सब कहते हैं कि खुशी खिलखिलाहट लाती है, मैं नहीं मानता, कम से कम आज सुबह के बाद तो कतई नहीं। सुबह एक मीटिंग के लिए जा रहा था। उससे ठीक पहले अपना फोन चेक किया और फिर आंखों में आंसू आने लगे। मेरी सबसे अच्छी दोस्त और सबसे बड़ी दुश्मन (काम में कमियां निकालने के मामले में) का मैसेज था। उसने जेएनयू का एमफिल एंट्रेंस एग्जाम क्लीयर कर लिया था। पिछले एक हफ्ते से ऑफिस में हूं या घर में, बार बार जेएनयू की साइट खोलता, उसका रोल नंबर एंटर करता और फिर वही पेज, सेलेक्टेड इन रिटेन, इंटरव्यू इस डेट को। उस पेज का एक-एक फॉन्ट, कलर और डिजाइन याद हो गया था। मगर रिजल्ट जब पता चला तो किसी और से। सबसे पहले फोन किया, बधाई दी और फिर आंखें गीली होने लगीं। हम दोनों की। ज्यादा बात नहीं कर पाया, तो फोन रख दिया।
तो ऐसा क्या है, जो किसी की कामयाबी हंसाने के पहले रुलाती है। दरअसल इस एक लड़की की बात करूं तो चार साल से आंखों के सामने एक कहानी बनते-बुनते देख रहा हूं। जब दिल्ली में मुलाकात हुई थी, तो ये एक ऐसी लड़की थी, जो जोखिम से बहुत प्यार करती थी। जो पहाड़ी झरने की तरह थी, तेज-कुछ बेतरतीब और आवाज करती। मगर ये आवाज बहुत गौर करने पर ही सुनाई देती थी। फिर उसने नौकरी करने का फैसला किया। एक साल बीतते न बीतते उसका पुराना सपना कुलबुलाने लगा। उसे फिल्म स्टार्स के इंटरव्यू, दिल्ली की पेज थ्री पार्टियां और फैशन शो से बोरियत होने लगी। वो हमेशा से वॉर एरिया में काम करना चाहती थी। पापा आर्मी में हैं, शायद इसलिए ये चाह पैदा हो गई हो, मैंने शुरुआत में सोचा था। फिर जॉब के दौरान ही छुट्टी लेकर पढऩा शुरू किया और जेएनयू में इंटरनेशनल रिलेशंस में एमए का एंट्रेस क्लीयर कर लिया। यहां भी उसका झुकाव वैस्ट एशिया, खासतौर पर इस्राइल की तरफ रहा। उसके नॉवेल, उसकी मूवीज, उसके डिस्कशन और उसकी आदतें, सब कुछ इसी सपने के इर्द-गिर्द पनपती थीं।
आखिर क्या करेगी ये लड़की उन इलाकों में जाकर, जहां कोयल की कूक से ज्यादा आवाज बारूद की सुनाई देती है। जहां लड़ाई लाइफ का एक जरूरी हिस्सा है। मैं इतना तो दावे के साथ कह सकता हूं कि वो उस रेगिस्तान, उस बारूद से जिंदगी खींचकर लाएगी। वो हमें उन सूखे आंसुओं की कहानियां सुनाएगी, जिनके ऊपर रेत और धुंआ जम गया है। वो बुर्के और बैरल के पीछे से झांकती आंखों और उंगलियों की कहानी सुनाएगी। मुझे याद नहीं पड़ता कि इंडिया की ऐसी कितनी रिपोर्टर या रिसर्चर हैं, जो लड़ाई के दिनों में नहीं, बल्कि उन दिनों में जब लड़ाई रुटीन हो जाती है, हमें वहां की धमक सुनाती हों। मेरी दोस्त ने वादा किया है कि वो ऐसा ही करेगी।
फिलहाल वैेस्ट एशिया स्टडीज के सेंटर में एडमिशन के बाद उसका मिशन है इस्राइल जाने का। मैं कभी-कभी धमकाता और समझाता हूं, कि अगर इस्राइल का ठप्पा लग गया पासपोर्ट पर, तो बाकी सारी अरब कंट्रीज को सिर्फ नक्शे पर देखकर ही काम चलाना पड़ेगा। बताया था किसी जानकार ने, तो अपनी जानकारी उड़ेल रहा था उसके सामने। उसने बेफिक्री में कंधे उचकाए और अपनी बहुत बड़ी आंखों को कुछ समेटते हुए बोली, फिलहाल तो एक ही सपने को जी रही हूं और उसमें कोई रंग नहीं छूटने दूंगी। मैं जानता हूं कि जिंदगी इस्राइल या अफ्रीका के किसी देश में ठहर उसका इंतजार कर रही है। मैं जानता हूं कि कुछ कोरे कागज उसकी उंगलियों में थमी स्याही का इंतजार कर रहे हैं, कि कोई आए, कोई जो सैनिकों सा बहादुर और मां सा करुण हो और दुनिया के सबसे संभावनाशील देश में रहने वालों को हमारी कहानी सुनाए। कि हमारी कहानी सिर्फ एक कॉलम में ब्लास्ट की खबर और उसमें मरने वालों की गिनती बनकर न रह जाए।
इस सपने की सचाई के दरम्यान कुछ मुश्किलें भी आएंगी। सोसाइटी की मुश्किलें, लड़की होकर लड़ाई के मैदान में क्या काम, उसके अपने आलस की मुश्किलें, जिसे दूर करने में कभी फाइट तो कभी कॉफी का सहारा लेना पड़ता है। मगर जब भी इन मुश्किलों के बारे में सोचता हूं, उसकी आंखें याद आ जाती हैं। काजल के बांध से बंधी आंखें, जिनमें सपने सजे हुए हैं। सपने, जो आपको सोने नहीं देते। आज मैं बहुत खुश हूं, क्योंकि आज कोई बेटी, कोई दोस्त, कोई बाप, कोई मां बहुत खुश है और ये सब मेरे अपने हैं।
