सोमवार, अक्तूबर 01, 2012

सच के सीने में नश्तर, मैं इक औरत

गद्य गढ़ा हुआ होता है, कविता स्वाभाविक होती है
गद्य लिखा जाता है, कविता कही जाती है
कहना स्वाभाविक क्रिया है, लिखना अर्जित बदमाशी है
इसलिए हे संत भदंत पहले एक कविता का पारायण करें

बेकार कुछ नहीं होता
बेकार नहीं होता शादी के डेढ़ साल में पति
टूटी हुई मटमैली हुई कुर्सी पर बैठा टिड्डी
नोट्स की तरह अखबार पढ़ने की मजबूरी
जिसके बीच से झरते हैं कमर्शल ब्रेक की तरह पैंफलेट
कई दिनों से बक्से पर जमे लट्टू भी बेकार नहीं होते
किसी दोपहर की बोरियत उनके सहारे मचल लेती है कुछ वक्त
और देखा जाए तो ये शब्द बेकार भी
बेकार कहां होता है
कितना कुछ कह जाता है ये काम का


माफ कीजिएगा, मगर सच बोलने का हलफनामा उठाया है, तो झूठ ही बोलूंगा। पहला कि ये कविता महज तीन लाइन में बनी थी कि बेकार कुछ नहीं होता, डैश डैश डैश और देखो तो ये बेकार शब्द भी कहां बेकार होता है...
उसके बीच में बौद्धिक जुगाली है क्योंकि तीन लाइन की भी भला कोई कविता होती है, छोटी बात तो लोफरों के जुमलों सी होती है, तमाम सिमरनों को सरसों के खेत में झुकने पर मचलती सी देखती.
हां तो आज हम कुछ और कहने के लिए पेशे नजर हुए हैं

सच एक मैस्कुलिन कंसेप्ट है। पुरुष की बदमाशी की नजीर है ये, जो आज तक औरत की नजर से नहीं हटी।
सच मौत नहीं है, क्योंकि मौत में तो गति है, मगर सच स्थिर करने की साजिश है। जो जो गतिमान लगा, जीवमान लगा, उसे तय करने की, स्थिर करने की कोशिश हुई और फिर उसे कहा गया कि देखो ये सच है, सच जो सदा था, है और रहेगा...और ये सच कब बोला गया, जब पुरुष को लगा कि उसने जान लिया है कि इसे अगर सच की चिप्पी चिपका न रखा गया, तो बवाल हो जाएगा, बयान भटकने लगेंगे, बाग बहकने लगेंगे और तब फूलों को माली की जरूरत न पड़ेगी।

तो साहिबान मसला ये है कि पुरुषों को इस फलसफे को, जिसे तफरीह के लिए सच का नाम दिया गया, गढ़ने की जरूरत क्यों आन पड़ी। क्यों वो चीजों को स्थिर करना चाहता है। क्या सच कहना, सच बताना या किसी भी अजूबे को सच का नाम देना, उसे मार देना नहीं है...

सच आपको रोक देता है, कल्पना के आकाश में से निकालकर पाताल में पटक देता है और कहता है कि लो ये है इसकी चौहद्दी, अब बिना किसी सवाल के इसी में घुटो, मरो क्योंकि ये सच है और सच तो सातत्य लिए आता है...

मगर सच कुछ नहीं होता, जैसा महान हो सकने की जिद पाले कवि कहता है कि बेकार कुछ नहीं होता
सच मुछ कुछ नहीं कर रहा है, ये तो मेरे सच की शैतानी है

तो सच कहूं तो मुझे यकीन नहीं कि सच कह पाऊंगा कभी, इसीलिए झूठ की तलाश है
झूठ कल्पना चाहता है, रंग चाहता है, तरंग चाहता है
कलाकार झूठा होता है, क्योंकि वो सच के पर्दे को फाड़कर पीछे का कत्था, चूना, पीक और सींक
सब मंच पर ले आता है
बिना किसी उदघोष के, इसका भी ध्यान नहीं रखता कि नील टिनोपाल वाले कपड़ों से गमके बैठे
ये साहिब और हुक्काम सुंदरता देखने आए हैं इस शाम
मगर इन सबके बीच हो रहा है झूठ का काम तमाम
इसलिए मेरी सबको राम राम
क्योंकि एक सच्ची सी दुनिया में
एक झूठा फसाना हूं
ताना और बाना हूं
बेताल का गाना हूं...


