शनिवार, दिसंबर 11, 2010

अच्छी खासी बरात का बजा दिया बैंड

सौरभ द्विवेदी

मैं गधा हूं। ये बात मेरे डैड मुझसे अक्सर कहते हैं। फिल्म में हीरो बिट्टू शर्मा हीरोइन से माफी मांगते हुए कहता है। मगर मुझे लगता है कि सबसे बड़ा गधा यशराज बैनर है। हिट के लिए तरस रहे इस मिडास टच बैनर ने फस्र्ट हाफ तक अच्छी खासी चल रही फिल्म का कबाड़ कर दिया। सेकंड हाफ में जबरन खींची गई स्टोरी, यकीन से परे ट्विस्ट और फिर एक बड़े से स्टेज पर धुंआधार अपमार्केट डांस नंबर ने फिल्म के स्टार कम करा दिए। फिर भी बैंड बाजा बरात ठीक मूवी है। अनुष्का शर्मा और रणवीर सिंह ने उम्दा एक्टिंग की है। फिल्म की लोकेशन और डायलॉग बॉलीवुड की दिल्ली नहीं, बल्कि दिवाकर बनर्जी की दिल्ली का दर्शन कराते हैं। डायलॉग भी दिल्ली की भदेस भाषा में रचे पगे हैं। सेकंड हाफ के कुछ झोल छोड़ दें, तो फिल्म ठीक है।

कहानी के कुछ तार
एक शादी में श्रुति वेडिंग प्लैनर की असिस्टेंट के तौर पर काम कर रही है। बिट्टू दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज का स्टूडेंट है और अपने वीडियोग्राफर दोस्त के साथ शादी में मुफ्त का खाना उड़ाने पहुंचा है। यहीं उसका नैनमटक्का हो जाता है श्रुति के साथ। श्रुति उसे झाड़ती है, मगर जनाब तो अगले रोल से ही डीटीसी की बस में उनके पीछे पड़ जाते हैं। फिर सहारनपुर वापस जाकर गन्ने के खेत में काम करने की बजाय बिट्टू श्रुति के साथ जुड़कर वेडिंग प्लैनिंग का काम शुरू करने की सोचता है। फिर कहानी शुरू होती है उनकी कंपनी शादी मुबारक की। शुरुआत जनकपुरी टाइप मिडल क्लास वेडिंग से होती है। दोनों की लाजवाब टीम जल्द ही हाई क्लास शादियों की कैटिगरी में भी धांसू एंट्री मारती है।
श्रुति का उसूल है कि व्यापार में प्यार मिक्स करने का नहीं, वर्ना करियर की धन्नो लग जाती है। मगर साथ में रहने से प्यार पनपने के दर्शन के तहत श्रुति और बिट्टू करीब आ जाते हैं। इस करीबी के बाद श्रुति को महसूस होता है कि बिट्टू ही उसका मिस्टर लव है, मगर बिट्टू बाबू तो किसी दूसरे ही प्लैन पर पहुंच चुके हैं। करीबी के बाद बिट्टू श्रुति से कटने लगता है और फिर नतीजा ये कि दोनों अलग हो जाते हैं। टीम के टूटने के बाद दो वेडिंग प्लैनिंग कंपनी शुरू होती हैं और दोनों की ही मार्केट में दुर्दशा शुरू हो जाती है।
हालात दोनों को फिर एक साथ ले आते हैं, तमाम कड़वाहट के बावजूद। इस दौरान बिट्टू को एहसास होता है अपनी गलती का और फिर हैप्पी एंडिंग। अरे इंडिया का सिनेमा है तो हीरोइन हीरो को ही मिलेगी न।
क्या खास है इस फिल्म में
लीड पेयर ने बहुत नेचरल एक्टिंग की है। अनुष्का के खाते में पहले से ही रब ने बना दी जोड़ी और बदमाश कंपनी जैसी हिट फिल्में हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत है गर्ल नेक्स्ट डोर वाला चेहरा और बॉडी लैंग्वेज। श्रुति के रोल में अनुष्का परफेक्ट लगी हैं। उनका जूती, जींस, टीशर्ट और स्टोल का कॉम्बो हो या करियर की धुन में मगन लड़की का कैरेक्टर, सब आहिस्ता से अच्छे लगने लगते हैं। वहीं चमकीले कोट और कभी चेक वाली शर्ट पहनने वाले और बिजनेस को बिन्नेस बोलने वाले बिट्टू के रोल में रणवीर कहीं से भी न्यू कमर नहीं लगे हैं। फिल्म की लोकेशन रियल दिल्ली की गलियों से ताकत पाती हैं, तो डायलॉग आज के दिल्ली की ग्रामर से निकले नजर आते हैं। सेटअप और कॉस्ट्यूम पर की गई मेहनत साफ नजर आती है। इसके अलावा फस्र्ट हाफ में चुस्त स्क्रिप्ट भी फिल्म का एक स्ट्रॉन्ग पॉइंट है।
बॉक्स
स्टाइल बहुत ऑरिजिनल है भाई
कुछ कपड़ों पर नजर ठहर जाती है। फिल्म के पहले ही गाने में अनुष्का ने पीकॉक ग्रीन कलर का कुर्ता, रेड पटियाला सलवार और हल्के मेंहदी कलर का टुपट्टा पहना है, जो शादी के झिंटाक मूड को रिफलेक्ट करता है। इसके अलावा वेलवेट के झिंटाक मटीरियल से बने कोट में रणवीर देसी कूल नजर आते हैं। क्लाइमेक्स में अनुष्का की साड़ी पर भी नजर ठहरती है।
पोस्टमॉटर्म हाउस
यशराज बैनर भले ही अपनी पतली हालत को सेहतमंद बनाने के लिए अच्छी और नई स्क्रिप्ट और नई स्टारकास्ट के साथ लो बजट फिल्मों के ग्राउंड पर उतर गया हो, मगर अपने बेसिक मसालों का तड़का लगाने का लालच उसे फिर झटका दे सकता है। सेकंड हाफ में फिल्म बहुत स्लो हो जाती है। प्यार के कन्फ्यूजन को कुछ ज्यादा ही लंबा खींच दिया गया है। इसके अलावा एक बिजनेसमैन की लीड पेयर के अलग होने के बाद फ्लॉप बिजनेस के डिटेल्स हासिल करना भी गले नहीं उतरता। और लास्ट में एक बड़ी शादी में लीड पेयर का शाहरुख के न आने पर शो करना भी फिल्म के ऑरिजिनल ट्रैक से मैच नहीं करता।
बैंड बाजा बारात देखी जा सकती है, ऑरिजिनल सेटअप और दिल्ली की जुबान के लिए। एक नए कॉन्सेप्ट के लिए। मैं तो एंवे, एंवे, एंवे लुट गया गाने के लिए और झिंटाक टोन के लिए। लीड पेयर ने श्रुति और बिट्टू के रोल को जिंदा कर दिया है, मगर सेकंड हाफ में ज्यादा जोर पॉपकॉर्न पर ही रह पाता है और टिक टिक घड़ी देखते हुए फिल्म खत्म होने का इंतजार करने लगती है पब्लिक।
फिल्म का एक और पहलू है। वर्जित प्रदेश यानी करीबी वाले सीन बहुत खूबसूरती से शूट किए गए हैं और कतर्ई वल्गर नहीं लगते। बैंड, बाजा, बाराज इस सीजन की अच्छी मूवी हो सकती थी, मगर यशराज ने इसे एवरेज से कुछ ठीक फिल्म में तब्दील कर दिया है। रेग्युलर फिल्मों से बोर हो गए हैं, तो हिम्मत करते इसे देखा जा सकता है।

शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010

ये खेल तो बहुत बिखरा है

खेलें हम जी जान से
1.5 स्टार
सौरभ द्विवेदी

अब से कोई एकआध महीने पहले की बात है, लाडो और धूप जैसी फिल्में बनाने वाले डायरेक्टर अश्विनी चौधरी से बात कर रहा था। आशुतोष गोवारिकर की बात चली, तो उन्होंने कहा कि बॉक्स ऑफिस पर कुछ भी हो, मगर आशू हर बार कुछ नया और जेन्युइन करने की कोशिश करता है। कुछ तो गजेंद्र सिंह भाटी के छुट्टी पर होने की मजबूरी और कुछ चौधरी जी की बात का भरोसा, खेलें हम जी जान से लास्ट तक देखी। इस देखने में बी- बीच में टूटती कहानी के अलावा पीछे बैठकर कभी फोन पर बात, तो कभी बकवास करते यंगस्टर्स के ग्रुप को झेलना भी शामिल था। फिल्म देखते हुए कई बार आंखें भीग आईं। मगर इसमें फिल्म की ज्यादा महानता नहीं थी। दरअसल मैं कुछ भावुक किस्म का इंसान हूं और तिरंगा लहराते देख हर बार आंख गीली हो जाती है। तो क्या किया जाए। लिखना है तो कहानी और बाकी चीजों पर टिप्पणी करूंगा ही, मगर आपको पहली सलाह यही है कि घर पर आराम से बैठें, एकआध महीने में फिल्म टीवी पर आ जाए, तब देखें। अगर दीपिका या अभिषेक के फैन हैं और हॉल पहुंच ही गए हैं, तो फस्र्ट हाफ में मत भागें। सेकंड हाफ कुछ बेहतर है।