गुरुवार, जुलाई 29, 2010
शुक्रवार, जुलाई 23, 2010
लड़की की चीख, उड़ता लड़का और सांप
सबकुछ तेजी से हो रहा है। जमीन पर अजीब सी कैक्टस उग आई है, वैसी ही कुछ, जैसी मोरनी हिल्स के टॉप पर देखी थी। फिर चितकबरे से लिजलिजे से सांप, जिनसे बचकर भागने की कोशिश। और फिर अचानक उडऩे लगता हूं। ऊंचा बस्तियों के ऊपर से निकलता, सीली हवा को महसूस करता और कभी नीचे आता, तो कभी ऊपर जाता, मगर लगातार भागता।
फिर एकदम से नींद खुलती है, तो देखता हूं कि लैपी के चार्जर की नीली रोशनी के अलावा और कुछ भी नहीं टिमटिमा रहा। हाथ टटोलने पर बोतल नहीं मिलती। कूलर के शोर को चीरती एक आवाज सुनाई देती है। अब नींद कोसों दूर चली गई। जागता हूं तो वो आवाज तेज होती है। सामने के किसी घर से आती घुटी सी चीख। किसी लड़की की या शायद बच्ची की। अंधेरा और सील जाता है।
टाइम हुआ है 2.45 का। उठकर पानी पिया, मगर फ्रिज का ठंडा पानी कोई कितना गटक सकता है। फिर आकर चटाई पर पसर गया। कल क्या क्या काम करने हैं, मां से काफी दिनों से बात नहीं हुई, आगे क्या होने वाला है लाइफ में, सब कुछ कितनी तेजी से हो रहा है न, घर शिफ्ट करना है और ऐसे ही तमाम बुलबुले सेकंडों में टूटकर बिखर जाते हैं और फिर आता है वो ख्याल।
कितने सालों से देख रहा हूं ये सपना। भागता हूं और फिर उडऩे लगता हूं। लगता है कि लपककर मां के पास जाऊं और कहूं देख मां मैं उड़ रहा हूं। सबसे तेज। फिर एकदम से याद आता है कि ऐसी हर उड़ान के पहले सांप दिखाई देते हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि नेवला देखना शुभ है। मैं मजाक में कहता था मैं नेवला हूं। पता नहीं क्यों सांप को देखकर बदन में अजीब सी झुरझुरी दौडऩे लगती है। बस लगता है कि जो कुछ सामने है उससे मार डालो। कभी चप्पल, तो कभी झाड़ू और कभी डंडा से तमाम सांप मार चुका हूं। फिर सांप मर जाता है और मैं सोचता हूं कि ये सांप को देखकर ही ऐसा क्यों होता है।
कूलर का शोर ज्यादा लगता है तो उसे ऑफ कर देता हूं, अब पानी कुछ ठीक हो गया हो शायद, ये सोच फिर चार बूंद गटकता हूं। सांप और सपना, सपना और उड़ान। आखिर कहां रुकेगा ये सब। कितनी बार कितने लोगों से पूछा कि इन सबका कुछ मतलब है क्या। सबने अपने अपने जवाब दिए। मगर सवालों के जवाब नहीं होते, जो होते हैं वे जवाब का भरम देते कुछ छुपे सवाल होते हैं।
आज कितने दिनों बाद तुम वोसब पढ़ रहे हो, जो हमेशा से लिखना चाहता था। मकान की चिखचिख, रोजमर्रा की लाइफ और इन सबसे परे बसा सच। सीली रातों और तपती दोपहरों की कहानी। अच्छा ये सोचो कि जो लड़की चीख रही थी, उसकी क्या कहानी रही होगी। क्या वो भी अपने सपनों में कुछ देखती होगी। जब छोटा था, तब कुछ ड्रीम एनैलिस्ट का नाम अपनी डायरी में लिख रखा था। सोचा था बड़ा होकर ऐसा ही कुछ करूंगा। क्या किया, उसका तो नहीं पता, मगर सपने इधर जरूर कुछ कम हो गए थे। लोग कहते हैं कि सपनों के बिना नींद अच्छी होती है, मगर मैं हर रात इस लालच में सोता था कि आज कुछ नया देखेंगे और भरपूर कोशिश करेंगे कि याद रखें। कई बार सपने का वो गुदगुदाता सिरा बस हाथ में आते आते रह जाता।
अब नींद आती नहीं है, लानी पड़ती है, सांप और उड़ान कहीं दूर चले गए हैं, एक रात है, जिसके सिरे की तलाश जारी है।
फिर एकदम से नींद खुलती है, तो देखता हूं कि लैपी के चार्जर की नीली रोशनी के अलावा और कुछ भी नहीं टिमटिमा रहा। हाथ टटोलने पर बोतल नहीं मिलती। कूलर के शोर को चीरती एक आवाज सुनाई देती है। अब नींद कोसों दूर चली गई। जागता हूं तो वो आवाज तेज होती है। सामने के किसी घर से आती घुटी सी चीख। किसी लड़की की या शायद बच्ची की। अंधेरा और सील जाता है।
टाइम हुआ है 2.45 का। उठकर पानी पिया, मगर फ्रिज का ठंडा पानी कोई कितना गटक सकता है। फिर आकर चटाई पर पसर गया। कल क्या क्या काम करने हैं, मां से काफी दिनों से बात नहीं हुई, आगे क्या होने वाला है लाइफ में, सब कुछ कितनी तेजी से हो रहा है न, घर शिफ्ट करना है और ऐसे ही तमाम बुलबुले सेकंडों में टूटकर बिखर जाते हैं और फिर आता है वो ख्याल।