पी एस:
पुनश्च साला अमीर सा शब्द लगता है, लोड से लदा हुआ
पीएस में आई लव यू वाली गुदगुदी है
हां तो पीएस
पोस्ट का नाम है
सच के सीने में नश्तर, मैं इक औरत
औरत के बदले झूठ भी लिख लो
या फिर झूठ का नाम औरत लिख लो
मरद हो कुछ भी दिक करो
क्या गुनाह दरज हो
मगर कल्पना में, गुस्ताखी में
औरतें ही रही हैं अव्वल
सो इस इक पल, मैं इक औरत हूं

शुक्रवार, जून 22, 2012

इंडिया की गॉडफादर


गैंग्स ऑफ वासेपुर देखिए और इंडिया के सिनेमा पर गर्व कीजिए, घटिया फिल्मों को हिट करवाने के पाप से मुक्त होने का भी मौका है ये

सौरभ द्विवेदी
अकसर उन हजारों साल पहले पैदा हुए ऋषि मुनियों के नाम पर सिर झुकाना पड़ता था, जिन्होंने रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्य लिखे। वजह, कहानियों का अपार विस्तार, उसमें भरे हजार भाव और इन सबके बीच वीतराग सा पैदा करता एक दर्शन, जो जीवन के सार और उसके पार का भाष्य रचता है। कथा के इस तरीके को महाकाव्य यानी एपिक कहते हैं। सिनेमा हमारे समय में कथा कहने का सबसे ताकतवर तरीका है और आखिर सौ बरस के इंतजार के बाद इंडियन सिनेमा को अपना पहला महाकाव्य मिल गया। गैंग्स ऑफ वासेपुर फिल्म सिनेमा शब्द में गर्व भर देती है, मगर हमारे लिए बहुत बड़ी मुश्किल पैदा कर देती है। महज पांच-छह सौ शब्द में कैसे बताया जाए कि फिल्म में क्या है। बहरहाल, हर महाकाव्य की तरह यहां भी नियति और कर्म के बीच कर्म को चुनना होगा।
वासेपुर कहने को तो भूगोल के लिहाज से धनबाद में है, मगर हम सबके पास अपने अपने वासेपुर हैं। और यहां सिर्फ वर्चस्व की लड़ाई नहीं होती। घाट पर कपड़ों से पानी फचीटते लोगों के बीच रोमैंस होता है, काई से पटे तालाब की हरियाली में हरा भरा होता। यहां जब चिमटा गढ़ते लोहार से पूछा जाता है कि पतली नाल से क्या होगा, तो जवाब आता है कि गन फटकर फ्लावर हो जाएगी। हाथ में बंदूक आते ही हर युवा विजय दीनानाथ चौहान बन जाता है और अमिताभ के अंदाज में एक हाथ को हवा में टांग दूसरे से निशाना साधने लगता है। सवर्ण हिंदू घरों में कोई नीची जात का या मुस्लिम आता है, तो अलमारी से कांच के बर्तन झाड़ पोंछकर निकाले जाने लगते हैं। और पति की तमाम दिलजोई और बेवफाई के बावजूद पत्नी आखिर में बस यही कह पाती है कि घर में मत लेकर आना बस।
हमरे जीवन का इक ही मकसद है...बदला
दुश्मनी ज्यादा गाढ़ी होती है। बहे, जमे खून की तरह। या यूं कहें कि रगों में पानी सा खून बहता ही है किसी का खून बाहर निकाल जमने के लिए छोड़ देने को। और दुश्मनी वक्त की थाली में तरी की तरह फैले, इसलिए प्यार का मसाला चाहिए होता है बीच बीच में। गैंग्स ऑफ वासेपुर कहानी कहने को दुश्मनी की है, मगर इसके बीच में अनगिनत सूखे मुरझाए फूलों की खुशबू भी पैठी हैं। वासेपुर में कुरैशियों की चलती है। उनका काम मीट काटना। और आखिर में इंसान भी तो बस मीट ही है। सो उनका