कवि हूं मैं, जैसे तमाम वन लाइनर आज भी बिना किसी जतन के याद हैं, क्योंकि ऑफिस ऑफिस सहज ह्यूमर का अड्डा था। शुक्ला जी की पान की पीक, ऊषा जी का खींचकर बोलना वही तो और भाटिया जी के रोल में गब्दू टेट्रा चिन दिखाते मनोज पाहवा का हमेशा समोसे खाते रहना, सब कुछ सरकारी तंत्र पर बुने गए व्यंग्य का एक अनिवार्य हिस्सा लगता था।
सीरियल पर इतनी बात क्योंकि इसकी थीम पर बनी फिल्म चला मुसद्दी ऑफिस ऑफिस में ये सब किरदार और यही सरल बातें होने के बावजूद कुछ मिसिंग है। कहानी उबाऊ हो जाती है, अपेक्षित हो जाती है और किरदार बिना सींग के पालतू बैल जैसे हो जाते हैं, जो अपने ऊपर बैठा कौआ भी नहीं उड़ा सकते।
कई पेच ढीले रह गए
फिल्म में पुराने सेटअप के अलावा एक नया किरदार आया है बंटी त्रिपाठी का। ये मुसद्दीलाल जी के बेटे हैं और निठल्ले हैं। इसे निभाया है गौरव कपूर ने।स्किनी से गौरव कपूर एमटीवी वी टीवी के यो टाइप प्रोग्रैम होस्ट करें और टाइम मिले तो आईपीएल मैच के पहले बेवकूफाना सवाल पूछें। फ्रेम में एक तरफ पंकज कपूर और दूसरी तरफ गौरव कपूर को देखना कागजी नींबू वाले अचार को पीतल के बर्तन में रखने की तरह है। मुसद्दी लाल के चेहरे की करुणा गौरव की ओवर एक्टिंग के चलते मजाक में बदल जाती है। और याद रहे मुसद्दी मजाक का नहीं पीड़ा से उभरे व्यंग्य का नायक है। इसीलिए वो कॉमेडी सर्कस के जमाने में कुछ भदेस ठहाकों की जमीन मुहैया कराता रहा है। इस पैच वर्क के अलावा जमे जमाए कैरेक्टर भी दोहराव के शिकार लगे हैं। फिल्म उनके ढर्रेदार डायलॉग के सहारे आगे बढऩे के जतन में घिसटने लगती है। ऐसा लगता है कि जैसे पूरी फिल्म के दौरान डायरेक्टर राजीव मेहरा इस उहापोह के शिकार रहे कि मुसद्दीलाल की टोन और चेहरे के भावों के उतार चढ़ाव के जरिए कॉमेडी पैदा की जाए या उनके आसपास जमा सरकारी जमूरों की टोली के बोल बचनों के जरिए।
कुछ भला भी लगा क्या
एक सरकारी कर्मचारी दूसरे सरकारी कर्मचारी से : कहते हैं ठीक कर देंगे, अरे हम कोई बीमारी थोड़े ही न हैं, जो ठीक हो जाएंगे।
सरकारी तंत्र की मानसिकता पर ऐसे ही कुछ मार्के वाले व्यंग्य हैं फिल्म में, जो गुदगुदाते हैं। इसके अलावा चपरासी शुक्ला का हर बात के बाद पान की पीक थूकने का मेटाफर अच्छा है। इस बारे में सोचते ही कि कोई आगे पीछे देखे बिना कहीं भी पान थूक सकता है, एक घिन सी उठती है। मगर कमाल ये कि पूरी फिल्म में वो पीक सिर्फ एक बार दीवार पर दिखाई गई। बाकी रील में कैमरे को पीक गिरने की आवाज सुनाने तक सीमित रखा गया। इस अदृश्य पीक से जो घिन पैदा होती है, वो कहीं गहरी है। दरअसल ये पीक नहीं वो बदबू है, सीलन है, जो हर सरकारी दफ्तर में भरी है। आप यहां एंटर करिए, सफेद कलई से पुती दीवारें, काली भूरी हो चुकी कुर्सियों पर झूलते बाबू, चाय ले जाता छोटू, खैनी रगड़ते चपरासी और बेअदबी से बात करते कर्मचारी नजर आएंगे।
और अंत में...
फिक्स्ड ट्रैक से हटकर कुछ अप्रत्याशित होता लगता है फिल्म के अंत में, मगर फिर ये भी लगे रहो मुन्ना भाई के घूस से तंग बूढ़े वाले सीन से प्रेरित लगता है। इसके अलावा गाने के नाम पर मुसद्दी मुसद्दी गाते मकरंद देशपांडे कहानी की सुस्ती को और भी बोझिल कर देते हैं। फिल्म में बार--बार कॉमनमैन की बात की गई है। मगर डायरेक्टर भूल जाते हैं कि आम आदमी कॉमेडी फिल्म हंसने के लिए देखने जाता है, घड़ी देखने के लिए नहीं। वह ये भी भूल जाते हैं कि अकेले पंकज कपूर के सहारे फिल्म नहीं खिंच सकती।