कितने सालों से देख रहा हूं ये सपना। भागता हूं और फिर उडऩे लगता हूं। लगता है कि लपककर मां के पास जाऊं और कहूं देख मां मैं उड़ रहा हूं। सबसे तेज। फिर एकदम से याद आता है कि ऐसी हर उड़ान के पहले सांप दिखाई देते हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि नेवला देखना शुभ है। मैं मजाक में कहता था मैं नेवला हूं। पता नहीं क्यों सांप को देखकर बदन में अजीब सी झुरझुरी दौडऩे लगती है। बस लगता है कि जो कुछ सामने है उससे मार डालो। कभी चप्पल, तो कभी झाड़ू और कभी डंडा से तमाम सांप मार चुका हूं। फिर सांप मर जाता है और मैं सोचता हूं कि ये सांप को देखकर ही ऐसा क्यों होता है।
कूलर का शोर ज्यादा लगता है तो उसे ऑफ कर देता हूं, अब पानी कुछ ठीक हो गया हो शायद, ये सोच फिर चार बूंद गटकता हूं। सांप और सपना, सपना और उड़ान। आखिर कहां रुकेगा ये सब। कितनी बार कितने लोगों से पूछा कि इन सबका कुछ मतलब है क्या। सबने अपने अपने जवाब दिए। मगर सवालों के जवाब नहीं होते, जो होते हैं वे जवाब का भरम देते कुछ छुपे सवाल होते हैं।
आज कितने दिनों बाद तुम वोसब पढ़ रहे हो, जो हमेशा से लिखना चाहता था। मकान की चिखचिख, रोजमर्रा की लाइफ और इन सबसे परे बसा सच। सीली रातों और तपती दोपहरों की कहानी। अच्छा ये सोचो कि जो लड़की चीख रही थी, उसकी क्या कहानी रही होगी। क्या वो भी अपने सपनों में कुछ देखती होगी। जब छोटा था, तब कुछ ड्रीम एनैलिस्ट का नाम अपनी डायरी में लिख रखा था। सोचा था बड़ा होकर ऐसा ही कुछ करूंगा। क्या किया, उसका तो नहीं पता, मगर सपने इधर जरूर कुछ कम हो गए थे। लोग कहते हैं कि सपनों के बिना नींद अच्छी होती है, मगर मैं हर रात इस लालच में सोता था कि आज कुछ नया देखेंगे और भरपूर कोशिश करेंगे कि याद रखें। कई बार सपने का वो गुदगुदाता सिरा बस हाथ में आते आते रह जाता।
अब नींद आती नहीं है, लानी पड़ती है, सांप और उड़ान कहीं दूर चले गए हैं, एक रात है, जिसके सिरे की तलाश जारी है।
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बुधवार, जुलाई 07, 2010
लोगों के घर में रहता हूं कब मेरा अपना घर होगा
रुकिए और एक बार फिर से हेडिंग पढि़ए। बड़ी पुरानी गजल है, दिमाग में पता नहीं कब अटक गई और अब तो चौबीसों घंटे यही लाइन नगाड़े बजा रही है। मेरे मकान मालिक ने नोटिस दे दिया। घर खाली कर दो, महीने के आखिरी तक। दुबई से उनकी बेटी अपनी फैमिली के साथ रिसेशन की वजह से वापस लौट रही है। जब मैंने अपने फ्लैटमेट मंकू जी को सुबह सवेरे ये खबर सुनाई कि घर खाली करना है, तो उनका चेहरे हारे हुए जुआरी जैसा दिख रहा था, जिसके पास अब जुए के अड्डे तक जाने के भी पैसे न बचे हों।
कितना कुछ था इस हफ्ते आपको बताने के लिए। रेनू आंटी और बेस्ट फ्रेंड गुंजन के साथ पटियाला गया था। भाभी की शादी के लिए शॉपिंग करने। उनके लिए फुलकारी वाली साड़ी, सूट और परांदा खरीदा। फिर उसके बाद सनावर हिल्स की ट्रिप की खबर देनी थी। मेरा दोस्त विक्रम ले गया, बारिश से भीगी पहाड़ी के टॉप पर। वहां पर बैठकर वॉटर फॉल के लिए मजे लिए। नहीं-नहीं पहाड़ी की चोटी पर कोई फॉल नहीं था, ये तो फ्रूट वाइन का नाम है। इसके अलावा एक पुराने दोस्त और फिल्म डायरेक्टर अनुराग कश्यप से लंबी गुफ्तगू हुई। मैंने उससे मजाक किया कि मेरी शादी हो रही है और तुम्हें जरूर आना है, सेंटी हो गया, बोला चाहे शूट रोकना पड़े आऊंगा। दोस्त भी ऐसी ही होते हैं न। वैसे उसने डांट भी खूब खाई। कम्बख्त छह महीने से सीन से गायब था।
मगर नहीं आज न तो डिटेल में पटियाला की कहानी सुनाऊंगा, न सनावर हिल्स की और न ही अनुराग की। आज कहानी उस दुखड़े की, जो मेरे जैसे हजारों बैचलर फेस कर रहे हैं, ठौर-ठिकाने की प्रॉब्लम। जब शहर आया था, तो दो बैग थे। फिर रेनू आंटी, वीरेंदर अंकल की मदद से घर जमाया। अमिताभ बच्चन की तरह कहने का दिल करता था कि आज मेरे पास फ्रिज है, कूलर है, किताबों और डीवीडी से भरी रैक हैं, जमा-जमाया किचेन है, तुम्हारे पास क्या है। मगर अब लगता है कि ठीक ही रहा किसी छड़े से ये नहीं कहा। सब कुछ है, मगर अब घर नहीं है। अंकल, आन्टी ने तो अपनी मजबूरी बता दी, बुजुर्ग हैं तो कुछ कह भी नहीं सकता, मगर मैं अपना गम कहां गलत करूं।
