बुधवार, जून 30, 2010

ख्यालों की लड़ाई और मेरी रुलाई

घर पहुंचा, दादा तो स्टेशन पर ही आ गए थे। पहुंचने से पहले ही फोन पर जिद शुरू हो गई थी। एसी गाडी़ लेकर आना, गर्मी बहुत है। दादा बोले ठीक है। घर पहुंचा तो मां ने दरवाजा खोला। मुड़ी सी सूती साड़ी, कुछ थकी मगर आंखों में इंतजार और खुशी भरे हुए मां। पापा भी जैसे इंतजार कर रहे थे, मगर उनकी आंखें हमेशा की तरह शांत थीं, भावों को कहीं गहरे छुपाए। शाम ढले पापा ने अपनी बीमारी और लापरवाही के बाबत बात करनी चाही, मगर मैंने उन्हें रोक दिया और कहा कि कल सुबह डिटेल में बात होगी। वैसे पापा बेहतर लग रहे थे। अगले दिन सुबह उनकी गॉल ब्लैडर के स्टोन की दवाई बनानी शुरू की। रेनू आन्टी से इंस्ट्रक्शन लेता जा रहा था और बनाता जा रहा था। शाम को डॉक्टर के यहां गया, तो पापा के बोलने के पहले ही मैंने अपनी कहानी शुरू कर दी। ये अपनी सेहत का ध्यान नहीं रखते हैं। चंडीगढ़ पीजीआई में पापा का चेकअप करवाना चाहता हूं, आपकी क्या सलाह है। डॉक्टर बोले कि पहले सारे टेस्ट दोबारा करवा लेते हैं, फिर बात करेंगे। पापा ने फीस के लिए वॉलेट निकाला, मगर मैंने उन्हें रोक दिया और पैसे दिए। अच्छा लगा। लगा कि अब पापा की देखभाल के कुछ लायक हो गया हूं।
अगले दिन रिपोर्ट लेने गया तो कुछ डरा हुआ था, मगर सब नॉर्मल रहा। खुद डॉक्टर भी आश्चर्य में थे कि इतनी जल्दी इतनी ज्यादा रिकवरी कैसे हो गई। इसके बाद शुरू हुआ दूसरा मिशन, दादा की शादी फिक्स करने का। ये एक पुराने और नींद में गुम चुके सपने के सच होने जैसा है। दादा ग्रेजुएशन में थे और उनके साथ एक लड़की पढ़ती थी अक्षरा। दादा को बहुत पसंद थी और उनका दावा था कि अक्षरा भी उन्हें पसंद करती है। फिर काम की आपाधापी और रूमानी सपनों के सच न होने के एहसास तले ये छोटी सी लव स्टोरी खत्म हो गई। मगर पिछले कुछ महीनों में दादा और अक्षरा फिर से एक दूसरे के टच में आ गए थे। अक्षरा के पापा को दादा के बारे में पता चला और उन्होंने तमाम दरियाफ्त कर ली। अक्षरा के जरिए ही अंकल को मेरे बारे में भी पता चला, दादा के लाडले कल्लू के बारे में। घर बाद में पहुंचा, अक्षरा के घर का न्योता पहले आ चुका था।
उस शाम ढाई घंटे कैसे बीते पता ही नहीं चला। तमाम मसलों पर बात हुई। अंकल के दो-तीन रिजर्वेशन थे। पहला, हमारी पॉलिटिकल फैमिली है, मगर वो बहुत बड़ी बारात अफोर्ड नहीं कर सकते। उनके जेहन में ताऊ जी के बेटे यानी हमारे सबसे बड़े भाई की बारात की याद ताजा थी। पापा का पॉलिटिकल करियर पीक पर था और तकरीबन चार हजार कार्ड बांटे गए थे। बारात में हाथी, घोड़े और चार बैंड थे। ये बात और है कि हम भाई मई की गर्मी में भी देर तक भांगड़ा और नागिन डांस करते रहे और जब तक खाने पहुंचे, उसकी टैं बोल गई थी। खैर मैंने अंकल से कहा कि अगर मन मिले तो हर प्रॉब्लम सॉल्व हो जाती है। बारात ज्यादा बड़ी नहीं होगी। हम अपने व्यवहारियों को तिलक में भी निपटा लेंगे। फिर दूसरी प्रॉब्लम आई कि आप लोगों की डिमांड क्या है। मैंने सबसे कहा कि मैं अगले पांच मिनट तक जो भी बोलूंगा वो मेरे पर्सनल ख्याल हैं। फिर मैंने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों होता है कि हमारे इलाकों में लड़की के पिता की झुकते झुकते रीढ़