नेक ख्यालों वाली बोरिंग फिल्म

टीवी सिरीज को फिल्म में बदलने के अपने जोखिम हैं। टीवी सीरियल 24 मिनट का और कम से कम तीन ब्रेक वाला होता है। ऐसे में हफ्तों महीनों में जिन किरदारों से राब्ता कायम होता है, उनकी हरकतों के साथ एक पहचान स्थापित हो जाती है। इसलिए आगे चलकर बार बार वो तनाव नहीं बुनना पड़ता, जो किसी किरदार को उसकी खास रंगत मुहैया कराता है। ऑफिस ऑफिस बीते बरसों का ऐसा ही सीरियल था। इसके किरदार अपनी सिग्नेचर टोन के साथ हमारी बातचीत और जेहन का एक हिस्सा बन गए थे। पानी में जो दिखती नहीं, वो छवि हूं मैं, मुसद्दी लाल नाम है मेरा, कवि हूं मैं, जैसे तमाम वन लाइनर आज भी बिना किसी जतन के याद हैं, क्योंकि ऑफिस ऑफिस सहज ह्यूमर का अड्डा था। शुक्ला जी की पान की पीक, ऊषा जी का खींचकर बोलना वही तो और भाटिया जी के रोल में गब्दू टेट्रा चिन दिखाते मनोज पाहवा का हमेशा समोसे खाते रहना, सब कुछ सरकारी तंत्र पर बुने गए व्यंग्य का एक अनिवार्य हिस्सा लगता था।
सीरियल पर इतनी बात क्योंकि इसकी थीम पर बनी फिल्म चला मुसद्दी ऑफिस ऑफिस में ये सब किरदार और यही सरल बातें होने के बावजूद कुछ मिसिंग है। कहानी उबाऊ हो जाती है, अपेक्षित हो जाती है और किरदार बिना सींग के पालतू बैल जैसे हो जाते हैं, जो अपने ऊपर बैठा कौआ भी नहीं उड़ा सकते।
कई पेच ढीले रह गए
फिल्म में पुराने सेटअप के अलावा एक नया किरदार आया है बंटी त्रिपाठी का। ये मुसद्दीलाल जी के बेटे हैं और निठल्ले हैं। इसे निभाया है गौरव कपूर ने।स्किनी से गौरव कपूर एमटीवी वी टीवी के यो टाइप प्रोग्रैम होस्ट करें और टाइम मिले तो आईपीएल मैच के पहले बेवकूफाना सवाल पूछें। फ्रेम में एक तरफ पंकज कपूर और दूसरी तरफ गौरव कपूर को देखना कागजी नींबू वाले अचार को पीतल के बर्तन में रखने की तरह है। मुसद्दी लाल के चेहरे की करुणा गौरव की ओवर एक्टिंग के चलते मजाक में बदल जाती है। और याद रहे मुसद्दी मजाक का नहीं पीड़ा से उभरे व्यंग्य का नायक है। इसीलिए वो कॉमेडी सर्कस के जमाने में कुछ भदेस ठहाकों की जमीन मुहैया कराता रहा है। इस पैच वर्क के अलावा जमे जमाए कैरेक्टर भी दोहराव के शिकार लगे हैं। फिल्म उनके ढर्रेदार डायलॉग के सहारे आगे बढऩे के जतन में घिसटने लगती है। ऐसा लगता है कि जैसे पूरी फिल्म के दौरान डायरेक्टर राजीव मेहरा इस उहापोह के शिकार रहे कि मुसद्दीलाल की टोन और चेहरे के भावों के उतार चढ़ाव के जरिए कॉमेडी पैदा की जाए या उनके आसपास जमा सरकारी जमूरों की टोली के बोल बचनों के जरिए।
कुछ भला भी लगा क्या
एक सरकारी कर्मचारी दूसरे सरकारी कर्मचारी से : कहते हैं ठीक कर देंगे, अरे हम कोई बीमारी थोड़े ही न हैं, जो ठीक हो जाएंगे।
सरकारी तंत्र की मानसिकता पर ऐसे ही कुछ मार्के वाले व्यंग्य हैं फिल्म में, जो गुदगुदाते हैं। इसके अलावा चपरासी शुक्ला का हर बात के बाद पान की पीक थूकने का मेटाफर अच्छा है। इस बारे में सोचते ही कि कोई आगे पीछे देखे बिना कहीं भी पान थूक सकता है, एक घिन सी उठती है। मगर कमाल ये कि पूरी फिल्म में वो पीक सिर्फ एक बार दीवार पर दिखाई गई। बाकी रील में कैमरे को पीक गिरने की आवाज सुनाने तक सीमित रखा गया। इस अदृश्य पीक से जो घिन पैदा होती है, वो कहीं गहरी है। दरअसल ये पीक नहीं वो बदबू है, सीलन है, जो हर सरकारी दफ्तर में भरी है। आप यहां एंटर करिए, सफेद कलई से पुती दीवारें, काली भूरी हो चुकी कुर्सियों पर झूलते बाबू, चाय ले जाता छोटू, खैनी रगड़ते चपरासी और बेअदबी से बात करते कर्मचारी नजर आएंगे।
और अंत में...
फिक्स्ड ट्रैक से हटकर कुछ अप्रत्याशित होता लगता है फिल्म के अंत में, मगर फिर ये भी लगे रहो मुन्ना भाई के घूस से तंग बूढ़े वाले सीन से प्रेरित लगता है। इसके अलावा गाने के नाम पर मुसद्दी मुसद्दी गाते मकरंद देशपांडे कहानी की सुस्ती को और भी बोझिल कर देते हैं। फिल्म में बार--बार कॉमनमैन की बात की गई है। मगर डायरेक्टर भूल जाते हैं कि आम आदमी कॉमेडी फिल्म हंसने के लिए देखने जाता है, घड़ी देखने के लिए नहीं। वह ये भी भूल जाते हैं कि अकेले पंकज कपूर के सहारे फिल्म नहीं खिंच सकती।

शनिवार, जुलाई 16, 2011

दिल चाहता है मिलेगी दोबारा

सौरभ द्विवेदी
दिलों में अपनी बेताबियां लेकर चल रहे हो, तो जिंदा हो तुम
जावेद अख्तर की कविता, फरहान अख्तर की कुछ भर्राई सोख्ते पर जमी भाप सी गीली और कुछ खुरदरी भी सी आवाज, स्पेन की तपस्या करती चींटियों के रंग की भूरी सी बैकग्राउंड। गुलजार सा सुरमई गीलापन लिए ये सीन फिल्म के तमाम यादगार सीन्स में से एक है। जिंदगी ने मिलेगी दोबारा में वो सब कुछ है, जो हम और आप किसी फिल्म का टिकट खरीदने से पहले चाहते हैं। तीन दोस्त, जो अलग है, मगर कहीं जुड़े हुए हैं। उनके पास खर्चने को पैसा, दिखाने को टोन्ड बॉडी और अच्छे कपड़े हैं। स्पेन की हिंदी सिनेमा के लिहाज से नई सी लोकेशन, सांड दौड़ या टमाटर फेस्टिवल के सीन जो हम न्यूज चैनलों या अखबारों के दुनिया रंग बिरंगी जैसे पन्नों पर देखते आए हैं। अच्छा डांस, लिरिक्स, खूब सारा ऑरिजिनल याराना और नॉन वल्गर मजाक। कटरीना कैफ और उनकी हिंदी, जो किरदार के हिसाब से इंग्लिश एक्सेंट वाली होनी चाहिए, इसलिए खटकती नहीं है। पहली बार नॉर्मल रोल में कल्कि, हालांकि उनके रोल में ज्यादा कुछ करने को था नहीं।
ये तो थे स्निपेट्स, नटशेल में ये समझिए कि जिंदगी न मिलेगी दोबारा, थोड़ी लेंदी, कहीं कहीं कुछ स्लो, मगर ऑल इन ऑल अच्छी, एंटरटेनिंग मूवी है।
ब्रोमैंस का नया फ्लेवर
तीन दोस्तों की कहानियां, इस पर इतनी फिल्में बन चुकी हैं कि आपको नाम गिनाने की जरूरत नहीं। पापा की जेनरेशन का फ्लेवर दिखाया चश्मे बद्दूर ने, हमारी जेनरेशन की टोन सेट की दिल चाहता है ने और अब उसका एक्सटेंशन दिखा जिंदगी न मिलेगी दोबारा में।ये ब्रोमैंस है, ब्रदरहुड वाला रोमैंस, ऐसा घ्यार, जो पागलपन भरा लग सकता है, ऐसा घ्यार जो तू मेरा भाई है वाली साइलेंट टोन लिए हुए आगे बढ़ता है।जिंदगी...इन्हीं तीन दोस्तों के मजबूत कांधों पर टिकी मजबूत कहानी है। कबीर, अर्जुन और इमरान, यानी अभय देओल, ऋतिक रोशन और फरहान अख्तर की कहानी। तीनों ने अपने अपने रोल को बहुत अच्छे से निभाया है। कभी ब्लैक फ्रेम के डेक्स्टर फ्रेम में गीकी लुक और कभी डिंपल के साज पर सजी हंसी के साथ बोलते अभय सूदिंग लगे हैं। पैसा कमाने की फिक्र में फन भूल चुके अर्जुन के रोल में ऋतिक की इंटेंसिटी अपील करती है और फरहान, उनकी एक्टिंग तो हर फिल्म के साथ बेहतर होती जा रही है। फ्लैट इमोशन के साथ घ्लेन डायलॉग और फिर एकदम से किनारे से रिसती हंसी और उस फ्लैट के पीछे के उतार-चढ़ाव सामने। जान हैं ये तीनों इस फिल्म की और अपने कैरेक्टर में जबर्दस्त ढंग से रचे-बसे।
कटरीना और कल्कि किसलिए
तीन दोस्तों की कहानी चूंकि जवानी की दहलीज पर रची जा रही है, तो रोमैंस का एंगल भी जरूरी है। इस मामले में ये फिल्म दिल चाहता है से कुछ बेहतर साबित होती है। यहां फिल्म का मेन घ्लॉट अपनी लाइफ का फलसफा और आपसी टेंशन-लगाव ज्यादा रहता है। घ्यार आता है, मगर सेंटर स्टेज पर काबिज नहीं होता। कल्कि अच्छी एक्ट्रेस हैं, मगर इस फिल्म में नताशा के रोल में उनके पास इरिटेट करने के अलावा कुछ ज्यादा था नहीं। शायद अपनी रेग्युलर इमेज से छुटकारा पाने और मेनस्ट्रीम में पहचान बनाने के लिए उन्होंने ये रोल कर लिया। कटरीना सुंदर दिखी हैं हमेशा की तरह, मगर उन्हें हमेशा की ही तरह एक्टिंग करनी नहीं आती। कुछ एक फ्रेम्स में वो फरहान के साथ ठीक लगी हैं। कैमरे के लिहाज से कहें तो अच्छी बिल्ट के कारण ऋतिक के साथ उनकी जोड़ी जमी है, मगर इमोशनल सीन में उनका चेहरा नकलीपन से भरा लगने लगता है। चादर पर लेट सितारे ताकने जैसा रूमानी ख्याल हो या फिर तीनों दोस्तों के साथ डिनर के वक्त की बातचीत, कटरीना कुछ कसर छोड़ देती हैं।