खौफ इंसानों पर सिर चढ़कर बोलता है। इनके बीच एक पठान राशिद खान सुल्ताना डाकू के नाम पर डाका डालता है। नए नए पइसे से सबका जी मचलाता है और राशिद को देश-निकाला दे दिया जाता है। नया मुकाम धनबाद, काम कोयले की खदान में हाथ सानना। सिर पर पनाह आती है ठेकेदार-मालिक-नेता रामाधीर सिंह की। मगर राशिद की आंख में बगावत का सुरमा उन्हें समय रहते दिख जाता है। राशिद दूसरे लोक रवाना हो जाते हैं, रह जाते हैं उनके भाई फरहान और बेटा सरदार। सरदार को रामाधीर सिंह को मारना नहीं है, खत्म करना है। धीमे-धीमे, कह के।
बस यहीं से सरदार और रामाधीर के बीच एक तराजू उग आता है। वजनों के लिए पाट लगातार बड़े करता। इस दौरान तमाम किरदार आते हैं और कहानी के कई रंग स्याह करते जाते हैं। पहले हिस्से के अंत तक पलड़ा एक ओर नहीं झुकता, लगातार हिलता रहता है, डराता रहता है, सहलाता रहता है।
क्यों दिए हैं पांच सितारे
- फिल्म की कहानी बेहद चुस्त है। तीन पीढिय़ों तक फैली कहानी, मगर कहीं से भी फैली नहीं। एक एक किरदार ऐसे रचा गया है, गोया वही फिल्म का केंद्रीय पात्र हो।
- गाने। अनुराग कश्यप की फिल्मों में ये न तो सिचुएशन पर ढाले गए होते हैं और न ही एक दम से बीच में आकर हीरोइन को हीरो संग पैर झमकाने का मौका देते। ये तो बस प्रोस के बदन पर पोएट्री की तरह पहनाए होते हैं। बेहद स्वाभाविक और सीन के सुख को सजीला करते। गैंग्स ऑफ वासेपुर के गाने बरसों बरस सुने जा सकते हैं।इसका म्यूजिक असल है, किसी स्टूडियो के एसी और साउंडप्रूफ कमरे की घुटन से मुक्त। शुक्रिया स्नेहा, वरुण और पीयूष।
- कास्टिंग एक क्लैसिक अध्ययन हो सकती है। एक्टिंग की बात करें तो मनोज वाजपेयी ने अगर हिम्मत कर सच बोलूं, तो अल पचीनो सी ऊंचाई हासिल की है। ये उनकी गॉडफादर है। उनके अलावा नवाजुद्दीन सिद्दिकी, पंकज त्रिपाठी, ऋचा चड्ढा, तिग्मांशु धूलिया जैसी एक लंबी कतार है, जिनकी तारीफ के लिए मेरे पास शब्द हैं, मगर फिलहाल जगह नहीं।
- डायरेक्शन। अनुराग जीनियस हैं, ये ब्लैक फ्राइडे से साबित कर चुके हैं। कल्पनाशील हैं ये नो स्मोकिंग बताती है। राजनैतिक समझ गुलाल से साबित हुई, तो बॉक्स ऑफिस का प्रेत देव डी के जरिए डिब्बे में बंद हो गया। अब बारी थी इन सबके मेल की। फिल्म में कैमरा दूरबीन लगी छलिया आंख की तरह है। माइन में विस्फोट के सीन हों, या कस्बे की हालात दिखाते पीपे के पुल पर घमासान, गोश्त की कटाई हो या गेंदे के फूल से लदे नेता। और इन सबको एक धागे में जोड़ते फिल्म के डायलॉग, जो तमाम गालियों के बावजूद शीलता को नकली साबित करते हैं और इसीलिए खरे लगते हैं। अनुराग ने औरों के साथ खुद अपने लिए भी बार बहुत ऊंचा उठा दिया है।
- फिल्म एक और हिस्से में जाती है, यानी सीक्वेल आएगा, मगर अधूरेपन के साथ खत्म नहीं होती। और इसी क्लाइमेक्स की वजह से हम कह सकते हैं कि ये इंडिया की गॉड फादर है।

