शनिवार, सितंबर 25, 2010


बरसात की एक दोपहर और मेरे खोने की कहानी
पता नहीं सुबह बारिश हो रही थी या नहीं, मगर जब लंबी घंटी बजी तब झमाझम बारिश हो रही थी। टिन शेड वाले प्रेयर हॉल में सब इकट्ठे हुए। मेरा साइज मीडियम था, तो मैं अपनी क्लास की क्यू में बीच में खड़ा था। उम्र पांच साल, फस्र्ट क्लास, रंग गेंहुआ। बीच प्रेयर में ही मैं हंसने लगा। दरअसल मेरे बगल में खड़ा लड़का रोने लगा था। उसे पता नहीं था कि उसका बड़ा भाई जो चौथी क्लास में पढ़ता है, कहां खड़ा है, तो वो रोने लगा। टीचर जी आए, उसे अपने साथ ले गए। भक्क, ऐसे भी कोई रोता है, पिन्ना कहीं का। मेरे भी भइया थे, पांचवी क्लास में। पर मैं क्यों रोकर उनके पास जाऊं, वो खुद ही मेरे पास आ जाएंगे प्रेयर खत्म होने के बाद। भइया नहीं आए और मैं टलहता हुआ बाहर पहुंच गया। सामने स्कूल की बस खड़ी थी, तो सोचा कि आज इस पर भी सवारी कर ली जाए। तो गए और अपना बस्ता गोद में लेकर जम गए। शुरु में खिड़की से झांकते रहे। फिर बोर होने लगे। वही वही चौराहे लौटकर आने लगे थे। कंडक्टर भइया बार-बार पहुंचते कहां उतरना है, मैं हर बार कहता, यहीं बस थोड़ा सा आगे। बारिश हो रही थी, तो कहीं कुछ ज्यादा दिख भी नहीं रहा था। फिर इंग्लिश की किताब खोलकर बैठ गया। उसके पहले पेज पर एक क्यूट सा येलो कलर का कुत्ता पॉटी करने की पोजिशन में बैठा था। अंदर की तस्वीरें भी अच्छी थीं।
मगर एक तस्वीर बहुत खराब हो चुकी थी, घर की तस्वीर। ये बात है साल 1988 की। उन दिनों झोली वाला बाबा आता था और बच्चों को उठाकर ले जाता था। तो जब मैं छुट्टी होने के एक घंटे बाद भी घर नहीं पहुंचा, तो तलाश शुरू हुई। पापा अपनी राजदूत पर सवार, पहले अस्पताल और थाने पहुंचे, फिर स्कूल के आसपास। चाचा अपनी यजडी पर सवार बस स्टैंड और स्टेशन पर। बड़े ताऊ जी को बुखार, फिर भी वो छाता ताने यहां वहां टहलते। दीदी-भइया, सब झुंड बनाकर शहर खंगालने में लगे। फिर पिंकू भइया को लगा कि सब जगह देख लिया, स्कूल की बस में भी एक बार झांक लिया जाए। कुछ देर बाद बस घर के सामने टाउन हॉल से गुजर रही थी, तो भइया ने हाथ दिया और रोक लिया। तब तक कंडक्टर भइया भी मुझसे पक चुके थे। पूरी बस में मैं अकेला और हर बार अपनी गोद से किताब हटाकर बस यही कहता, यहीं बस आगे ही तो है मेरा घर। उन्होंने तय किया था कि मुझे वापस स्कूल छोड़ दिया जाए। फिर बस रुकी, पिंकू भइया ऊपर चढ़कर झांके और मैं पीछे से चिल्ला दिया भइया। वैसे ही जैसे घर में चिल्लाता था, जब दूध पक चुका होता था। भइया को स्टील वाले कप में मलाई खाने में बहुत मजा आता था, खूब सारी चीनी मिलाकर। तो जब भी उन्हें बताता, खुश होकर बोलते शाबास मेरे मिट्टी के शेर, मगर इस बार जब उन्हें बुलाया, तो वो बोले गधा कहीं का।
घर आया, तो किसी ने गले से लगाया तो किसी ने आंखें दिखाईं। बस में क्यों बैठ गए थे, भइया नहीं दिखे, तो बैठ गया, सोचा आज बस से घर चला जाए। भइया के पास क्यों नहीं गए, दिखे ही नहीं और मैं उनके पास जाने के लिए रोने लगता क्या।
आज दोपहर में बहुत बारिश के बीच जब खिड़की से झांका, तो एक स्कूल बस नजर आई। उसकी एक खिड़की पर नन्हा सिब्बू बैठा नजर आ रहा था। नहीं, मैं तो यहां खिड़की के पार खड़ा था, मन का वहम रहा होगा शायद।