कैमरा, कविता और कुछ किस्से
रिलेशनशिप में स्पेस नहीं रह जाती और फिर किसी एक को घुटन लगने लगती है। घुटन की एक वजह होती है मोबाइल फोन, वेब कैम और ऐसी ही तमाम डिवाइस, तो आपको कभी भी ट्रैक कर सकती हैं। जिंदगी...में एक सीन है, जब कल्कि और अभय वीडियो चैट कर रहे हैं। बैचलर ट्रिप से ठीक पहले का वाकया है ये। फिर कैमरा पैन होता है, और दिखता है कि अरे ये तो एक ही बेडरूम में हैं और आने वाले कल की प्रैक्टिस कर रहे हैं। जब दोस्तों के साथ फन ट्रिप के दौरान अभय को अपनी हाजिरी इसी कैम के जरिए बजानी होगी। तो ये सिर्फ एक कैमरा या कहानी का हिस्सा नहीं, किस्से के जरिए मिला सबक है। इसी सबक का एक एक्सटेंशन दिखता है, जब तीनों दोस्तों के बीच ऋतिक का फोन सौत बनने लगता है।
बिना हाइपर हुए रिलेशन कैसे पोट्रे कर सकते हैं, इसका भी एक खूबसूरत नमूना है फरहान और उसके बाप नसीरुद्दीन शाह के बीच के सीन। नसीर ने फरहान की मां के प्रेग्नेंट होने के बाद अपनी कलाकारी के पैशन के चलते छोड़ दिया था। फरहान को दूसरे अब्बू के मरने के बाद इसका पता चलता है। जब वो तमाम उधेड़बुन के बाद नसीर से मिलता है, उनके बीच बात होती है, तो डायरेक्टर जोया अख्तर की मैच्योरिटी सामने आती है। हमने अमिताभ और दिलीप कुमार का टकराव शक्ति में देखा, अमिताभ और शाहरुख को कभी खुशी कभी गम में देखा, मगर ये उससे भी उम्दा केमिस्ट्री और कनफ्लिक्ट है। कोई मेलोड्रामा नहीं, बहुत ज्यादा डायलॉग नहीं, एक्स्ट्रा आंसू नहीं, फिर भी सब कुछ बीत जाता है आंखों के सामने से। उड़ान में हमने इस रिश्ते की टकराहट का कस्बाई रूप देखा था, ये महानगरीय या कहें कि अंतरदेशीय टकराहट है।
इसी तरह एक सीन है, जब फरहान एक हिंदी न समझने वाली स्पेनिश बाला से अपने मन की बात कहता है। वो बाला स्पेनिश में कुछ और बोलती है। फिर दोनों एक दूसरे की बात भाषा जाने बिना समझने की कोशिश करते हैं। ये सीन कहीं जाना पहचाना किसी देखी भाली फिल्म से उठाया फिर भी मासूम सा लगता है।
कैमरे की बात करें तो अरसे बाद एक फिल्म देखी, जिसमें शहर पहाड़, सड़कें और इमारतें कहानी का एक पात्र लगती हैं। लोकेशन का खूबसूरती से इस्तेमाल किया है जोया ने। उसी तरह से जावेद साहब की कविता भी फिल्म को बांधने वाले रेशमी तागे सी खूबसूरत लगती है।
कुछ कमी भी है क्या
फिल्म में दो तीन कमियां हैं। ये कुछ लंबी हो गई है। और इस लंबाई को जस्टिफाई नहीं किया जा सकता। कॉलेज टाइम की शर्त कि तीनों एक दूसरे के बताए एडवेंचर स्पोट्र्स करेंगे और उस फेर में सबका एक एक कर डर निकलना कुछ ज्यादा ही खिंचता लगता है। इसी तरह लास्ट में टाइटल ट्रैक के साथ आता गाना या बीच के एक आध गाने भी फिल्म को स्लो करते हैं। कहानी कहीं स्लो होती है, तो कोई एक दोस्त अपने बेवकूफाना किस्सों या हरकतों से उसे संभाल लेता है।
तो जिंदगी न मिलेगी दोबारा देखिए। क्योंकि इसमें जोया अख्तर का मैच्योर डायरेक्शन है। साथ ही एक अचरज भी कि एक लेडी ब्रोमैंस को, पुरुषों के खिलंदड़पन और उसके पीछे छिपे कमजोर पलों को कितनी खूबसूरती से सेल्युलाइड पर उकेरती है।