तो यारों पिछले कुछ दिनों से हम नए सिरे से घर तलाश रहे हैं। इस बार मकान लेने से पहले कुछ बातें भी साफ कर लेनी होंगी। इस मकान में जैसे ही दोस्त आते थे और उनमें लड़कियां भी होती थीं, तुरंत मकान मालिक आ जाते थे। तुम्हारी मम्मी आई हैं क्या, ये कौन हैं, अच्छा क्या काम करते हैं। फिर एक दिन मंकू जी से कहा, हमने पहले ही मना किया था कि लड़की नहीं आएगी। ऐसे साउंड करता था, जैसे कोई बहुत गलत काम कर दिया हो दोस्तों को बुलाकर। फिर अंकल आंटी ड्राइंग रूम में बिठाते और कहते, तुम तो हमारे लिए बेटे जैसे हो, हमें पूरा भरोसा है, मगर यहां मोहल्ले के लोग बातें बना सकते हैं, वगैरह-वगैरह। मैंने कह दिया कि समाज ने तो भगवान राम को भी नहीं छोड़ा और आ गया। खैर उसके बाद ये मुद्दा नहीं उठा क्योंकि फिर लड़कियां नहीं आईं। सब बस कहती ही रह गईं कि हाउस वॉर्मिंग पार्टी नहीं दी। अब क्या बताएंगे कि उनके नाम से ही घर में ग्लोबल वार्मिंग का असर दिखने लगता है।
अंकल आंटी बुजुर्ग थे, तो ज्यादा तेज आवाज में बात भी नहीं कर सकते थे। खैर, इसमें तो उनकी कोई गलती नहीं, हमें पहले ही इन सब बातों के बारे में सोच लेना चाहिए था। घर में खुला आंगन था और ग्राउंड फ्लोर था, तो लगा घर सही रहेगा। मगर अब घर किसी भी फ्लोर पर चलेगा। बस ये किसी के साथ शेयरिंग में नहीं होना चाहिए।
जब यहां शिफ्ट हुआ तो कई लोगों ने कहा कि अकेले हो, जमा-जमाया कमरा ले लो, फ्लैट के चक्कर में क्यों पड़े हो। सबने ये भी कहा कि छड़ों के साथ ये दिक्कतें आती ही हैं। मगर जिद थी और अभी भी कायम है कि फ्लैट ही लेंगे और फिर से सब नए सिरे से सेट करेंगे। बस यही दुआ करिए कि इस बार जल्दी खाली करने का नोटिस न देना पड़े और अपने सब दोस्तों को घर पर बुलाकर पार्टी दे सकूं। इन दोस्तों में लड़कियां भी शामिल हो सकें। तब तक मेरे लिए दुआ करिए कि एक छत मिल जाए, महीना खत्म होने से पहले। इस शहर की आंखों में ये एक सपना रोप रहा हूं, देखें सच होता है कि नहीं।
from my column, sahar aur sapna, the story of a bachelor in chandigarh, published in dainik bhaskar, city life
कितना कुछ था इस हफ्ते आपको बताने के लिए। रेनू आंटी और बेस्ट फ्रेंड गुंजन के साथ पटियाला गया था। भाभी की शादी के लिए शॉपिंग करने। उनके लिए फुलकारी वाली साड़ी, सूट और परांदा खरीदा। फिर उसके बाद सनावर हिल्स की ट्रिप की खबर देनी थी। मेरा दोस्त विक्रम ले गया, बारिश से भीगी पहाड़ी के टॉप पर। वहां पर बैठकर वॉटर फॉल के लिए मजे लिए। नहीं-नहीं पहाड़ी की चोटी पर कोई फॉल नहीं था, ये तो फ्रूट वाइन का नाम है। इसके अलावा एक पुराने दोस्त और फिल्म डायरेक्टर अनुराग कश्यप से लंबी गुफ्तगू हुई। मैंने उससे मजाक किया कि मेरी शादी हो रही है और तुम्हें जरूर आना है, सेंटी हो गया, बोला चाहे शूट रोकना पड़े आऊंगा। दोस्त भी ऐसी ही होते हैं न। वैसे उसने डांट भी खूब खाई। कम्बख्त छह महीने से सीन से गायब था।
मगर नहीं आज न तो डिटेल में पटियाला की कहानी सुनाऊंगा, न सनावर हिल्स की और न ही अनुराग की। आज कहानी उस दुखड़े की, जो मेरे जैसे हजारों बैचलर फेस कर रहे हैं, ठौर-ठिकाने की प्रॉब्लम। जब शहर आया था, तो दो बैग थे। फिर रेनू आंटी, वीरेंदर अंकल की मदद से घर जमाया। अमिताभ बच्चन की तरह कहने का दिल करता था कि आज मेरे पास फ्रिज है, कूलर है, किताबों और डीवीडी से भरी रैक हैं, जमा-जमाया किचेन है, तुम्हारे पास क्या है। मगर अब लगता है कि ठीक ही रहा किसी छड़े से ये नहीं कहा। सब कुछ है, मगर अब घर नहीं है। अंकल, आन्टी ने तो अपनी मजबूरी बता दी, बुजुर्ग हैं तो कुछ कह भी नहीं सकता, मगर मैं अपना गम कहां गलत करूं।
तो यारों पिछले कुछ दिनों से हम नए सिरे से घर तलाश रहे हैं। इस बार मकान लेने से पहले कुछ बातें भी साफ कर लेनी होंगी। इस मकान में जैसे ही दोस्त आते थे और उनमें लड़कियां भी होती थीं, तुरंत मकान मालिक आ जाते थे। तुम्हारी मम्मी आई हैं क्या, ये कौन हैं, अच्छा क्या काम करते हैं। फिर एक दिन मंकू जी से कहा, हमने पहले ही मना किया था कि लड़की नहीं आएगी। ऐसे साउंड करता था, जैसे कोई बहुत गलत काम कर दिया हो दोस्तों को बुलाकर। फिर अंकल आंटी ड्राइंग रूम में बिठाते और कहते, तुम तो हमारे लिए बेटे जैसे हो, हमें पूरा भरोसा है, मगर यहां मोहल्ले के लोग बातें बना सकते हैं, वगैरह-वगैरह। मैंने कह दिया कि समाज ने तो भगवान राम को भी नहीं छोड़ा और आ गया। खैर उसके बाद ये मुद्दा नहीं उठा क्योंकि फिर लड़कियां नहीं आईं। सब बस कहती ही रह गईं कि हाउस वॉर्मिंग पार्टी नहीं दी। अब क्या बताएंगे कि उनके नाम से ही घर में ग्लोबल वार्मिंग का असर दिखने लगता है।