की हड्डी मुड़ जाती है। कि लड़की के घरवाले दयनीयता की छांह तले घिरे नजर आते हैं। कि लड़की के साथ एक भारी भरकम रकम भी विदा करनी पड़ती है, कभी प्रस्टीज के नाम पर, कभी डिमांड के नाम पर तो कभी संकल्प के नाम पर। मैंने अंकल को बताया कि आपकी लड़की काबिल है, पीएचडी कर रही है, सुंदर है और सबसे बड़ी बात कि दादा और अक्षरा एक दूसरे को पसंद करते हैं, इससे बड़ा दहेज और क्या होगा। फिर आखिरी में ये भी कहा कि मेरे माता पिता की कोई डिमांड नहीं है। फिर मैंने अपनी भी एक शर्त रखी। मैंने कहा कि अंकल इसे रिक्वेस्ट ही समझिएगा, बस इतना चाहता हूं कि बारात की आवाभगत अच्छे से हो। मेरे दिल्ली और चंडीगढ़ से बहुत सारे दोस्त आएंगे। उनके लिए पनीर-पूड़ी जैसा टिपिकल इंतजाम न हो, बल्कि खालिस बुंदेलखंडी खाना खिलाया जाए। अंकल बोले, बिल्कुल जैसा आप चाहें। फिर चलते टाइम अक्षरा से मिला, पूरे सात साल बाद। मन खुश हो गया। मां ने बचपन से सिखाया और हमने माना भी कि भाभी मां का दूसरा रूप होती है। घर के नए मेंबर को देखने की खुशी बयान नहीं कर सकता।
घर वापस आया और मां और दादा को सब डिटेल में बताया। अब अगला मोर्चा था पापा को इन सारे डिवेलपमेंट के बारे में बताना। ये काम मां ने बखूबी किया।
इस बीच मेरी और पापा की नोंक-झोंक चलती रही। केबल कनेक्शन लगवाया, तो पहले तो मां बोली इसकी क्या जरूरत थी, फिर पापा-मम्मी चैनल को लेकर चर्चा करते रहते कि ये सीरियल सही लग रहा है और ये धार्मिक चैनल ज्यादा अच्छा है। काफी वक्त बीता उन्हें रिमोट की बारीकियां समझाने में। पापा को डायबिटीज भी है और कई बार उनकी चीनी खाने की इच्छा हुई, मगर छोटे बेटे के गुस्से के सामने उन्होंने हिम्मत नहीं की। अच्छा लगा कि जिन पापा से बचपन में नजरें नहीं मिला पाते थे, वही अब हमारी केयर की इतनी केयर कर रहे हैं।
जिस दिन वापस आना था, उसी दिन अक्षरा के पापा मिलने आए। पापा और अंकल एक दूसरे के पुराने परिचित थे। सब कुछ फाइनल हो गया और फिर वो हुआ, जिसका मुझे डर था। अंकल पूछ बैठे कि हम बेटी को गाड़ी गिफ्ट करना चाहते हैं, आपकी चॉइस क्या है। फिर मां ने भी पूछ लिया कि आपने क्या सोचा है। वो बताने लगे और मेरा गुस्सा बढऩे लगा। मुझे लगा कि मां को नहीं पूछना चाहिए थे। घर पर इस बात को लेकर मां से पहले भी बहुत बहस हुई है। मां कह भी चुकी हैं कि तुम्हारी शादी में जाति और दहेज जैसी कोई बात नहीं होगी। पापा तो मां से कई साल पहले कह चुके हैं कि तुम्हारे जो भी अरमान हैं, बड़े बेटे की शादी में पूरे कर लेना, छोटे से कोई उम्मीद मत करना, ये बागी किस्म का है। हां मैं बागी हूं और हर उस चीज के खिलाफ बगावत करूंगा, जो मेरे ख्यालों के उलट है। फिर चाहे वह जाति का शोशा हो या फिर दहेज या लड़की के विवाह के लिए किए गए संकल्प की बतोलेबाजी।