शुक्रवार, जून 08, 2012

फिल्म रिव्यू शंघाई, जबरदस्त पॉलिटिकल थ्रिलर



सौरभ द्विवेदी
साढ़े तीन स्टार

हमेशा शिकायत रहती थी कि एक देश भारत, और उसका सिनेमा खासतौर पर बॉलीवुड ऐसा क्यों है। ये देश है, जो आकंठ राजनीति में डूबा है। सुबह उठकर बेटी के कंघी करने से लेकर, रात में लड़के के मच्छर मारने की टिकिया जलाने तक, यहां राजनीति तारी है। मगर ये उतनी ही अदृश्य है, जितनी हवा। बहुत जतन करें तो एक सफेद कमीज पहन लें और पूरे दिन शहर में घूम लें। शाम तक जितनी कालिख चढ़े, उसे समेट फेफड़ों पर मल लें। फिर भी सांस जारी रहेगी और राजनीति लीलने को। ये ताकत मिलती है आदमी को सिनेमा से। ये एक झटके में उसे चाल से स्विट्जरलैंड के उन फोटोशॉप से रंगे हुए से लगते हरे मैदानों में ले जाती है। हीरो भागता हुआ हीरोइन के पास आता है, मगर धड़कनें उसकी नहीं हीरोइन की बेताब हो उठती-बैठती दिखती हैं कैमरे को। ये सिनेमा, जो बुराई दिखाता है, कभी हीरोइन के पिता के रूप में, कभी किसी नेता या गुंडे के रूप में और ज्यादातर बार उसे मारकर हमें भी घुटन से फारिग कर देता है। मगर कमाल की बात है न कि आकंठ राजनीति में डूबे इस देश में सिनेमा राजनैतिक नहीं हो सकता। और होता भी है, मसलन प्रकाश झा की फिल्म राजनीति में, तो ये चालू मसालों में मसला हुआ लगता है।

शंघाई सिनेमा नाम के शहर में पहनी गई सफेद चादर है। कोरी, बाजार की नीयत से कदाचित बची और इसीलिए ये राजनीति की कालिख को भरपूर जगह देती है खुद में। इसमें दाग और भी उजले नजर आते हैं। और ये तो इस फिल्म के डायरेक्टर दिबाकर बैनर्जी की अदा है। खोसला का घोसला, लव सेक्स और धोखा में यही सब तो था, बस रिश्तों, प्यार और मकान की आड़ में छिपा। इस बार पर्दा खुल गया, लाइट जल गई और सब कुछ नजर आ गया। शंघाई पीपली लाइव का शहरी विस्तार है। वहां विकास खैरात में पहुंचता है और यहां सैलाब के रूप में। हर भारत नगर नाम की गंदी बस्ती को एक झटके में चमक के ऐशगाह में, कंक्रीट के बैकुंठ लोक में तब्दील करने की जिद पाले। इसमें सब आते हैं बारी बारी, अपने हिस्से का नंगा नाच करने। कुछ ब्यूरोक्रेट, नेता, भाड़े के गुंडे, उन गुंडों के बीच से गिरी मलाई चाटने को आतुर आम चालाक आदमी और व्यवस्था से लगातार भिड़ते कुछ लोग, जिन्हें बहुमत का बस चले, तो म्यूजियम में सेट कर दिया जाए। मगर फिल्म अंत तक आते आते सबके चेहरों पर वैसे ही कालिख पोतती है, जैसे फिल्म की शुरुआत में एक छुटभैया गुंडा भागू एक दुकानदार के मुंह पर मलता है। ये बिना शोर के हमें घिनौने गटर का ढक्कन खोल दिखा देती है, उस बदबू को, जिसके ऊपर तरक्की का हाईवे बना है।