अंकल आंटी बुजुर्ग थे, तो ज्यादा तेज आवाज में बात भी नहीं कर सकते थे। खैर, इसमें तो उनकी कोई गलती नहीं, हमें पहले ही इन सब बातों के बारे में सोच लेना चाहिए था। घर में खुला आंगन था और ग्राउंड फ्लोर था, तो लगा घर सही रहेगा। मगर अब घर किसी भी फ्लोर पर चलेगा। बस ये किसी के साथ शेयरिंग में नहीं होना चाहिए।
जब यहां शिफ्ट हुआ तो कई लोगों ने कहा कि अकेले हो, जमा-जमाया कमरा ले लो, फ्लैट के चक्कर में क्यों पड़े हो। सबने ये भी कहा कि छड़ों के साथ ये दिक्कतें आती ही हैं। मगर जिद थी और अभी भी कायम है कि फ्लैट ही लेंगे और फिर से सब नए सिरे से सेट करेंगे। बस यही दुआ करिए कि इस बार जल्दी खाली करने का नोटिस न देना पड़े और अपने सब दोस्तों को घर पर बुलाकर पार्टी दे सकूं। इन दोस्तों में लड़कियां भी शामिल हो सकें। तब तक मेरे लिए दुआ करिए कि एक छत मिल जाए, महीना खत्म होने से पहले। इस शहर की आंखों में ये एक सपना रोप रहा हूं, देखें सच होता है कि नहीं।
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मंगलवार, जुलाई 06, 2010
तुम्हारे लिए
खिलखिलाते हुए हाथ से ढापकर सफेद रंग, सबसे बड़ा झूठ बोला औरत ने,
पनियाई सी हवा के रंग की थी तब तक दुनिया
उसके ब्लाउज के किनारे जम गया था उतरती धूप के साथ कुछ नमक
सफेद रंग ने ठीक उसी वक्त खोली थीं आखें
और फिर एक वक्त तुम डर गई थीं अपनी ही परछाईं से एक साथ
आंखों में भरा और फिर छलक उठा था रंग काला
परछाई के डर से पैदा हुई रात भी बालों से लिपट काली हो गई
नमी को सहलाने के लिए तुमने बढ़ाया हाथ
तुम्हारी बांह के नीचे फूट रहे थे भूरे हरे से अंखुए
कुलबुलाती हुई उस खोह से निकला आंच में पका हरा रंग
और निकलते ही हवा में गुम गया
पत्तियां निकली थीं शाम को घूमने
लौटते में उस हरे रंग का दुशाला ओढे पीहर चली गईं
पत्तियां हरी होती हैं तुमने कहा कुछ ठहरकर ओस से
और फिर तुमने कहा प्यार
वो शर्माकर भागने लगा इस खुले निमंत्रण से
तुम झुकीं और उसे होठों से टटोल राहत देने लगीं
लजाते, थरथराते प्यार का सहारा बने होंठ लाल हो गए
मगर एक और लाल था, जिसे तुमने छुपाना चाहा,
जिसे तुमसे भी ज्यादा कुछ पल पहले शरमाते प्यार ने छिपाना चाहा,
ठोस पहाड़ों की जांघों से बह निकली जब धार
तो लाल रंग कुछ गाढ़ा होने लगा,
किनारे आ लगे थे हम
और फिर उस धार को ढांपते
कभी नमक की ढेलियों तो कभी पत्तियों से
रंग नहीं हैं दुनिया में अब मरदों
औरतों ने तुमसे झूठ बोला है
सौरभ द्विवेदी
18 फरवरी 2010
पनियाई सी हवा के रंग की थी तब तक दुनिया
उसके ब्लाउज के किनारे जम गया था उतरती धूप के साथ कुछ नमक
सफेद रंग ने ठीक उसी वक्त खोली थीं आखें
और फिर एक वक्त तुम डर गई थीं अपनी ही परछाईं से एक साथ
आंखों में भरा और फिर छलक उठा था रंग काला
परछाई के डर से पैदा हुई रात भी बालों से लिपट काली हो गई
नमी को सहलाने के लिए तुमने बढ़ाया हाथ
तुम्हारी बांह के नीचे फूट रहे थे भूरे हरे से अंखुए
कुलबुलाती हुई उस खोह से निकला आंच में पका हरा रंग
और निकलते ही हवा में गुम गया
पत्तियां निकली थीं शाम को घूमने
लौटते में उस हरे रंग का दुशाला ओढे पीहर चली गईं
पत्तियां हरी होती हैं तुमने कहा कुछ ठहरकर ओस से
और फिर तुमने कहा प्यार
वो शर्माकर भागने लगा इस खुले निमंत्रण से
तुम झुकीं और उसे होठों से टटोल राहत देने लगीं
लजाते, थरथराते प्यार का सहारा बने होंठ लाल हो गए
मगर एक और लाल था, जिसे तुमने छुपाना चाहा,
जिसे तुमसे भी ज्यादा कुछ पल पहले शरमाते प्यार ने छिपाना चाहा,
ठोस पहाड़ों की जांघों से बह निकली जब धार
तो लाल रंग कुछ गाढ़ा होने लगा,
किनारे आ लगे थे हम
और फिर उस धार को ढांपते
कभी नमक की ढेलियों तो कभी पत्तियों से
रंग नहीं हैं दुनिया में अब मरदों
औरतों ने तुमसे झूठ बोला है
सौरभ द्विवेदी