शनिवार, सितंबर 11, 2010

जबराट फिल्म है दबंग

चंडीगढ़ को इस तरह से देखना अलग ही एक्सपीरियंस था। लग रहा था कि बीकानेर या बुलंदशहर के किसी सिनेमा हॉल में बैठकर सिनेमा देख रहे हैं। सलमान खान की धांसू एंट्री होते ही जोरदार तालियां और शोर। फिर सोनाक्षी सिन्हा की एंट्री होते ही सीटियों का शोर। मुन्नी बदनाम हुई ...गाना आने पर तो लड़के बावले हो जाते हैं और सीट पर खड़े होकर डांस करने लगते हैं। इंडिया के दबंग सिनेमा में आपका स्वागत है। वो कोई दस बीस साल पहले फिल्म के पोस्टर पर लिखा रहता था न एक्शन रोमांस और मारधाड़ से भरपूर ... दबंग वैसी ही फिल्म है। कहीं भी बोर नहीं करती, हर जगह देसी ढंग से स्टाइल परोसती और फुल्टू एंटरटेन करती, बहुत दिनों से कोई जाबर मूवी नहीं देखी, तो दबंग देखिए पइसा तो छोडि़ए पाई भी वसूल करवा देगी ये।
क्या भूलूं क्या याद करूं
सलमान खान चुलबुल पांडे के रोल में गदर लगे हैं। मुझे अक्सर लगता था कि काश ये हैंडसम हीरो कुछ एक्टिंग भी कर पाता, इस फिल्म ने मेरे काश का गर्दा उड़ा दिया। एक कैरेक्टर इंस्पेक्टर चुलबुल की तारीफ करते हुए बताता है कि थानेदार साहब अंदर से बुलबुल हैं और बाहर से दबंग। फिल्म भी ऐसी ही है, अंदर से सुरीली और मेलोड्रामा से भरपूर और बाहर से ऐसी कि बुलेट ट्रेन से गर्दन बाहर निकालकर नजारे देख रहें हो जैसे। सलमान की स्ट ाइल और फिल्म के डायलॉग दोनों ही सालों-साल याद रहेंगे। रॉबिनहुड, हम रॉबिनहुड पांडे उर्फ चुलबुल हैं। ...लड़की तो बहुत जबराट लग रही है। ...पांडे जी अब सेंटी होना बंद करिए। ...भइया जी स्माइल प्लीज और ...मार से नहीं साहब प्यार से डर लगता है। अरे एक और डायलॉग पेशे नजर है, भइया कानून के हाथ और चुन्नी सिंह की लात बहुत लंबी होती है।
सलमान जब मारते ...बोले तो वॉन्टेड का एक्सटेंशन। मगर कहीं भी ये एक्शन बोझिल नहीं लगते। बाबू साहब चश्मा भी शर्ट के पीछे लगाते हैं, ताकि आगे-पीछे सब दिख सके। सोनाक्षी के हिस्से ज्यादा डायलॉग नहीं आए, मगर जितने भी आए, उनमें वो शोख और मासूम दोनों लगी हैं। वे रीना रॉय की याद दिलाती हैं। सिनेस्क्रीन पर गर्ली एक्ट्रेस देखकर अगर ऊब चुके हैं, तो सोनाक्षी को देखिए, ये पर्दे पर औरत की वापसी की तरह है। सोनू सूद ने भी चुन्नी के रोल के साथ ठीक बर्ताव किया है। फिल्म के गाने जल्दी-जल्दी आते हैं, मगर कम्बख्त पहले ही इतने हिट हो चुके हैं, कि बोर होना भी चाहें तो नहीं होने देते।
और अंत में शाबासी
डायरेक्टर अभिनव कश्यप ने फिल्म के तेवर किसी भी फ्रेम में कमजोर नहीं पडऩे दिए। कहीं से नहीं लगता कि ये अनुराग के भाई की पहली पिच्चर है। कहानी कोई नई नहीं है। सौतेले बाप की उपेक्षा झेलता जिद्दी लड़का, जो बड़ा होकर इंस्पेक्टर बनता है। एक गरीब मटका बनाने वाली से प्यार करता है, मां का ख्याल रखता है और बदमाश टाइप के एलिमेंट से भिड़ता है। आखिरी में मां के बिना बिखर रही फैमिली एक हो जाती है और गुंडा वैसे ही मरता है, जैसे उसको मरना चाहिए। ये सब कुछ हम अमिताभ के सिनेमा में खूब देख चुके हैं और अब कुछ भूलने से लगे थे। मगर नहीं, दबंग रिवाइवल कोर्स की तरह आई और इंडिया के खालिस सिनेमा को खूब सारी ऑक्सीजन दे गई। अगर गुस्सा आता है, प्यार आता है, आंसू आते हैं, हंसी आती है, तो ये फिल्म आपके लिए है।