अंकल के जाते ही मैं मां से बहस करने लगा। मां ने कहा कि शादी में दस खर्चे होते हैं, लड़की के लिए चढ़ावा खरीदना, जेवर गढ़वाना और सब रिश्तेदारों की आवाभगत करना, अगर उनके कहने पर मैंने पूछ लिया तो क्या गलत किया। तब तक पापा भी कमरे में आ गए। मां ने उन्हें बता दिया कि मैं किस बात पर बहस कर रहा हूं। पापा ने कहा कि हर बात तुम्हारे डिस्कशन की नहीं होती। मां बोली कि तुम्हारी शादी में इस तरह की बात नहीं करेंगे, बस अब चुप हो जाओ। फिर कुछ बोलता उसके पहले ही पापा ने कहा कि ये घर है, पत्रकार भवन नहीं, और इतना कहकर पूजाघर की तरफ बढ़ गए। मेरे जाने का टाइम हो रहा था, तो मां किचेन में चली गई, मगर मैं वहीं सोफे पर धम्म से बैठ गया। आंखों से लगातार आंसू बहने लगे। फिर जोर जोर से रोने लगा। मेरा दोस्त गौरव छोडऩे आया था, अभी जाने में काफी टाइम था, मगर उससे गुस्से में बोला कि चलो, निकलते हैं। मां ने समझाया कि ऐसे रोकर घर से नहीं जाते
भावुक मत बनो, व्यवहारिक बनो। दादा ने समझाया, मगर मैं सब पर बिगड़ पड़ा। बाहर आया मगर पापा के कोर्ट के कागज छूट गए थे, सो वापस लौट आया। तब तक पापा भी पूजाघर से बाहर आ गए थे। उनके सामने आंखों को छुपाने के लिए गॉगल्स पहन लिए। मगर आंसू नहीं रुक रहे थे। फिर पापा के जोर देने पर नाश्ता करने लगा। पापा बोले, सब तुम्हारे हिसाब से ही होगा, दुखी मत हो। मगर मन नहीं मान रहा था। जेएनयू से पाए संस्कार जोर मार रहे थे। बहुत सारे सवाल थे और एक भी जवाब नहीं।
चलते टाइम पापा के पैर छुए और मां के भी। मां ने कहा, इधर आओ अपने बच्चे को प्यार तो कर लूं। मगर मैं इसे अनसुना कर बाहर चला आया। फिर रास्ते भर मां की याद भी आई और आंसू भी। समझ नहीं आ रहा कि क्या सही है, उनकी व्याहारिकता या मेरे ख्याल। मगर इतना तो तय है कि मेरी शादी में लड़की बिना एक पाई लाए घर आएगी। सबको सच मुबारक, मेरा सच यही है।

गुरुवार, जून 17, 2010

झूठी लड़कियों की लाइफ से कुछ फुट नोट्स

क्यूट बोलते हैं न जिसे, वही दिखती है वो, छोटी सी, प्यारी सी और चहकती सी। आंखों में शरारत भरकर बोलती, कैसे हैं आप? तो शनिवार को जब ऑफिस से घर पहुंचा तो थका था और थोड़ा मायूस भी। एक और वीकएंड आ गया था, जब मेरे पास करने को कुछ नहीं था। दिल्ली में तो पता भी नहीं चलता था कि संडे कब फुर्र हो गया। चेंज किया और लैपटॉप ऑन किया, तभी एक दोस्त का फोन आया, क्या कर रहा है। बैठा हूं, आजा सेक्टर 32 में। फिर क्या अपन ग्लैड होकर स्कूटर पर सवार हुए और पहुंच गए। वहां लड़कियां भी थीं और लड़के भी। लड़कियां कुछ डरी थीं। किसी को हॉस्टल टाइम से जाना था और किसी को घर पर बताना था। फिर उन्हें समझाया कि हम हैं न, टाइम से घर छोड़ देंगे। अभी परेशान मत हो और आराम से खाना फिनिश कर लो। मगर उस क्यूट सी लड़की के चेहरे से चिंता जा ही नहीं रही थी। फिर उसको गौर से देखने लगा। इतनी पवित्र दिख रही थी वो उस वक्त उस डर के साथ भी।