18 फरवरी 2010
रविवार, जुलाई 04, 2010
अनुराग कश्यप का सदियों पुराना कोट
कार में तकरीबन छह आठ लोग थे। आगे वाली सीट पर अपने सदियों पुराने क्रीम कलर के कॉड्राय कोट में अनुराग, पीछे कुछ असिस्टेंट और मैं। बात हो रही थी नो स्मोकिंग की। किसी ने कह दिया कि फलाने साहब कह रहे थे कि अनुराग कश्यप की फिल्में हमारे समय से 20 साल आगे की हैं, अनुराग ने हमारी तरफ मुड़कर कहा, नहीं समय मुझसे 20 साल पीछे चल रहा है, तो मैं क्या करूं। उस वक्त उनकी आंखों में अहंकार नहीं था, भदेस लहजा जरूर था और वो मुंबई में रहकर और सब कुछ गंवाने की हद तक जाकर पक्का होने से हुआ था।
यहां पर अनुराग को लेकर तमाम फतवे दिए जा रहे हैं। अच्छी बात है मोहल्ले में चोंपों न हो, तो पॉश कॉलोनी लगने लगती है। मैं सिर्फ अपनी बात कहना चाहता हूं।
कितने लोगों को पता है कि पांच के रिलीज न होने, ब्लैक फ्राइडे पर कोर्ट केस चलने और ऐसी ही तमाम वजहों की वजह से अनुराग की निजी जिंदगी की गांड़ लग गई थी। कितने लोगों को वो दिन और रातें याद हैं, जब अनुराग की पत्नी आरती काम करती थीं और अनुराग फ्लैट में शराब के साथ अपनी इस थोपी गई नाकामी को एकटक घूरते रहते थे। और फिर वो रात जब इसी सबके बीच उन्होंने नो स्मोकिंग का पहला ड्राफ्ट लिखा और बहुत सारे लोगों को मदद का मैसेज करके सो गए। जवाब दिया सिर्फ मैचो लुक और गंभीरता से परे रखकर देखे जाने वाले जॉन अब्राहम ने।
नो स्मोकिंग को लेकर हिंदी सिनेमा में बात होगी, मगर मुझे फिल्म से ज्यादा अनुराग की तकलीफ पर बात करनी है। बहनापा महसूस करता हूं। भाईचारा नहीं क्योंकि उसमें वो आत्मीयता नहीं। आत्मीयता कम से कम मैं औरतों के रूप में ही जी पाता हूं। बहरहाल जॉन ने जवाब दिया और फिल्म बनी। जब बाबा बंगाली के रोल के लिए पंकज कपूर से कहा गया, तो उनका जवाब था कि मुझे लगता है कि चीजों को दूसरे ढंग से भी, कहा जा सकता है। मगर अनुराग की जिद थी कि वो दूसरों के सपनों को नहीं जिएंगे। वर्ना अनुराग कश्यप की रिलायंस और अभिषेक बच्चन और मणि रत्नम से कोई दुश्मनी नहीं। न ही करण जौहर से। पहले झगड़ा हुआ झूम बराबर झूम की स्क्रिप्ट को लेकर। फिर गुरु की स्क्रिप्ट को लेकर। धीरू भाई ने जबरदस्ती अनुराग का खेत नहीं जोत लिया था। अनुराग बदलाव के खिलाफ थे, क्योंकि वो ईमानदारी से काम करना चाहते थे। तब मोहल्ले पैदा नहीं हुए थे और वहां बसर करने वाले नींद में थे।
ये सब हुआ और अनुराग को दलितों की तरह हाशिए पर डाल दिया गया। तो भइया दलित पर कौन बात करे और कैसे बात करे ये मुंबई के एक दलित को भी तय करने का हक है न।
नो स्मोकिंग के बाद अनुराग को हेल्थ मिनिस्ट्री ने अवॉर्ड दिया कि साहब आप बहुत महान हैं, कि आपने सिगरेट के खिलाफ फिलिम बनाई। अनुराग के चेहरे पर ट्रैजिक कॉमेडी के नायक के आखिरी शॉट वाले भाव थे। फिल्म सिगरेट के खिलाफ नहीं थी, फिल्म तो समाज की नैतिकता के जाल को तार तार कर रही थी। भयानक फंडू फिल्म है ये, मेरे आईआईटी में पढ़ रहे एक दोस्त ने कहा। और फिर हम दोबारा फिल्म से जूझने लगे।
जेएनयू में स्क्रीनिंग के दौरान अनुराग से पहली बार मिला। अगली सुबह हैबिटाट में मिला। उस आदमी ने खुद को उघाड़कर रख दिया। और हां इस वक्त भी वो वही सदियों पुराना कोट पहने थे। कितने स्टार और नॉन स्टार बचपन में हुए हादसों के बारे में बात करते हैं। कितने बताते हैं कि मेरे चाचा, मामा ने मुझे यहां सहलाया। क्या करें मैचो मर्द बनने की मार ही इतनी पड़ी है कि ये सब बताया नहीं जाता। मगर ये शख्स बोलता है बिना इस बात की परवाह किए कि यहां बोलना है, मगर सोच की शालीन तुरही पर अलापे राग की तरह।
नो स्मोकिंग फ्लॉप हुई थी, मगर अनुराग नहीं। फिर दिल्ली में देव डी की लोकेशन ढूंढ़ते वक्त भी बार बार बात हुई सिनेमा पर, समाज पर और तमाम चीजों पर। शाम को हम प्रगति मैदान भी गए। इस दौरान वह बार बार हिंदी में नई लिखी जा रही चीजों के बारे में जानकारी जुटाते रहे। जब मैदान से निकले तो उनके पास किताबों के तकरीबन 50 किलो के पैकेट होंगे। इसमें अरविंद कुमार का हिंदी कोष भी थी, दलित साहित्य भी और उदय प्रकाश भी। साथ में थे सुरेंद्र मोहन पाठक और अंग्रेजी में इसी तर्ज पर लिखे जा रहे कुछ नॉवेल। यही है अनुराग का पूरा सच। यहां शिंबोर्स्का के साथ पाठक और उदय के साथ निर्मल वर्मा को पढ़ा जाता है। और हां इस सबके के लिए रैक में अलग जगहें नहीं हैं। सब एक साथ ठुंसा हुआ है।