फिल्म की कहानी
चटगांव की कहानी है, 1930 में शुरू होती। टीएनएजर्स हैं जो फुटबॉल के मैदान पर अंग्रेजों के कैंप बना लेने से परेशान हैं। ये बच्चे पहुंचते हैं क्रांतिकारी मास्टर सूर्यसेन के पास। सुरजो दा का ये रोल प्ले किया है अभिषेक बच्चन ने। सूर्यसेन बच्चों से कहते हैं कि देखते हैं क्या किया जा सकता है। इस बीच गांधी जी के उस वादे को एक साल पूरा हो गया है, जिसमें उन्होंने क्रांतिकारियों से श का रास्ता छोडऩे की अपील की थी और वादा किया था कि एक साल में इसके अपेक्षित नतीजे सामने आएंगे। अब बंगाल के क्रांतिकारियों का दल सूर्यसेन के नेतृत्व में इकट्ठा हो रहा है। उन्होंने तय किया है कि जब मंजिल एक है, तो गांधी जी के अलावा दूसरा रास्ता भी अपनाया जा सकता है।
ये दल तय करता है कि वे एक साथ चटगांव के सभी सरकारी ठिकानों पर कब्जा कर बगावत का बिगुल फूंक देंगे। इस बीच बच्चे भी एक दिन यूरोपियन क्लब के बाहर अंग्रेजों से भिड़ जाते हैं और फिर गुस्से में भरकर सुरजो दा के पास पहुंचते हैं। वो कहते हैं कि हमें आजादी चाहिए, ताकि हमारा खेल का मैदान भी अंग्रेजों से आजाद हो जाए।
उधर कहानी में जितनी भी गुंजाइश है, उतना रोमैंस डालने के लिए इंट्रोड्यूस किया जाता है, चारुलता और कल्पना को। चारुलता का रोल बिशाखा सिंह ने प्ले किया है और कल्पना, जिन्हें पूरी फिल्म में कोल्पेना कहकर पुकारा जाता है, बनी हैं दीपिका पादुकोण। ये दोनों भी सुरजो दा के दल में शामिल हो जाती हैं। चटगांव विद्रोह की तैयारी शुरू हो जाती है। बच्चों को ट्रेनिंग दी जा रही है और 18 अप्रैल यानी विद्रोह के दिन के लिए एक एक डिटेल्स तैयार हो रहे हैं।
मगर उस दिन की स्क्रिप्ट वैसी नहीं रह पाती, जैसी क्रांतिकारियों ने सोची थी। गुड फ्राइडे की वजह से क्लब में यूरोपियन जमा नहीं होते और उन्हें वहीं बंधक बनाने की स्कीम फेल हो जाती है। उधर आर्मरी में क्रांतिकारियों को हथियार तो मिल जाते हैं, मगर कारतूस नहीं। इन दो वजहों से क्रांतिकारियों को तमाम मोर्चे छोड़कर जंगल की तरफ भागना पड़ता है और फिर शुरू होता है धरपकड़ का खेल। इस खेल को बहुत लंबा खींचा गया है। इस बीच जब भी कोई किशोर मरता है, आंखें गीली हो जाती हैं। आखिरी में सूर्यसेन भी पकड़ लिए जाते हैं और ये विद्रोह नाकाम हो जाता है।
आप सोच रहे होंगे कि कैसा कम्बख्त इंसान है, पूरी कहानी सुना डाली। अब क्या करें, थियेटर में तो आप जाने से रहे, तो कम से कम रिव्यू पढऩे का कुछ फायदा तो हो।
अतीत के बोझ तले आशुतोष
खेलें हम जी जान से देखते हुए कई बार लगान की याद आई। वहां भी सामने अंग्रेज थे, एक नैरेटर था, भारत के पुराने मैप के सहारे कहानियों की जगह दिखाई गई थी और था एक खेल। यहां तो टाइटल ही खेल से जुड़ा है, मगर जिस स्पोट्र्समैन शिप को ये रिफलेक्ट करता है, कहानी में उसका रिफरेंस बहुत कम नजर आता है। अगर जी जान से क्रांति की बात हो रही है, तो उसे खेल नहीं कहा जा सकता। अगर खेल की वजह से टीनएजर्स के भड़कने की बात हो रही है, तो उसे कन्विंसिंग तरीके से दिखाया नहीं गया।
फिल्म में दीपिका और अभिषेक के बीच का एंगल बेहद नकली है और साफ तौर पर बॉक्स ऑफिस के दबाव में ठूंसा गया लगता है। आशुतोष ने लगान, स्वदेस और जोधा अकबर जैसी फिल्में बनाईं। व्हाट्स योर राशि भी एक जोखिम भरा एक्सपेरिमेंट था, मगर खेलें हम जी जान से किसी भी तर्क और एंगल से एक सिफर कोशिश ही कही जाएगी। फिल्म देखते हुए कभी रंग दे बसंती याद आती है, तो कभी भगत सिंह पर बनी फिल्में, कई बार तो आपको दूरदर्शन पर पंद्रह साल पहले आने वाला सीरियल युग भी याद आ जाएगा। फिल्म नई जमीन, नया तरीका, कहीं भी रजिस्टर नहीं होती।
एक्टिंग क्या करें
इस बारे में कुछ भी लिखने से पहले मेरा कन्फेशन। सरकार के दिनों से अभिषेक बच्चन मुझे बहुत पसंद हैं। और दीपिका भी मुझे अच्छी लगती हैं, लव आजकल के दिनों से ही। तो अभिषेक कई फिल्मों बाद अपनी दाढ़ी से मुक्त नजर आए और उनकी एक्टिंग ठीक थी। ऐसे कैरेक्टर में वो लाउड नहीं हुए, मगर जूनियर बच्चन भी क्या करें, फिल्म की कहानी इतने हिचकोले खाती है कि इस तरह की परफॉर्मेंस का अपने आप दम निकल जाता है। दीपिका के चेहरे पर हमेशा की तरह फ्लैट से एक्सप्रेशन थे। हां, बच्चों ने शानदार रोल किया। आपको स्वदेस का चीकू याद है। वो अब बड़ा हो गया है और इस फिल्म में एक टीनएजर बना है। बाकी बच्चों ने भी अपने चेहरे और अंदाज रजिस्टर करवा दिए। चारुलता के रोल में बिशाखा सिंह दीपिका से बेहतर एक्टिंग करती नजर आई हैं। सिकंदर खेर को फिल्म में क्यों लिया गया, ये या तो आशुतोष बता सकते हैं, या अभिषेक बच्चन, जो उनके करीबी दोस्त हैं।

पोस्टमॉर्टम हाउस

खेलें हम जी जान से, भूरे कैनवस पर बहुत ज्यादा कैलकुलेशन के साथ बनाई गई फिल्म है। लोकेशन निश्चित तौर पर सब की सब नई हैं, मगर मिस्टर गोवारिकर पब्लिक पइसा खर्च करके कहानी और एक्टिंग देखने जाती
है, लोकेशन नहीं। फिल्म की कहानी बिखरी हुई है और सबसे बड़ी बात, ये कई जगह भयानक सुस्ती की शिकार है। खेलते तो हम सब जी जान से हैं, मगर फिल्म पूरे ईमान से नहीं बनाई गई है। फिल्म में म्यूजिक रहे, न रहे कुछ फर्क नहीं पड़ता। कुछ एक जगहों पर पर डायरेक्टर की कल्पनाशीलता दिखती है। मसलन, सुरजो दा, जब फांसी के तख्ते पर खड़े हैं, तो उन्हें पोल पर तिरंगा लहराता दिखता है तमाम अंधेरे के बीच। मगर ऐसे एकआध सीन इस फिल्म का बंटाधार होने से नहीं रोक सकते। फिल्म की कमजोर प्रमोशन और खाली हॉल से भी यही लगता है कि ये खेल तो बिगड़ गया।