शनिवार, जुलाई 09, 2011

बहुत हाइप वाली एवरेज मूवी

'मर्डर टू देखने की क्या वजहें हो सकती हैं? महेश भट्ट के प्रॉडक्शन में बनी फिल्मों में खुलापन खूब होता है। मसलन 'जिस्म, 'पाप, 'मर्डर और अब 'मर्डर टू। इन सारी फिल्मों में सबसे ज्यादा याद रखा गया कमनीय काया दिखाने वाले कैमरे को। बिपाशा, उदिता और मल्लिका से होते हुए ये सफर अब जैक्लिन पर रुका है। वह खूबसूरत हैं और इस तरह के सीन, जिसमें अनड्रेस होना या किस करना शामिल है उन्होंने सहजता से अंजाम दिए हैं। पर क्या सिर्फ इसी वजह से ये फिल्म देखी जानी चाहिए। सीन तो कांतिशाह की फिल्मों में भी खूब होते हैं।
कॉकटेल कई फिल्मों का
फिल्म देखने की एक वजह क्राइम थ्रिलर में दिलचस्पी होना हो सकती है। मगर इस मोर्चे पर भी ये फिल्म कई फिल्मों का कॉकटेल नजर आती है। गौर फरमाइए। मेन प्लॉट 2008 में आई साउथ कोरिया की फिल्म 'द चेजरÓ से पूरा का पूरा उठाया गया है। अब इस मेन प्लॉट का भारतीयकरण कर दीजिए। एक विलेन है जो हिजड़ा है और 'सड़कÓ फिल्म में सदाशिव अमरापुरकर के महारानी वाले गेटअप में रहता है।हरकतें 'संघर्षÓ के लज्जाशंकर (आशुतोष राणा) की तरह करता है। वही पागलपन, वही वहशीपन। फिर भट्ट कैंप की ही पहले आ चुकी फिल्मों जैसा देखा-जाना हीरो है।मॉडल सी दिखती लड़की से प्यार करता है। झबरों से बाल और हल्की दाढ़ी रखता है। फिर किसी केस में फंस जाता है, या सॉल्व करने लगता है और आखिर में कामयाब हो जाता है। इमरान हाशमी नेरोलक पेंट की तरह हो गए हैं, सालों साल चले और एक सा रहे। इसके अलावा फिल्म में वही बीट वाला म्यूजिक है, जो इस बार ज्यादा हिट नहीं हुआ। चेज है, पुलिस है, मुंबई-गोवा है। यानी कुछ भी नया नहीं है, सिवाय एक चीज के। और वह चीज या कहें कि चरित्र या किरदार है प्रशांत नारायण का। उन्होंने फिल्म में धीरज पांडे नाम के साइको किलर का रोल प्ले किया है।भले ही ये किरदार 'सड़कÓ या 'संघर्षÓ की याद दिलाता हो, मगर सिहरन उससे भी ज्यादा देता है।इतने खूंखार और वहशी तरीके से उसे हत्या करते दिखाया गया है कि डर के साथ घिन्न भी आने लगती है।
कौन है ये प्रशांत नारायण
'फुलवा सीरियल में आप इन्हें देख रहे हैं। फुलवा के गुरु भइया जी। इससे पहले कई सीरियल्स में देख चुके हैं। फिल्म की बात करें तो दो-तीन हफ्ते पहले आई फिल्म 'भिंडी बाजारÓ में भी प्रशांत का अच्छा रोल था। पिछले साल आई प्रवेश भारद्वाज की फिल्म 'मिस्टर सिंह एंड मिसेज मेहताÓ में उनके लिए करने को कुछ था नहीं।मगर उनके लिए 'मर्डर टूÓ में धीरज पांडे का रोल माइलस्टोन साबित होगा। मर्डर के गाने भीगे होंठ तेरे को कत्ल के पहले जब प्रशांत अपनी पतली आवाज में गाते हैं, तो अंधेरा भी डर से कांपने लगता है। प्रशांत का किरदार धीरज अपनी औरत बाजी से इतना तंग आता है, कि हिजड़ों के पास जाकर कामुकता अनुभव करने की वजह ही खत्म कर देता है। मगर इससे उसके अंदर का वहशीपन खत्म नहीं होता। वो लगातार लड़कियों का कत्ल करता रहता है। कत्ल के दौरान वह कीर्तन में इस्तेमाल होने वाले वाद्ययंत्र चिमटे को यूज करता है। यहां बताता चलूं कि धीरज के किरदार को ऐतिहासिक अमेरिकी फिल्म 'साइलेंस ऑफ द लैंब्स के बफैलो बिल से ज्यादा से ज्यादा लिया गया है। यहां वह पेशे से मूर्तिकार है, तो बाकी औजारों को भी लड़की की बॉडी खोलने में काम लाता है। उसके कब्जाए घर में एक कुंआ है, जहां काले पॉलीथीन के ढेर पड़े हैं। कहने की जरूरत नहीं कि उनमें क्या है। इस पूरे मंजर को प्रशांत नारायण की हंसी, शांति और सीटी इतनी खूंखार बना देती है, कि आप सिनेमा हॉल में भी खौफ जैसा कुछ महसूस करने लगेंगे। मगर प्रशांत की एक्टिंग के सहारे फिल्म कितनी खिंचेगी।
कितने बरस, कितने दफा
जैक्लिन हैं, उनकी जगह कोई और भी हो सकता था। मतलब ये कि हिंदी सिनेमा की दूसरी फिल्मों की तरह भट्ट कैंप भी एक्ट्रेस को सिर्फ फिक्स सीन के लिए इस्तेमाल करता दिखता है। एक्टिंग जैक्लिन को आती नहीं, और इसकी उम्मीद भी नहीं थी। रेशमा नाम की कॉलेज गर्ल के रोल में नजर आई सुलग्ना पाणिग्रही निशा कोठारी जैसी दिखती हैं और उन्हीं की तरह जबरन मासूम दिखने की एक्टिंग करती हैं। फिल्म में कैमरा वर्क कहीं-कहीं रामगोपाल वर्मा के भुतिया सिनेमा के अंदाज में गहरे कुंए में उतरता है। इसके अलावा एक गुफा में चूहे श्रीराम राघवन की फिल्म 'एक हसीना थीÓ के क्लाइमेक्स की याद दिलाते हैं।प्रशांत नारायण के बंगले को तैयार करने में आर्ट डायरेक्टर में कमाल का काम किया है।इसमें कल्पनाशीलता कूट-कूटकर भरी नजर आती है। इसके अलावा फिल्म में ज्यादा कुछ नहीं है। स्टोरी स्लो हो जाती है, थैंक्स टु गाने एंड म्यूजिक, जो हाशमी के किरदार भागवत की गिल्ट दिखाने की कोशिश करते रहते हैं।
आखिर में
'मर्डर टू देख सकते हैं अगर टाइम पास करना हो, कुछ खुले सीन देखने हों या फिर एक साइको किलर के रूप में प्रशांत नारायण की एक्टिंग फील करनी हो। नहीं भी देखेंगे तो कुछ ज्यादा मिस नहीं करेंगे। बहुत हाइप वाली एवरेज मूवी है।
two star