फिर अनुराग देव डी बनाने में जुट गए। फिल्म में मसरूफ थे, मगर उनकी बेटी आलिया की एक दिन की छुट्टी हुई, तो खुद उसे लेने मुंबई गए। आलिया आरती के पास रहती थी, मगर एक बाप के नाते उन्हें भी कुछ वक्त मिलता था। फिल्म के सेट के बाहर अनुराग ने हजारों सिगरेंटे फूंकी, बहस की, लाइट ठीक की और तमाम किरदारों को एक्टर्स से ज्यादा जिया। खैर इसमें कोई बहादुरी नहीं, हर डायरेक्टर ऐसा ही करता है, मगर मुझे शूटिंग की उन तमाम रातों और दिनों में यही लगा कि ये आदमी हारा और हताश नहीं है। कि अभी भी खिड़की से झांकते चेहरों में इसे जिंदगी नजर आती है।
ज्यादा तो नहीं जानता, मगर इतना जानता हूं कि अनुराग के यहां हिंदी और अंग्रेजी का फर्क भी नहीं है। पत्रकारों से पूछ लीजिए, जो टेक्स्ट मैसेज और ईमेल करके थक जाते हैं, मगर स्टार लोगों के जवाब नहीं आते। अनुराग इसके उलट लगे। इस फेहरिस्त में सुधीर मिश्रा, अंजुम राजाबाली और पीयूष भाई जैसे नाम भी शामिल किए जा सकते हैं। इन सबका भी यही कहना है कि सांड है ये आदमी। परवाह नहीं करता। अभी नई फिल्म दैट गर्ल इन येलो बूट्स की बात ही करें। सुधीर ने कहा कि उसने रशेज दिखाएं हैं, लाजवाब मूवी है, मगर दुनिया कमीनी है, वो पगले उत्साही बच्चे की तरह सबको फुटेज दिखा रहा है, ऐसा नहीं करना चाहिए।
मगर अनुराग ऐसा कर रहे हैं। किसी को देवता लगे या दानव, मगर दो दो फिल्मों की एडिटिंग और तीन शिफ्ट में काम करने के बावजूद वो मोहल्ले में चहलकदमी कर रहे हैं, हां उनका वो कोट नजर नहीं आ रहा।
दोस्तों कोट बदला है, जिस्म नहीं। और इसके अंदर वही पगलाया सांड रहता है, जिसे खेत से खदेड़ दिया गया, जिसे चौराहे पर बैठने के अलावा कहीं ठौर नहीं मिला और अब जब तमाम कारों के, ख्यालों के रास्ते रुक रहे हैं, तो कोई हॉर्न बजा रहा है, कोई पुलिस को बुला रहा है और कोई ओह गॉड इतना भी सिविक सेंस नहीं बोल रहा है, तब यही सांड़ पूरी बेशर्मी और ईमानदारी के साथ, आंखें लाल किए पगुरा रहा है।
अनुराग तुम्हारी भाषा से मुझे कोफ्त होती है। क्योंकि हम सब शालीनता का कंडोम चढ़ाए सेफ वैचारिक सेक्स की तमन्ना लिए बैठे हैं खुद को सहलाते।
यहां पर अनुराग को लेकर तमाम फतवे दिए जा रहे हैं। अच्छी बात है मोहल्ले में चोंपों न हो, तो पॉश कॉलोनी लगने लगती है। मैं सिर्फ अपनी बात कहना चाहता हूं।
कितने लोगों को पता है कि पांच के रिलीज न होने, ब्लैक फ्राइडे पर कोर्ट केस चलने और ऐसी ही तमाम वजहों की वजह से अनुराग की निजी जिंदगी की गांड़ लग गई थी। कितने लोगों को वो दिन और रातें याद हैं, जब अनुराग की पत्नी आरती काम करती थीं और अनुराग फ्लैट में शराब के साथ अपनी इस थोपी गई नाकामी को एकटक घूरते रहते थे। और फिर वो रात जब इसी सबके बीच उन्होंने नो स्मोकिंग का पहला ड्राफ्ट लिखा और बहुत सारे लोगों को मदद का मैसेज करके सो गए। जवाब दिया सिर्फ मैचो लुक और गंभीरता से परे रखकर देखे जाने वाले जॉन अब्राहम ने।
नो स्मोकिंग को लेकर हिंदी सिनेमा में बात होगी, मगर मुझे फिल्म से ज्यादा अनुराग की तकलीफ पर बात करनी है। बहनापा महसूस करता हूं। भाईचारा नहीं क्योंकि उसमें वो आत्मीयता नहीं। आत्मीयता कम से कम मैं औरतों के रूप में ही जी पाता हूं। बहरहाल जॉन ने जवाब दिया और फिल्म बनी। जब बाबा बंगाली के रोल के लिए पंकज कपूर से कहा गया, तो उनका जवाब था कि मुझे लगता है कि चीजों को दूसरे ढंग से भी, कहा जा सकता है। मगर अनुराग की जिद थी कि वो दूसरों के सपनों को नहीं जिएंगे। वर्ना अनुराग कश्यप की रिलायंस और अभिषेक बच्चन और मणि रत्नम से कोई दुश्मनी नहीं। न ही करण जौहर से। पहले झगड़ा हुआ झूम बराबर झूम की स्क्रिप्ट को लेकर। फिर गुरु की स्क्रिप्ट को लेकर। धीरू भाई ने जबरदस्ती अनुराग का खेत नहीं जोत लिया था। अनुराग बदलाव के खिलाफ थे, क्योंकि वो ईमानदारी से काम करना चाहते थे। तब मोहल्ले पैदा नहीं हुए थे और वहां बसर करने वाले नींद में थे।