क्यों देखें ये फिल्म

- जबदस्र्त कास्टिंग के लिए। इमरान को जिन्होंने अब तक चुम्मा स्टार समझा था, वे उसके कत्थे से रंगे दांत और तोंद में फंसी चिकने कपड़े की शर्ट जरूर देखें। उसका दब्बूपन देखें। सिने भाषा का नया मुहावरा गढ़ते हैं वह। अभय ने कंपनी के पुलिस कमिश्नर बन मोहनलाल की याद दिला दी। इस तुलना से बड़ी शाबासी और क्या हो सकती है उनके लिए। सुप्रिया पाठक हों या फारुख शेख, सबके सब अपने किरदार की सिम्तें, चेहरे और डायलॉग से खोलते नजर आते हैं। इससे फिल्म को काली सीली गहराई मिलती है, जिसके बिना इसकी अनुगूंज कुछ कम हो जाती। कल्कि एक बार फिर खुद को दोहराती और इसलिए औसत लगी हैं। पित्तोबाश के बिना ये पैरा अधूरा होगा। भागू का रोल शोर इन द सिटी की तर्ज पर ही गढ़ा गया था, फिर भी इसमें ताजगी थी।

- फिल्म की कहानी 1969 में आई फ्रेंच फिल्म जी से प्रेरित है। ये फ्रेंच फिल्म कितनी उम्दा और असरकारी थी इसका अंदाजा इससे लगाएं कि इसे उस साल बेस्ट फॉरेन फिल्म और बेस्ट पिक्चर, दोनों कैटिगरी में नॉमिनेशन मिले थे। बहरहाल, फिल्म सिर्फ प्रेरित है और भारत के समाज और राजनीति की महीन बातें और उनको ठिकाना देता सांचा इसमें बेतरह और बेहतरीन ढंग से आया है। डायलॉग ड्रैमेटिक नहीं हैं और सीन के साथ चलते हैं।

- कैमरा एक बार फिर आवारा, बदसलूक और इसीलिए लुभाता हुआ है। फर्ज कीजिए कुछ सीन। डॉ. अहमदी अस्पताल में हैं। उनकी बीवी आती है, वॉल ग्लास से भीतर देखती है और उसे ग्लास पर उसे अपने पति के साथ उसके  एक्सिडेंट के वक्त रही औरत का अक्स नजर आता है। या फिर एक लाश किन हालात में सड़क किनारे निपट अकेली खून बहाती है, इसे दिखाने के लिए बरबादियों को घूमते हुए समेटता कैमरा, जो कुछ पल एक बदहवास कॉन्स्टेबल पर ठिठकता है और फिर उस नाली को कोने में जगह देता है, जहां एक भारतीय का कुछ खून बहकर जम गया है।

- फिल्म का म्यूजिक औसत है। अगर अनुराग की भाषा में कहें, तो दोयम दर्जे का है। भारत माता की जय के कितने भी आख्यान गढ़े जाएं, ये एक लोकप्रिय तुकबंदी भर है, दुर्दैव के दृश्य भुनाने की भौंड़ी कोशिश करती। इसमें देश मेरा रंगरेज रे बाबू जैसी गहराई नहीं। इंपोर्टेड कमरिया भी किसी टेरिटरी के डिस्ट्रीब्यूटर के दबाव में ठूंसा गाना लगता है। विशाल शेखर भूल गए कि इस फिल्म के तेवर कैसे हैं। दिबाकर को स्नेहा या उसी के रेंज की किसी ऑरिजिनल कंपोजर के पास लौटना होगा।

क्या है कहानी

किसी राज्य की सत्तारूढ पार्टी भारत नगर नाम के स्लम को हटाकर वहां आईटी पार्क बनाना चाहती है। वहां प्रसिद्ध समाज सेवक डॉ. अहमदी पहुंचते हैं गरीबों को समझाने कि विकास के नाम पर उनसे धोखा किया जा रहा है। सत्ता पक्ष को ये रास नहीं आता और अहमदी को जान से मारने की कोशिश होती है। राजनीति शुरू होती है, जिसके घेरे में आते हैं करप्शन के नाम पर जेल में फंसे जनरल सहाय की बेटी शालिनी, चीप फोटोग्राफर जग्गू और इस मामले की जांच करते आईआईटी पासआउट आईएएस ऑफीसर कृष्णन। कौन आएगा लपेटे में और क्या होगा आखिर में, इसके लिए आप फिल्म देखें और दुआ दें कि ठीक किया नहीं बताया कि आखिर में क्या है।