शुक्रवार, जून 17, 2011

बहुत भड़भड़ है भिंडी बाजार में

मुंबई की तंग गलियों से बॉलीवुड के कैमरे को छिछोरा रोमैंस हो गया है। इसीलिए तो हर दूसरी फिल्म में ये वहां की तंग गलियों और चुस्त लिबासों के पीछे मंडराता नजर आता है। मगर लुच्चों की टोली में एक ही हीरो होता है, बाकी सब छिछोरे। वैसे ही कैमरे की ये कारीगरी शैतान या आमिर या दूसरी फिल्मों में तो अच्छी लगती है, मगर भिंडी बाजार में ये फॉम्र्युले से बंधी लगने लगती है। कैमरे की तरह कहानी भी एक फ्रेम में फिक्स की गई है। इस फिल्म में इतने ज्यादा रेंज वाले शानदार एक्टर्स की भरमार थी, मगर आखिर में सब कुछ जीरो बटा सन्नाटा साबित हुआ।
बरबादी का बेहतर नमूना

गुलाल के पीयूष मिश्रा यहां तबेला छाप गैंगस्टर पांडे बने हैं। उनके हिस्से कुछ होंठ जबाऊ, आंख को हल्के से मींचकर बोले जाने वाले डायलॉग आए हैं। के के मेनन पूरी फिल्म में सीटी बजाते सुर में चेस खेलने के दौरान वन लाइनर मारते दिखते हैं। शिल्पा शुक्ला कजरी के रोल में शुरू में कुछ कच्चापन और अल्हड़पन दिखाती हैं, मगर बाद में कहानी ऐसी भटकती है कि उनके लिए गुंजाइश नहीं बनती। ये वही शिल्पा हैं, जो चक दे इंडिया में बिंदिया नायक के किरदार की कुंठा, प्रतिभा और स्पर्धा को ऐसे जीती हैं कि शाहरुख के साथ साझा फ्रेम बराबरी पर छूटता है। फिल्म में सबसे ज्यादा रील हिस्से आई है प्रशांत नारायण और गौतम शर्मा के। प्रशांत नारायण के सांवलेपन में एक सुरमे जैसा स्याह सम्मोहन है। यहां फतेह के रोल में उन्होंने दमखम दिखाई है। मगर तेज के रोल में गौतम बहुत सपाट चेहरे के साथ सामने आते हैं। पवन मल्होत्रा को भाई के रोल में हम इतना देख चुके हैं कि अब लगता है जैसे किसी पुराने फिल्म का सीन देख रहे हों। हर बार ब्लैक फ्राइडे के टाइगर भाई का एटीट्यूड ही याद आता है उन्हें देखकर। दीप्ति नवल के हिस्से कुछ सादगी और कुछ बेचारगी आई थी। दीप्ति की एक्टिंग स्किल पर टिप्पणी करने का अभी मेरा दर्जा नहीं, मगर अफसोस कि फिल्म इतने ज्यादा किरदारों को संभालने में इतनी बिखर गई थी कि उनकी अधेड़ कुंठा और प्रतिकार अंधेरे में गुम गया। जैकी श्रॉफ क्लाइमेक्स से पहले पासिंग रिफरेंस में दिखते हैं और आखिरी में बीड़ू स्टाइल में आते भी हैं, तो बस यही लगता है कि न ही आते तो उनके लिए अच्छा होता।
ये इतने सारे सितारों का बैकग्राउंड इसलिए बताया ताकि अपनी बात को वजन दे सकूं। भिंडी बाजार में एक से बढ़कर एक एक्टर थे, मगर कैरेक्टर एक भी ऐसा नहीं बन पाया, जिसे आप हफ्ते क्या कुछ दिन भी याद रखें। भिंडी बाजार में भीड़ है, माल है, मगर एक भी माल ऐसा नहीं, जिस पर दाम लगाया जा सके।
कहानी घिसी पिटी
एक गैंगस्टर फिल्म में क्या तत्व हो सकते हैं। दो युवा, जिनके बीच देर सवेर महत्वाकांक्षा की, बादशाहत की लड़ाई होनी है। ज्यादातर मामलों में इन्हें शुरूआत में दोस्त दिखाना मुफीद रहता है। जैसे कंपनी में मलिका और चंदू या फिर वंस अपऑन ए टाइम इन मुंबई में सुल्तान मिर्जा और शोएब खान के केस में आप इस फंडे को हिट होते देख चुके हैं। मगर यहां फतेह और तेज के बीच कोई कैमिस्ट्री ही नहीं दिखती, तो लास्ट में उनकी आपसी दगाबाजी भी कैसे चौंकाएगी। आइए कुछ और तत्वों के बारे में सोचते हैं। माफिया की रिश्तेदार होगी, जिसके साथ नए लौंडे का चिलमन के पीछे इश्क जमेगा, कुछ भ्रष्ट पुलिस वाले होंगे, एक बड़ा माफिया होगा, मुंबई के बेरोजगार छोकरे होंगे, गलियों में कुछ चेज सीन, एक दो आईटम नंबर, उसूल वुसूल की कुछ बातें और लास्ट में सब खल्लास। भिंडी बाजार में भी यही सब है।
ये इलाका पॉकेटमारों का अड्डा है, यहां मामू बोले तो लोकल डॉन बनने की फाइट है। मामू हैं पवन मल्होत्रा और उनके गुर्गे हैं प्रशांत नारायण, शिल्पा शुक्ला, गौतम शर्मा वगैरह। उधर पीयूष मिश्रा के गैंग में भी कुछ छुटभइये एक्टर हैं। मामू का अपनी रिश्ते की साली से लफड़ा, जो उनकी बीवी दीप्ति नवल यानी बानो को बुरा लगता है। साली को लेकर फतेह भी सेंटी है, मामू मरता है, फिर कुछ और लोग मरते हैं फिर पीयूष यानी पंडित मरता है और फिर सब मर जाते हैं अच्छी क्राइम माफिया थ्रिलर की तरह। फिल्म में सिमरन हैं, बस में सफर करने और घटिया से क्लाइमेक्स को पूरा करने के लिए। वेदिता प्रताप सिंह हैं शबनम के रोल में तंग कुर्ते में क्लीवेज दिखाने और सेक्स सीन की रस्म पूरी करने के लिए। और इस टाट में एक और पैबंद है जबरन ठूंसा कैटरीना लोपेज का आईटम नंबर।
तो फिर क्या करें
माफिया कहानियां बहुत पसंद हैं, तो मत जाइए, टेस्ट खराब होगा। बाकी कुछ ही महीनों में फिल्म किसी टीवी चैनल और डीवीडी पर आ ही जाएगी। भिंडी बाजार से मुझे बहुत उम्मीदें थीं, मगर ये उस फल की तरह निकली जो बाहर से सुर्ख लाल है और अंदर से सड़ा। पीली हरी रोशनी, नैरेशन की अझेल स्टाइल, जिसमें शतरंज की बिसात के साथ कहानी आगे बढ़ती है, सब कुछ जबरन ठूंसा लगता है। कहीं कहीं कुछ स्पार्क दिखता है, मगर वो फॉल्ट किए तार का स्पार्क है, बत्ती नहीं जलेगी इससे।