बुधवार, दिसंबर 01, 2010

तेरी कुड़माई हो गई क्या, धत्त

सीन 1
1904 की बात है। एक बुजुर्ग जिनका नाम चंद्रधर शर्मा गुलेरी था, अपनी तख्ती पर बैठे कहानी बुनने में लगे थे। कहानी का नाम था उसने कहा था। गुलेरी जी कहानी में मासूमियत को पिरोना चाहते थे, मगर एक बारीक रेशे की तरह जो बांधता तो है, मगर दिखता नहीं। कहानी में जिक्र आया, अमृतसर का, वहां की मीठी बोली का और एक लड़का, लड़की का। दही की दुकान पर लड़की को देख लड़का पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई। लड़की बोलती है, धत्त और भाग जाती है। फिर कुछ रोज बाद वही लड़का, लड़का-लड़की, वही सवाल, इस बार लड़की कहती है, हां हो गई, देखते नहीं ये सलमा सितारों वाला पल्लू।
कट सीन 2
24 नवंबर 2010
सेक्टर 36 के डीएसओआई क्लब में गाना बज रहा है, भौंरे की गुंजन है मेरा दिल। सलमा सितारों वाली लाल साड़ी में एक लड़की सजी धजी सहेलियों के साथ घूम रही है। आज उसकी कुड़माई है। लड़का देखने में तो ठीक है, मूंछें रखे भरा-पूरा, मगर उसका चेहरा लड़की से ज्यादा गुलाबी हो रखा है। देखने वाले बताते हैं कि लड़का ऐसा नहीं था। खूब बोलता और घबराया हुआ तो कभी नहीं दिखता। फिर सगाई के लिए रखी कुर्सियों पर बैठने के 30 सेकंड के अंदर ही लड़के ने दो बार बाल संवारे और फिर दो गिलास पानी पी गया। सब कहते स्माइल तो कुछ देर मुस्कराता, गालों के डिंपल दिखाता और फिर चुप हो जाता। उधर लड़की मुस्कराए जा रही थी। अंगूठियों बदलने, और लड्डू खिलाने के बाद लड़के की जान में जान आई। लड़की ने फुसफुसाकर पूछा, तेरी कुड़माई हो गई, लड़का बोला, धत्त, मगर ये कहकर भाग नहीं पाया। जमाना बदल गया है।
कट सीन 3
कुड़माई वाला ये लड़का आपका बैचलर और बना का हुकुम है, जो पिछले सात महीनों से शहर को कभी काक्रोच, कभी कामवाली बाई तो कभी दिल्ली की कहानी सुना रहा है। अरे लड़की से तो मिलवाया ही नहीं, उसका नाम गुंजन है। सिटी ब्यूटिफुल की ही रहने वाली है, फिलहाल दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से एमफिल कर रही है इंटरनेशल रिलेशन में। तो ये बैचलर गुंजन से कब मिला? कैसे हुई उनके बीच दोस्ती और फिर कैसी बनी ये जोड़ी। कहानी थोड़ी सच्ची है और थोड़ी शरारती।
कट सीन 4
अगस्त 2006, दिल्ली के एक नामी इंस्टिट्यूट के ऑडिटोरियम में ओरिएंटेशन लेक्चर चल रहे थे। जेएनयू से पढ़कर वहां आया एक लड़का बढ़ चढ़कर सवाल पूछ रहा था, वो भी अंग्रेजी घुली हवा में खालिस हिंदी में। फिर एक लेक्चर के दौरान पिछली रो में बैठे बंगाली बाबा ने प्रेसिडेंसी कॉलेज वाले इस्टाइल में सवाल पूछा,तो लड़के ने पलटकर देखा। मगर तीन सेकंड बाद उसे सुनाई देना बंद हो गया। उन बंगाली बाबा के ठीक आगे वाली रो में एक लड़की बैठी थी। उसने सफेद रंग का कुर्ता पहन रखा था। कानों में पीतल के बड़े बड़े से ईयररिंग थे। मगर ये सब लड़का नहीं देख पाया। वो देख रहा था, तो सिर्फ आंखें। उसे कुछ गुम सा होता लगा। उसने इससे पहले इतनी खूबसूरत आंखें नहीं देखी थीं। आजतक नहीं देखी हैं।
कट सीन 5
कैलेंडर तेजी से फडफ़ड़ाने लगा था। लड़का अब भी लड़की को देखकर कुछ नैनो सेकंड के लिए ही सही गुम हो जाता था। फिर खुद को चिकोटी काटता और सबसे बात करने लगता। उसकी नजर नहीं हटती और लड़की को लगता कैसा ढीठ है, देखे ही जा रहा है। लड़के ने गुम होने के भाव को छिपाना शुरू किया और फिर उसकी लड़की से दोस्ती हो गई। दोनों दुनिया जहान की बहस करते, जेएनयू में घूमते और बस बोलते ही जाते। कोर्स पूरा हुआ, तो लड़का वापस जेएनयू आ गया और लड़की नौकरी करने लगी। मगर दोस्ती बनी रही, मजबूत होती रही।
कट सीन 6
लड़का कांपते हाथों से डायरी लिख रहा है। आज तीन साल बाद उसे एहसास हुआ है कि वो इस लड़की के साथ जिंदगी गुजारना चाहता है। मगर पेन कुछ ठिठका है। लड़का बुंदेलखंड का रहने वाला है, जाति से ब्राह्रमण है। और लड़की, फौजी अफसर की बेटी, वो भी जाट। ये शादी नहीं हो सकती। तमाम कोलॉज कोरे कागज पर बनते। कभी ऑनर किलिंग, तो कभी हैप्पी एंडिंग। फिर लड़का नौकरी करने चंडीगढ़ आ गया। लड़की का घर था इस शहर में।
कट सीन 7
लड़का अंकल के सामने बैठा खाना खा रहा है। इस सेशन के बाद उसकी पेशी होनी है। लड़की ने घर पर बता दिया है। अंकल ने पूछा, तो क्या सोचा। लड़के ने जवाब दिया, माता-पिता ने पाल पोसकर बड़ा किया, काबिल बनाने के लिए सब कुछ किया। उनके आशीर्वाद के बगैर कुछ नहीं, कुछ भी नहीं। अंकल खुश हो गए। ऑनर किलिंग के बाद जस्टिस फॉर समथिंग समथिंग के लिए सेव की गई फोटो डिलीट कर दी। वैसे लड़की की फैमिली जाट तो थी, मगर बेहद पढ़ी-लिखी और प्रोग्रैसिव भी। मगर डरना जरूरी था न।
कोई कट नहीं
आपके बैचलर की लाइफ का नया फेज शुरू हो चुका है। ये बैचलर वाली टैगलाइन भी बस कुछ महीनों के लिए है। मगर कहानी जारी रहेगी, क्योंकि किस्सों के वर्क में लिपटे सचों से बनती है दुनिया। सलाम दुनिया।
(दैनिक भास्कर के चंडीगढ़ सप्लीमेंट सिटी लाइफ के लिए लिखे गए मेरे वीकली कॉलम शहर और सपना से)