ये सब हुआ और अनुराग को दलितों की तरह हाशिए पर डाल दिया गया। तो भइया दलित पर कौन बात करे और कैसे बात करे ये मुंबई के एक दलित को भी तय करने का हक है न।
नो स्मोकिंग के बाद अनुराग को हेल्थ मिनिस्ट्री ने अवॉर्ड दिया कि साहब आप बहुत महान हैं, कि आपने सिगरेट के खिलाफ फिलिम बनाई। अनुराग के चेहरे पर ट्रैजिक कॉमेडी के नायक के आखिरी शॉट वाले भाव थे। फिल्म सिगरेट के खिलाफ नहीं थी, फिल्म तो समाज की नैतिकता के जाल को तार तार कर रही थी। भयानक फंडू फिल्म है ये, मेरे आईआईटी में पढ़ रहे एक दोस्त ने कहा। और फिर हम दोबारा फिल्म से जूझने लगे।
जेएनयू में स्क्रीनिंग के दौरान अनुराग से पहली बार मिला। अगली सुबह हैबिटाट में मिला। उस आदमी ने खुद को उघाड़कर रख दिया। और हां इस वक्त भी वो वही सदियों पुराना कोट पहने थे। कितने स्टार और नॉन स्टार बचपन में हुए हादसों के बारे में बात करते हैं। कितने बताते हैं कि मेरे चाचा, मामा ने मुझे यहां सहलाया। क्या करें मैचो मर्द बनने की मार ही इतनी पड़ी है कि ये सब बताया नहीं जाता। मगर ये शख्स बोलता है बिना इस बात की परवाह किए कि यहां बोलना है, मगर सोच की शालीन तुरही पर अलापे राग की तरह।
नो स्मोकिंग फ्लॉप हुई थी, मगर अनुराग नहीं। फिर दिल्ली में देव डी की लोकेशन ढूंढ़ते वक्त भी बार बार बात हुई सिनेमा पर, समाज पर और तमाम चीजों पर। शाम को हम प्रगति मैदान भी गए। इस दौरान वह बार बार हिंदी में नई लिखी जा रही चीजों के बारे में जानकारी जुटाते रहे। जब मैदान से निकले तो उनके पास किताबों के तकरीबन 50 किलो के पैकेट होंगे। इसमें अरविंद कुमार का हिंदी कोष भी थी, दलित साहित्य भी और उदय प्रकाश भी। साथ में थे सुरेंद्र मोहन पाठक और अंग्रेजी में इसी तर्ज पर लिखे जा रहे कुछ नॉवेल। यही है अनुराग का पूरा सच। यहां शिंबोर्स्का के साथ पाठक और उदय के साथ निर्मल वर्मा को पढ़ा जाता है। और हां इस सबके के लिए रैक में अलग जगहें नहीं हैं। सब एक साथ ठुंसा हुआ है।
फिर अनुराग देव डी बनाने में जुट गए। फिल्म में मसरूफ थे, मगर उनकी बेटी आलिया की एक दिन की छुट्टी हुई, तो खुद उसे लेने मुंबई गए। आलिया आरती के पास रहती थी, मगर एक बाप के नाते उन्हें भी कुछ वक्त मिलता था। फिल्म के सेट के बाहर अनुराग ने हजारों सिगरेंटे फूंकी, बहस की, लाइट ठीक की और तमाम किरदारों को एक्टर्स से ज्यादा जिया। खैर इसमें कोई बहादुरी नहीं, हर डायरेक्टर ऐसा ही करता है, मगर मुझे शूटिंग की उन तमाम रातों और दिनों में यही लगा कि ये आदमी हारा और हताश नहीं है। कि अभी भी खिड़की से झांकते चेहरों में इसे जिंदगी नजर आती है।
ज्यादा तो नहीं जानता, मगर इतना जानता हूं कि अनुराग के यहां हिंदी और अंग्रेजी का फर्क भी नहीं है। पत्रकारों से पूछ लीजिए, जो टेक्स्ट मैसेज और ईमेल करके थक जाते हैं, मगर स्टार लोगों के जवाब नहीं आते। अनुराग इसके उलट लगे। इस फेहरिस्त में सुधीर मिश्रा, अंजुम राजाबाली और पीयूष भाई जैसे नाम भी शामिल किए जा सकते हैं। इन सबका भी यही कहना है कि सांड है ये आदमी। परवाह नहीं करता। अभी नई फिल्म दैट गर्ल इन येलो बूट्स की बात ही करें। सुधीर ने कहा कि उसने रशेज दिखाएं हैं, लाजवाब मूवी है, मगर दुनिया कमीनी है, वो पगले उत्साही बच्चे की तरह सबको फुटेज दिखा रहा है, ऐसा नहीं करना चाहिए।
मगर अनुराग ऐसा कर रहे हैं। किसी को देवता लगे या दानव, मगर दो दो फिल्मों की एडिटिंग और तीन शिफ्ट में काम करने के बावजूद वो मोहल्ले में चहलकदमी कर रहे हैं, हां उनका वो कोट नजर नहीं आ रहा।
दोस्तों कोट बदला है, जिस्म नहीं। और इसके अंदर वही पगलाया सांड रहता है, जिसे खेत से खदेड़ दिया गया, जिसे चौराहे पर बैठने के अलावा कहीं ठौर नहीं मिला और अब जब तमाम कारों के, ख्यालों के रास्ते रुक रहे हैं, तो कोई हॉर्न बजा रहा है, कोई पुलिस को बुला रहा है और कोई ओह गॉड इतना भी सिविक सेंस नहीं बोल रहा है, तब यही सांड़ पूरी बेशर्मी और ईमानदारी के साथ, आंखें लाल किए पगुरा रहा है।
अनुराग तुम्हारी भाषा से मुझे कोफ्त होती है। क्योंकि हम सब शालीनता का कंडोम चढ़ाए सेफ वैचारिक सेक्स की तमन्ना लिए बैठे हैं खुद को सहलाते।
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