दिमाग का मस्त दही जमाया भूषण ने, हेहेहे

इस सीज़न में सीक्वेल की बाढ़ आई हुई थी। हर फिल्म के साथ सबसे बड़ी मुश्किल थी, पिछले बैगेज को ढोने की। शुक्र है कि भेजा फ्राय 2 इस बोझ तले नहीं दबी। पिछली फिल्म से इस फिल्म में सिर्फ एक ही चीज आई है, दि बेस्ट चीज और वे हैं हमारे टैक्स इंस्पेक्टर भारत भूषण। बाकी सब कुछ फ्रेश है। उनके दूसरे इंस्पेक्टर दोस्त, उनका प्यार, उनका अंदाज, और उनके गाने का शौक, जो फिल्म की जान है। मुझे दूसरों के पैरामीटर का तो नहीं पता, मगर मेरी समझ के मुताबिक भेजा फ्राय 2 इस समर में रिलीज हुई बेस्ट फिल्म है। टुच्ची- फूहड़ कॉमेडी बनाने वाले इस फिल्म को देखें और सद्बुद्धि पाएं। पब्लिक की चिंता न करें क्योंकि आज पहले शो में ही हॉल पूरा भरा नजर आ रहा था, जबकि इस फिल्म में न तो कोई आइटम सॉन्ग है और न ही सो कॉल्ड ओपनिंग दिलाने वाले स्टार।
ऑरिजनल ईडियट क्यों कहा
सागर बेल्लारी बहुत काबिल डायरेक्टर हैं, मगर मुझे फिल्म की प्रमोशनल टैगलाइन से शिकायत है। इसमें कहा गया है कि द ऑरिजनल ईडियट इज बैक। अरे भारत भूषण अगर सीधा है, सच्चा है और जो मन में होता है, सामने वही दिखाता है, तो ऐसे होने को क्या ईडियट होना कहेंगे। अब बात बेल्लारी की हो रही है, तो इसमें एक नाम और जोड़ लीजिए शरद कटारिया का। इस जोड़ी ने फिल्म का स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखे हैं और आपको तो पता ही है कि कॉमेडी फिल्म की जान उसके डायलॉग ही होते हैं। पुराने हिंदी फिल्मी गानों का स्टोरी में जबर्दस्त टाइमिंग के साथ यूज किया गया है। भूषण किसी भी सिचुएशन में फंसता है, निकलता गाने की डोर पकड़कर ही है। कहीं भी वल्गर बात नहीं, फूहड़ संवाद नहीं, बस रोजमर्रा की जिंदगी की हरकतों के सहारे बात आगे हंसती बढ़ती है। कटारिया और बेल्लारी को फुल माक्र्स।
मैं आपको एक कहानी सुनाऊं
ये भूषण का स्टाइल है। उसके पास हर सीन, हर सिचुएशन के लिए एक कहानी है। बहरहाल, आप तो फिल्म की आउट लाइन सुनिए। टैक्स इंस्पेक्टर भारत भूषण कौन करेगा गेस नाम का रिएलिटी शो जीतते हैं। 25 लाख जीतने के साथ उन्हें मिलता है क्रूज पर जाने का मौका। इस क्रूज पर हैं तमाम फर्जी कंपनियां खड़ी करके बिजनेस टायकून बनने वाला दिलफेंक अजीत तलवार और शो प्रॉड्यूस करने वाले चैनल की प्रॉड्यूसर और भूषण के जज्बात समझने वाली रंजनी। क्रूज पर भूषण की जान आफत में आ जाती है क्योंकि तलवार और उसका गैंग समझता है कि ये टैक्स इंस्पेक्टर उन्हें पकडऩे के लिए क्रूज पर आया है। इसी क्रूज पर भूषण का दोस्त और टैक्स इंस्पेक्टर शेखरन भी है। दुनिया जहान से बेफिक्र भूषण सबके साथ अच्छे से पेश आता है। फिर एक दिन डेक पर होता है एक हादसा और दुनिया क्रूज से निकलकर आईलैंड पर पहुंच जाती है। यहीं पर सबको मिलते हैं जिंदगी के सबक। और हां, भेजा फ्राय लगातार जारी रहता है।
वन मैन आर्मी विनय पाठक
भेजा फ्राय फ्रेंचाइजी की पहली फिल्म में विनय पाठक के अलावा रजत कपूर और रणवीर शौरी ने भी उम्दा रोल प्ले किया था। मगर सेकंड पार्ट पूरी तरह से विनय पाठक का वन मैन शो है। एक आदमी, एक आवाज, मगर उसी आवाज में इतने अलग अलग टोन और वेरिएशन। इतना भोला सा, प्यारा सा, ईमानदार सा और इसी वजह से कई बार बेवकूफ सा लगने वाला भारत भूषण अब बिलाशक हिंदी सिनेमा के सबसे ज्यादा याद रखे जाने वाले पात्रों में से एक है।
विनय ने न सिर्फ एक्टिंग अच्छी की है बल्कि फिल्म का सबसे अच्छा गाना ओ राही भी उन्होंने ही गाया है। ये गाना फिल्म खत्म होने के बाद क्रेडिट के दौरान आता है, तो ये हिदायत है आपके लिए कि हंसकर भागिएगा मत। पूरा गाना सुनकर ही निकलिएगा। इस गाने को म्यूजिक दिया है ओए लकी लकी ओए फेम स्नेहा खानवलकर ने।
बाकी एक्टर्स की बात करें तो के के मेनन अजीत तलवार के रोल में ठीक लगे हैं। बहुत महान नहीं, बेकार भी नहीं। प्रॉड्यूसर रंजनी बनी मिनीषा लांबा के हिस्से ज्यादा कुछ था नहीं। फिल्म की एक और उपलब्धि शेखरन के रोल में सुरेश मेनन हैं। उन्होंने इस गब्दू गोलू पोलू कॉमेडी को एक अच्छा टच दिया है। अमोल गुप्ते भी आईलैंड में निर्वासन की जिंदगी जी रहे बर्मन के रोल में फिट बैठे हैं। मगर उनके रोल की मियाद कुछ ज्यादा नहीं है।
क्यों है ये फिल्म शानदार
हम सिटी लाइफ में हमेशा हार्डकोर स्टैंड लेते हैं। क्योंकि फिल्मों के मामले में आपको ढीली नहीं सीधी रिकमंडेशन चाहिए होती है। तो हमारा मानना है कि भेजा फ्राय जरूर देखो। ये रहीं इसे देखने की कुछ और वजहें :
फिल्म के डायलॉग, चेहरे के एक्सप्रेशन और स्टोरी का मूवमेंट बहुत नेचरल है। कहीं भी चीजें लाउड नहीं होतीं, फूहड़ नहीं होतीं। ऐसे में धमाल--गोलमाल स्टाइल कॉमेडी की ओवरडोज से राहत मिलती है।
देखते वक्त ये सावधानी बरतो कि जहां भी फिल्म स्लो लगने लगे विनय पाठक के चेहरे पर फोकस कर दो, हंसी अपने आप आने लगेगी।
इस फिल्म को आप क्लास डिवीजन के संदर्भ में भी देख सकते हैं। वैसे ये थीम फेजा फ्राय में भी थी। कैसे एलीट क्लास के लिए मिडिल क्लास हरकतें मजाक की चीज होती हैं। मगर भूषण अपनी अच्छाई और सीधेपन से उन हाई फाई लोगों के खोखलेपन को तार तार कर देता है।
कुछ कमी भी है क्या
हां है न। पिछली फिल्म में भूषण का किरदार नया था, बॉक्स ऑफिस पर बहुत उम्मीदें नहीं थीं और ये पूरी तरह से स्लो ओपनिंग के साथ ठीक ठाक बिजनेस करने वाली मल्टीप्लेक्स मूवी थी। मगर इस बार फिल्म को शानदार ओपनिंग मिली है। जाहिर है कि उम्मीदें कुछ ज्यादा हैं। सेकंड हाफ में आईलैंड वाले हिस्से में नैरेशन कुछ स्लो हो जाता है। जब तमाम किरदार होते हैं तब कॉमेडी की टाइमिंग बेहतर रहती है। एक टाइम के बाद पब्लिक पर्दे पर सिर्फ विनय पाठक और के के मेनन को देखकर चट भी सकती है। कहानी कहीं कहीं स्लो लग सकती है। मगर याद रखिए कि ये धीमापन, ये भूषण की बकबक, ये खीझ ही फिल्म की जान है। तो खीजिए नहीं रीझिए क्योंकि ये कॉमेडी वाकई टेस्टी है।
भेजा फ्राय को साढ़े तीन स्टार।