शनिवार, सितंबर 25, 2010


बरसात की एक दोपहर और मेरे खोने की कहानी
पता नहीं सुबह बारिश हो रही थी या नहीं, मगर जब लंबी घंटी बजी तब झमाझम बारिश हो रही थी। टिन शेड वाले प्रेयर हॉल में सब इकट्ठे हुए। मेरा साइज मीडियम था, तो मैं अपनी क्लास की क्यू में बीच में खड़ा था। उम्र पांच साल, फस्र्ट क्लास, रंग गेंहुआ। बीच प्रेयर में ही मैं हंसने लगा। दरअसल मेरे बगल में खड़ा लड़का रोने लगा था। उसे पता नहीं था कि उसका बड़ा भाई जो चौथी क्लास में पढ़ता है, कहां खड़ा है, तो वो रोने लगा। टीचर जी आए, उसे अपने साथ ले गए। भक्क, ऐसे भी कोई रोता है, पिन्ना कहीं का। मेरे भी भइया थे, पांचवी क्लास में। पर मैं क्यों रोकर उनके पास जाऊं, वो खुद ही मेरे पास आ जाएंगे प्रेयर खत्म होने के बाद। भइया नहीं आए और मैं टलहता हुआ बाहर पहुंच गया। सामने स्कूल की बस खड़ी थी, तो सोचा कि आज इस पर भी सवारी कर ली जाए। तो गए और अपना बस्ता गोद में लेकर जम गए। शुरु में खिड़की से झांकते रहे। फिर बोर होने लगे। वही वही चौराहे लौटकर आने लगे थे। कंडक्टर भइया बार-बार पहुंचते कहां उतरना है, मैं हर बार कहता, यहीं बस थोड़ा सा आगे। बारिश हो रही थी, तो कहीं कुछ ज्यादा दिख भी नहीं रहा था। फिर इंग्लिश की किताब खोलकर बैठ गया। उसके पहले पेज पर एक क्यूट सा येलो कलर का कुत्ता पॉटी करने की पोजिशन में बैठा था। अंदर की तस्वीरें भी अच्छी थीं।
मगर एक तस्वीर बहुत खराब हो चुकी थी, घर की तस्वीर। ये बात है साल 1988 की। उन दिनों झोली वाला बाबा आता था और बच्चों को उठाकर ले जाता था। तो जब मैं छुट्टी होने के एक घंटे बाद भी घर नहीं पहुंचा, तो तलाश शुरू हुई। पापा अपनी राजदूत पर सवार, पहले अस्पताल और थाने पहुंचे, फिर स्कूल के आसपास। चाचा अपनी यजडी पर सवार बस स्टैंड और स्टेशन पर। बड़े ताऊ जी को बुखार, फिर भी वो छाता ताने यहां वहां टहलते। दीदी-भइया, सब झुंड बनाकर शहर खंगालने में लगे। फिर पिंकू भइया को लगा कि सब जगह देख लिया, स्कूल की बस में भी एक बार झांक लिया जाए। कुछ देर बाद बस घर के सामने टाउन हॉल से गुजर रही थी, तो भइया ने हाथ दिया और रोक लिया। तब तक कंडक्टर भइया भी मुझसे पक चुके थे। पूरी बस में मैं अकेला और हर बार अपनी गोद से किताब हटाकर बस यही कहता, यहीं बस आगे ही तो है मेरा घर। उन्होंने तय किया था कि मुझे वापस स्कूल छोड़ दिया जाए। फिर बस रुकी, पिंकू भइया ऊपर चढ़कर झांके और मैं पीछे से चिल्ला दिया भइया। वैसे ही जैसे घर में चिल्लाता था, जब दूध पक चुका होता था। भइया को स्टील वाले कप में मलाई खाने में बहुत मजा आता था, खूब सारी चीनी मिलाकर। तो जब भी उन्हें बताता, खुश होकर बोलते शाबास मेरे मिट्टी के शेर, मगर इस बार जब उन्हें बुलाया, तो वो बोले गधा कहीं का।
घर आया, तो किसी ने गले से लगाया तो किसी ने आंखें दिखाईं। बस में क्यों बैठ गए थे, भइया नहीं दिखे, तो बैठ गया, सोचा आज बस से घर चला जाए। भइया के पास क्यों नहीं गए, दिखे ही नहीं और मैं उनके पास जाने के लिए रोने लगता क्या।
आज दोपहर में बहुत बारिश के बीच जब खिड़की से झांका, तो एक स्कूल बस नजर आई। उसकी एक खिड़की पर नन्हा सिब्बू बैठा नजर आ रहा था। नहीं, मैं तो यहां खिड़की के पार खड़ा था, मन का वहम रहा होगा शायद।