फिर ग्रुप में किसी ने ट्रिक बताई कि कार में जाकर घर फोन करो। शोर नहीं रहेगा उस वक्त। बोल देना घर पहुंच गई। ऐसा ही हुआ और फिर अगले आधे घंटे में सबने आराम से मस्ती मारते हुए डिनर फिनिश किया और अपने-अपने घर गए। मगर मैं वहीं रह गया, अपने सवालों के साथ।
लड़कियों को, उन पवित्र चेहरों को समाज, परिवार, लोग क्या कहेंगे, इन तमाम वजहों की वजह से डरना क्यों पड़ता है। क्यों ये प्यारी लड़कियां झूठी लड़कियों में तब्दील हो जाती हैं।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ। पिछले आठ-दस सालों से देख रहा हूं। दोस्त के साथ कॉफी पीने जाना है, मगर घर पर बोलना पड़ता है कि सहेली के घर जा रही हूं। मूवी डीवीडी खरीदनी है या फिर फॉर ए चेंज पार्लर में कुछ एक्स्ट्रा खर्च करना है, तो घर पर बोलना कि गाइड लेनी है। और और और किसी लड़के से प्यार करना है, उसके साथ जिंदगी बिताने का फैसला करना है, तब भी घर पर झूठ बोलने की मजबूरी। ये लड़कियां मेरे आसपास की, लगातार झूठ बोल रही हैं, घर से और कभी-कभी खुद से भी।
मेरी एक दोस्त लेस्बियन जैसी कुछ है। जैसी कुछ इसलिए क्योंकि वो अपनी सेक्सुअल आइडेंटिटी को लेकर कन्फ्यूज है। वो बहुत-बहुत अच्छी पेंटिंग्स बनाती है और लिखती भी उतना ही अच्छा है। मगर इस फैक्टर को वो अपनी फैमिली के साथ शेयर नहीं कर सकती। एक दोस्त एक लड़के से बहुत प्यार करती है, मगर फैमिली को नहीं बता सकती क्योंकि फैमिली उसके फैसले पर एक सेकंड में सवालिया निशान लगा देगी। ज्यादातर लड़कियां किसी से प्यार करती हैं, किसी का साथ चाहती हैं और ये फैसले उन्होंने सोलह बरस के लड़कपन में आकर नहीं लिए, पूरे होशोहवास में लिए। उन तमाम दोस्तों के फैसलों में मच्योरिटी झलकती है, मगर फिर लगता है कि इस सही फैसले के लिए भी झूठ की आड़ क्यों।
ये अच्छे घर की लड़कियां हैं, हमारे आपके घरों की लड़कियां हैं और ये अपने मां-बाप से बहुत ज्यादा प्यार करती हैं। इन्हें पता कि मां-पापा ने बहुत अरमानों से पढ़ाया है और हमें उनकी मेहनत, उनके विश्वास को कायम रखना है। मगर साथ में ये लड़कियां किसी के साथ जीना चाहती हैं और आगे बढऩा चाहती हैं। ये अपने हिस्से की मस्ती, धूप, छांव में भीगना चाहती हैं। और सबसे बड़ी बात ये अपने हिस्से की गलतियां भी करना चाहती हैं।

मगर हम उनके दोस्त, भाई, बाप, बॉयफ्रेंड, उन्हें ये सब नहीं करने देना चाहते। हमें लगता है कि हम ज्यादा समझदार हैं और हमने दुनिया देखी है। देखी है, तो उन्हें भी उनके हिस्से की दुनिया देखने दें न। लड़कियां गजब की होती हैं, हर पल चौंकाती, हंसाती-रुलाती। मगर वे झूठी नहीं होतीं। उन्हें झूठ बोलना पड़ता है क्योंकि वे बैलेंस बनाने की कोशिश करती हैं, क्योंकि वे परवाह करती हैं, प्यार की भी और परिवार की भी। आपने किसी झूठी लड़की का सच जानने की कोशिश की है क्या?