शुक्रवार, जून 10, 2011

सिन की सनसनी से भरी शानदार शैतान

शैतानी बुजुर्गों को कम पसंद आती है, जाहिर है इसीलिए शैतान फिल्म उन्हें चिढ़ाती हुई, आजकल के बच्चों की तरह रैंडम और अजीब लगेगी। मगर वो कहते हैं न कि सनसनी तो सिन करने पर ही महसूस होती है। वैसे ही सनसनाहट फिल्म देखते हुए लगती रही। शैतान अच्छी है क्योंकि इसने एक बार फिर एक था राजा एक थी रानी, जैसे स्टोरी फॉर्मेट को तोड़ा। फिल्म फास्ट ट्रैक पर है, मगर ये ट्रैक सिंगल नहीं है। फिल्म में स्टार नहीं हैं, एक्टर हैं और इसी वजह से कैरेक्टर याद रह जाते हैं। कैमरा वर्क जबरदस्त है, मगर जो दर्शक अनुराग कश्यप का सिनेमा बखूबी देख चुके हैं, उन्हें इसमें बहुत ज्यादा नयापन नहीं लगेगा। बैकग्राउंड म्यूजिक कहानी के मोड़ के पहले बजने वाले जरूरी हॉर्न की तरह है, ताकि सब कुछ अनओके प्लीज न रहे। शैतान देखिए अगर लगता है कि लाइफ कूची कूची कू नहीं होती, शैतान देखिए अगर जबड़ाभींच गुस्सा आता है, शैतान मत देखिए, अगर तेज और तीखे सिनेमा से जायका बिगड़ता है।

कहानी का झोल झपाटा
एक लड़की है, बहुत सुंदर नहीं है, वैसे भी बहुत सुंदर चीजें ड्रॉइंगरूम में सजाने और बार बार पोंछने के लिए ही होती हैं। खैर, लड़की का नाम एमी है। सनकी है। द रिंग की लड़की की तरह काली कूची सी ड्रॉइंग बनाती रहती है। मां उसकी पागल हो गई, मगर लड़की की याद और आदतों में और हां आज में भी, वो जिंदा है। लड़की का नाम एमी है और उसकी मां का सायरा। ये अंदर की दुनिया की बात थी। बाहर की दुनिया के लिए एमी एक रैंडम लड़की है, जिसका बाप एनआरआई है, अभी लॉस एंजिल्स से मुंबई शिफ्ट हुआ है। एक पार्टी में एमी की मुलाकात केसी से होती है। केसी भी अमीर बाप का बेटा है। सनकी सोल्जर है। एक मॉडल एक्ट्रेस तान्या शर्मा उसकी गर्लफ्रेंड है, और सेक्सुअल रिफरेंस न लें, तो दो रियली क्लोज बॉयफ्रेंड भी हैं। एक का नाम है डैश और दूसरे का जुबिन। जुबिन गीक टाइप है, तान्या के लिए कोमल कॉर्नर रखता है और डैश एक नंबर का ... है साला, अगर फिल्म की भाषा में कहें तो। फिर एक पार्टी में मुलाकात के बाद एमी भी इस गैंग में शामिल हो जाती है। ये उन छुट्टा सांड़ों की टोली है, जिन्हें लाइफ में किक चाहिए। किक भी बालकों जैसी। तेज कार चलानी है, चिल्लान है, पानी में धक्का देना है, नशा करना है, गुब्बारे में सूसू भरकर फेंकनी है टाइप। मगर ये हरकतें तो सिर्फ इंडीकेटर हैं। असल में तो पूरी की पूरी गड्डी को टर्न करना है। तो ऐसा होता है, क्योंकि ये ग्रुप एक एक्सिडेंट कर बैठता है। पुलिस वाला वसूली चाहता है और उसके लिए ये फिर एक स्टंट मारते हैं। मगर इनकी वो हरकत अच्छे से दारू फैला देती है ( दरअसल रायता फैलना अब भदेस भाषा का मुहावरा हो गया)। फिर शुरू होती है भागमभाग और इसमें लीड करते हैं इंस्पेक्टर माथुर। कड़क हैं, शॉर्प हैं, हैंडसम हैं मगर नैनों में बदरा छाप बिना डायलॉग वाली बीवी से उनकी फिल्म के क्लाइमेक्स के पहले तक नहीं बनती। क्यों नहीं बनती ये बताने की डायरेक्टर ने जरूरत नहीं समझी। कुछ मरते हैं, कुछ बचते हैं और इसके बीच जारी रहती है कैमरे की जोरदार शैतानी। कभी ये आड़ा तिरछा हो जाता है, कभी लगता है कि पॉज का बटन बस दबते दबते रह गया और कभी फास्ट फॉरवर्ड का बटन हल्के से दब जाता है।