शनिवार, सितंबर 11, 2010

जबराट फिल्म है दबंग

चंडीगढ़ को इस तरह से देखना अलग ही एक्सपीरियंस था। लग रहा था कि बीकानेर या बुलंदशहर के किसी सिनेमा हॉल में बैठकर सिनेमा देख रहे हैं। सलमान खान की धांसू एंट्री होते ही जोरदार तालियां और शोर। फिर सोनाक्षी सिन्हा की एंट्री होते ही सीटियों का शोर। मुन्नी बदनाम हुई ...गाना आने पर तो लड़के बावले हो जाते हैं और सीट पर खड़े होकर डांस करने लगते हैं। इंडिया के दबंग सिनेमा में आपका स्वागत है। वो कोई दस बीस साल पहले फिल्म के पोस्टर पर लिखा रहता था न एक्शन रोमांस और मारधाड़ से भरपूर ... दबंग वैसी ही फिल्म है। कहीं भी बोर नहीं करती, हर जगह देसी ढंग से स्टाइल परोसती और फुल्टू एंटरटेन करती, बहुत दिनों से कोई जाबर मूवी नहीं देखी, तो दबंग देखिए पइसा तो छोडि़ए पाई भी वसूल करवा देगी ये।
क्या भूलूं क्या याद करूं
सलमान खान चुलबुल पांडे के रोल में गदर लगे हैं। मुझे अक्सर लगता था कि काश ये हैंडसम हीरो कुछ एक्टिंग भी कर पाता, इस फिल्म ने मेरे काश का गर्दा उड़ा दिया। एक कैरेक्टर इंस्पेक्टर चुलबुल की तारीफ करते हुए बताता है कि थानेदार साहब अंदर से बुलबुल हैं और बाहर से दबंग। फिल्म भी ऐसी ही है, अंदर से सुरीली और मेलोड्रामा से भरपूर और बाहर से ऐसी कि बुलेट ट्रेन से गर्दन बाहर निकालकर नजारे देख रहें हो जैसे। सलमान की स्ट ाइल और फिल्म के डायलॉग दोनों ही सालों-साल याद रहेंगे। रॉबिनहुड, हम रॉबिनहुड पांडे उर्फ चुलबुल हैं। ...लड़की तो बहुत जबराट लग रही है। ...पांडे जी अब सेंटी होना बंद करिए। ...भइया जी स्माइल प्लीज और ...मार से नहीं साहब प्यार से डर लगता है। अरे एक और डायलॉग पेशे नजर है, भइया कानून के हाथ और चुन्नी सिंह की लात बहुत लंबी होती है।
सलमान जब मारते ...बोले तो वॉन्टेड का एक्सटेंशन। मगर कहीं भी ये एक्शन बोझिल नहीं लगते। बाबू साहब चश्मा भी शर्ट के पीछे लगाते हैं, ताकि आगे-पीछे सब दिख सके। सोनाक्षी के हिस्से ज्यादा डायलॉग नहीं आए, मगर जितने भी आए, उनमें वो शोख और मासूम दोनों लगी हैं। वे रीना रॉय की याद दिलाती हैं। सिनेस्क्रीन पर गर्ली एक्ट्रेस देखकर अगर ऊब चुके हैं, तो सोनाक्षी को देखिए, ये पर्दे पर औरत की वापसी की तरह है। सोनू सूद ने भी चुन्नी के रोल के साथ ठीक बर्ताव किया है। फिल्म के गाने जल्दी-जल्दी आते हैं, मगर कम्बख्त पहले ही इतने हिट हो चुके हैं, कि बोर होना भी चाहें तो नहीं होने देते।
और अंत में शाबासी
डायरेक्टर अभिनव कश्यप ने फिल्म के तेवर किसी भी फ्रेम में कमजोर नहीं पडऩे दिए। कहीं से नहीं लगता कि ये अनुराग के भाई की पहली पिच्चर है। कहानी कोई नई नहीं है। सौतेले बाप की उपेक्षा झेलता जिद्दी लड़का, जो बड़ा होकर इंस्पेक्टर बनता है। एक गरीब मटका बनाने वाली से प्यार करता है, मां का ख्याल रखता है और बदमाश टाइप के एलिमेंट से भिड़ता है। आखिरी में मां के बिना बिखर रही फैमिली एक हो जाती है और गुंडा वैसे ही मरता है, जैसे उसको मरना चाहिए। ये सब कुछ हम अमिताभ के सिनेमा में खूब देख चुके हैं और अब कुछ भूलने से लगे थे। मगर नहीं, दबंग रिवाइवल कोर्स की तरह आई और इंडिया के खालिस सिनेमा को खूब सारी ऑक्सीजन दे गई। अगर गुस्सा आता है, प्यार आता है, आंसू आते हैं, हंसी आती है, तो ये फिल्म आपके लिए है।

गुरुवार, अगस्त 19, 2010

तो एक और पक्षी प्रवासी हो गया...