एक्टर लोग का लेजर बिल
मंझे और जमे कलाकारों पर सब पहले लिखते हैं, इसलिए हम पीछे से शुरू करते हैं। शिव पंडित डैश के रोल में ठीक लगे हैं। खाने के किनारे की रखी सलाद की तरह, जिसे सब खाते हैं, मगर बात चिकन और पनीर की ही होती है। उनके रोल में वेरिएशन कम था। इसके उलट नील भोपालम का जुबिना श्रॉफ वाला रोल बहुत हटकर नहीं था, मगर सेंटी और जोक के बीच उनकी एक्टिंग क्लिक कर गई। केसी के रोल में गुलशन दीवार में गुल्ली की तरह फिट हो गए। हॉट, विटी, कमीना, सनकी और फिर लास्ट में कुछ सिंपैथी बटोरता। सब केसी बनना चाहते हैं, मगर सब केसी को कुत्ता बोलकर किनारे रहते हैं। डर लगता है न। शैतान इस डर के पार जाकर हरकतें करवाता है।
राजकुमार यादव को आपने एलएसडी और रागिनी एमएमएस में देखा है। अच्छे एक्टर हैं, मगर शैतान में ज्यादा लंबे रोल की गुंजाइश नहीं बनी। कीर्ति कुल्हारी के चेहरे पर ज्यादा भाव नहीं आते, शायद इसीलिए इंडस्ट्री ने उन्हें ज्यादा भाव नहीं दिया अब तक। और एमी यानी कल्कि कोचलिन की एक्टिंग की सबसे अच्छी बात ये है कि उन्हें एक्टिंग नहीं आती। एमी का रोल हो उनके लिए टेलर मेड लगता है। जैसे इमैद शाह की एक्टिंग में कोई एफर्ट नहीं दिखता, वैसे ही नए एक्टर्स में कल्कि का रोल है। मगर हमने अब तक कल्कि को इसी तरह के थोड़े से ट्रांस और थोड़े से ट्रॉमा वाले रोल में ही देखा है। कुछ उनका लहजा और कुछ हटकर फीचर्स। कभी रेग्यूलर फ्रेम में उनकी एक्टिंग देखने का मौका मिलेगा, तो रेंज पर कुछ बात होगी। राजीव खंडेलवाल को अब टीवी भूल जाना चाहिए। देर सवेर ये पिक्चर बनाने वालों का धंधा उन्हें उनकी सही जगह देगा। गुस्सा, खीझ और गति यानी स्पीड, सब कुछ है उनके पास। आमिर के बाद न जाने क्यों राजीव को अच्छे रोल नहीं मिले।
लॉस्ट फाउंड चांद
म्यूजिक टुक टुक टुक टुक, फिर ढोलक या ड्रम की बीट। ये सुरीला शोर फिल्म के ट्रेलर के टाइम से आप सुन रहे हैं। बैकग्राउंड स्कोर नई आवाजों से लैस है। ढिंचाक या भड़ाक टाइप सैकड़ों साल की बासी साउंड नहीं है। गानों की बात करें तो पापा जी के बचपन के टाइम का गाना खोया खोया चांद बहुत अच्छे से रीमिक्स कर यूज किया गया है। बाकी गाने याद नहीं रहे, जाहिर है कि इससे आपको आइडिया लग गया होगा कि फ्रंट ग्राउंड म्यूजिक कैसा है।
डिम लाइट, एक्शन, कैमरा चालू हो गया
अब फिल्म जल्दी बनती है। वजह, कैमरे को हमेशा खूब सारी नेचरल लाइट नहीं चाहिए। वजह, लाइफ में हमेशा बहुत सारी नेचरल लाइट और हीरो हीरोइन पर हजारों वाट का फोकस नहीं होता। तो लाइट नीली हो, लाल हो या शैतान की बात करें तो हरापन लिए पीली और फिर काली हो, चीजों को उनके सही शेड में दिखाने में मदद करती है। पूरी फिल्म डार्क है, काली करतूतें गहरे रंग में ही कैद की जा सकती हैं। भिंडी बाजार के इलाके में क्रॉस फायरिंग हो या एक्सिडेंट के बाद स्लो साइलेंट मोशन में कैमरा मूवमेंट, सब कुछ अपने साथ पब्लिक को तेज और सुस्त करते हैं।
पांच और अनुराग कश्यप का फाइनल पंच
अब इस फिल्म की सबसे जरूरी बात। फिल्म के डायरेक्टर का नाम बताया गया है बिजॉय नांबियार। बतौर प्रॉड्यूसर एक नाम है अनुराग कश्यप का। ये भाईसाहब रामगोपाल वर्मा के असिस्टेंट थे। बात में तमाम फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी और आप उन्हें देव डी वाले अनुराग कश्यप के नाम से जानते हैं। अनुराग ने सत्या के रिलीज होने के बाद एक फिल्म लिखी थी, जिसमें पद्मिनी कोल्हापुरी की बहन तेजस्विनी थीं। और थे के के मेनन, आदित्य श्रीवास्तव जैसे कुछ कलाकार। पांच दोस्त, सीले अंधेरे में गुम आशंकित रॉक स्टार, उन्हें पैसे की जरूरत, एक का नकली किडनैप, फिर कोई मर जाता है, फिर कई मर जाते हैं, भागमभाग, पैसा और मिस्ट्री। सेंसर बोर्ड को लगा कि फिल्म में हिंसा बहुत है और ये आजतक रिलीज नहीं हुई। शैतान पांच की दस साल अडवांस कॉपी है। मगर आपने तो पांच देखी नहीं, तो नांबियार और अनुराग का शुक्रिया, कि वो सनक, वो सीलन सो कॉल्ड सुनहरे पर्दे पर एक नए रूप में आई। फिल्म अनुराग कश्यप की है क्योंकि इसमें उसी का मुंबई है। ये मुंबई ब्लैक फ्राइडे के चेज सीन में दिखता है, स्लमडॉग में दिखता है, उम्मीद है कि भिंडी बाजार में दिखेगा और शैतान में दिखा है। कैमरे की नजर से गंदा और वर्जिन सा मुंबई। इससे फिल्म की रेंज और नयापन बढ़ जाता है। कैमरा वर्क भी उन्हीं के स्कूल के ख्यालों से चलता दिखता है। पॉज, क्लोज शॉट या फिर बिल्कुल ऊपर या नीचे कैमरा लिटाकर शॉट। भाषा भी भदेस है, गाली है, गंदी बातें हैं, मगर यही गंदगी तो बॉलीवुड की नकली सफाई को दूर करने के लिए जरूरी है। हालांकि अनुराग इस बात से इत्तफाक नहीं रखते और ट्विटर पर सफाई देते हैं कि ये नांबियार की फिल्म है, मगर आम पब्लिक को इस तरह की मुंबइया लंतरानी से ज्यादा मतलब नहीं। फिल्म में पेस है, एक्टिंग है, ड्रामा है और इसीलिए मजा भी है। शैतान को साढ़े तीन स्टार। आधा स्टार कम क्योंकि कहीं कहीं कहानी के कुछ सिरे कुछ ज्यादा ही सिंबॉलिक तरीके से पूरे किए जाते हैं। मसलन, इंसपेक्टर माथुर की बीवी का घर से जाना और आना। खैर ये तकनीकी डिटेल्स छोड़ो और शैतान जाकर देखो, फैमिली नहीं फ्रेंड्स के साथ। जय हिंद।