शाम का एक ही रास्ता था। सीढिय़ां चढ़ता और अपर्णा मैम मुस्कराते हुए दरवाजा खोलतीं। झुककर पैर छूता तो कहतीं खुश रहिए। उस आवाज में नेह था। फिर हम उनके घर के खुले बरामदे में बैठ जाते। अपनी पढ़ाई की बात करता। वो सलाह देती जातीं। मैं उत्साह में बकबक करता रहता और वो आंखों में मुस्कान समेटे सुनती जातीं। जब वो घर के काम में बिजी हो जातीं, तो मैं सामने के मैदान को ताकने लगता। पुराना बरगद का पेड़, उसके सामने पड़ी जंग खाती जीप और इक्का-दुक्का टहलते जानवर। फिर कुछ बेचैनी होती तो किनारे रखे तुलसी के पौधे पर हथेलियां घुमाने लगता। उन दिनों बहुत परेशान रहता था। प्लस टू तक कानपुर में पढ़ा था, मगर फिर कुछ ऐसे हालात हुए कि अपने कस्बे उरई वापस लौटना पड़ा। मैथ्स के रजिस्टर के बीच में रखकर कॉमिक्स और नॉवेल पढ़ता था। इससे आपको अंदाजा लग जाएगा कि मैं साइंस में कितना इंटरेस्टेड था। फिर थर्ड ईयर तक आते-आते घर कैदखाना लगने लगा और पनाह लेने आ जाता, इस कोने में। फिर कॉलेज के प्रफेसरों ने जेएनयू के बारे में बताया और अपने राम तैयारी में जुट गए। मैम खूब मदद करतीं, मैं उनसे बहस करता और जब बहस टॉपिक से इधर-उधर भागने लगती, तो वे उसे फिर से ट्रैक पर ले आतीं। मैं बहुत बोलता था, वो बहुत सुनती थीं और कम बोलती थीं, मगर उनके बोले एक-एक शब्द मुझ पर असर करते थे।
फिर अप्रैल आते-आते किसी बात पर मां-पापा से डांट पड़ी। मैं बागी था, तो घर में एक अबोला सा कायम हो गया। भाई से भी किसी बात पर लड़ पड़ा और फिर घर बस एक पिंजड़ा लगा, जिससे हर हाल में दूर भागना था। उन्हीं दिनों मेरा जन्मदिन आया। मैम ने अपने घर बुलाया और एक चमकीली इंक वाला पेन और डायरी दी। उसके पहले पेज पर लिखा - तुम्हारी नई दोस्त, जिसमें तुम अपनी कामयाबी दर्ज कर सको। नीली चमकती स्याही में लिखे वो शब्द आज भी आंखों में झलकते हैं। मैंने खूब मन से तैयारी की, सामने वाले मंदिर में बसे शिव जी को खूब पानी पिलाया और एग्जाम देने लखनऊ पहुंच गया। पेपर देखती ही हंसी आ गई। गिने-चुने सवाल ही तैयार किए थे और वही सामने छपे थे। एक भी शब्द लिखे बिना अपनी बगल वाली रो में बैठे दोस्त से बोल बैठा, मेरा हो गया। तब इतनी समझ भी नहीं थी कि जेएनयू का एंट्रेंस बहुत मुश्किल होता है। कुछ एक दिन लखनऊ कानपुर रुककर वापस आया, तो शाम को मैम से मिलने पहुंच गया। उन्हें दोस्त के जरिए पहले ही पता चल गया था कि मेरा एग्जाम अच्छा हुआ है। जैसे ही मैंने घर पहुंचकर उनके पैर छुए, उन्होंने कुछ गीली-कुछ भीगी आवाज में खुश रहिए के बजाय कहा - तो एक और पक्षी प्रवासी हो गया। मेरी भी आंखें गीली होने लगीं। मैंने माहौल हल्का करने की गरज से कहा, अरे कहां मैम, अभी तो एग्जाम दिया है, देखिए रिजल्ट क्या आता है। मगर कुछ ही मिनट बाद उन्हें पूरे उत्साह के साथ बताने लगा कि इस क्वेश्चन में मैंने ये लिखा, उसमें वो लिखा।
जब रिजल्ट आया, तो मैं दिल्ली में ही था। सीडीएस का रिटेन एग्जाम क्लीयर कर चुका था और एसएसबी के लिए कोचिंग कर रहा था। जनरल में पंद्रह सीटें थीं और मेरा लास्ट नंबर था। फोन पर एक कजिन ने रिजल्ट बताया तो समझ नहीं आया क्या करूं। गला सूखने लगा। कई बार सीढिय़ों से गिरते-गिरते बचा। फिर बूथ पहुंचा और जितने नंबर याद थे, सबको फोन घुमा दिया। मगर मैम को फोन करने की हिम्मत नहीं हुई। भाई से बोला, आप बता देना।
फिर एक शाम मिठाई का डिब्बा लेकर उनके घर पहुंचा। इस बार मेरी आवाज प्रणाम बोलते हुए गीली हो रही थी। उन्होंने सिर पर हाथ रखा, तो रुलाई छूट गई। मैंने कहा था न, एक और पक्षी प्रवासी हो गया, उन्होंने कहा। मैं बस मुस्करा दिया।
जेएनयू आया तो एक नई दुनिया से पाला पड़ा। पहले सेमेस्टर से ही लाइब्रेरी से यारी कर ली। जब छुट्टियों में घर जाता, तो उनसे मिलने पहुंच जाता। मैंने ये पढ़ा, आपने उसका नाम सुना है, ये किताब जरूर देखिएगा। मैं अधभरे घड़े की तरह चहकता और बताता और वो आंखों में खुशी भरे सुनती रहतीं। फिर धीमे-धीमे ये सिलसिला कुछ कम हो गया। वो अपनी जगह व्यस्त, मैं अपने काम में मस्त। हां, जब भी घर जाता, एक बार उस कोने में जरूर जाता।
उनकी शादी हो गई। कभी फोन पर लंबी बात होती, कभी महीनों कोई संपर्क नहीं। पिछले दिनों उन्हें एक प्यारा सा बेटा हुआ। उसका नाम शांतनु है। मुझे ये सब पता है थैंक्स टु फेसबुक। किनारे एक तस्वीर देखी पिछले दिनों। बिल्कुल मम्मी के टाइम जैसे फोटो फ्रेम होते न, वैसी तस्वीर। ये मेरी अपर्णा मैम थीं। फिर बात शुरू हुई और पहले ही दिन बहस अटक गई रावण फिल्म पर। मैं उन्हें तमाम तर्क देता रहा, जब तक शांतनु जाग नहीं गया और आखिरी में उन्होंने मान लिया कि तुम जीत गए, मैंने मान लिया कि इसका क्लाइमेक्स बहुत मीनिंगफुल है। ये कहकह मैम तो चली गईं, मगर मुझे अपनी जीत सुनकर कुछ हारा हुआ सा लगने लगा। मैं कुछ भी कर लूं, कितना भी पढ़ और समझ लूं, मैम से कभी नहीं जीतना चाहता।
उस घर के कोने में अब भी शाम उतरती होगी। तुलसी अब भी हवा के साथ हिलती होगी। जीप अभी भी बारिश में भीगकर और जंग खा रही होगी। उस कोने में अभी भी मेरी कुछ यादें सुस्ता रही हैं। ये पक्षी वहां जाकर कुछ देर बैठना चाहता है। सुनना चाहता है- खुश रहिए।

शुक्रवार, अगस्त 13, 2010

भारत लाइव- इंडिया के लोगों के लिए

इस साल की विदेशी फिल्मों की कैटिगरी में ऑस्कर के लिए भारत को अपना नॉमिनेशन मिल गया। पीपली लाइव है ही इतनी उम्दा फिल्म। इसे साढ़े चार स्टार दिए जा रहे हैं, पांच नहीं, क्योंकि परफेक्ट कुछ नहीं। खैर जुमलेबाजी को पीछे छोड़ मुद्दे की बात करें, तो पीपली लाइव दरअसल भारत लाइव है। इंडिया से या कहें दिल्ली और दूसरे मेट्रो से दूर गांव, जहां भारत रहता है। गांव, जहां किसान आज भी बकरियों को गोद में थामता है, पुरुष हर चौथे वाक्य में गालियां इस्तेमाल करते हैं और सास बहू के खांटी देसी गालियों के साथ झगड़े शुरू होते हैं, मैंने खत्म नहीं कहा क्योंकि ये किसी एक के खत्म होने के साथ ही खत्म होते हैं। पीपली लाइव जरूर देखिए, जबर्दस्त फिल्म है, लगातार हंसाती है, मगर आखिरी में जब आप हॉल की सीढिय़ों से उतरते हैं, तो सिर्फ सोच के साथ। शहर के दर्शकों के पास ये एक मौका है, इस मिथ को तोडऩे का, कि उन्हें अच्छी, एंटरटेनिंग और जमीनी फिल्मों की समझ कुछ कम है।

प्रेमचंद का नाम सुना है क्या?
हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े, सुने और बताए जाने वाले कहानीकार हैं प्रेमचंद। अगर हिंदी लिटरेचर से दूर-दूर तक कोई मतलब नहीं, फिर स्कूल में हिंदी की किताब में इनकी कुछ कहानियां आपने जरूर पढ़ी होंगी। प्रेमचंद की सबसे अच्छी कहानी है कफन। ये दो किसानों की कहानी है। घीसू और माधव की कहानी। घीसू की पत्नी मर रही है और दोनों उसको तड़पते देख हिल भी नहीं रहे हैं। डर है उनके अंदर कि कहीं एक गया तो दूसरा आग में पकते आलू न खा जाए। फिर औरत मर जाती है और घीसू-माधव जो पहले से ही कर्ज में डूबे हैं, कफन के लिए पैसे जुगाडऩे चलते हैं। पैसे मिल जाते हैं और उससे ये दोनों पूड़ी-सब्जी की दावत उड़ाकर दारू पी लेते हैं और ठगिनी क्यों नैना झमकाए गाते हुए ढेर हो जाते हैं। यही है गरीबी का सच और ऐसा ही सच पीपली लाइव में दिखाया गया है। फिल्म हर उस चीज पर व्यंग्य करती है, जिन्हें ये नाज है कि हम देश चलाते हैं। सरकार, प्रशासन, मीडिया, यहां घेरे में सब आए हैं, जबर्दस्त तरीके से। प्रशासन के लिए किसान का मरना तब तक कोई खबर नहीं है, जब तक वो देश के लीडिंग इंग्लिश चैनल में प्राइम टाइम बुलेटिन का हिस्सा न बन जाए। फिर लाइव आत्महत्या की खबर के फेर में टीआरपी के मारे हिंदी चैनल भी स्पॉट पर पहुंचते हैं और जरूरी से कहीं ज्यादा गैरजरूरी चीजों की ब्रेकिंग न्यूज बनाते हैं। आपको याद है, जब राहुल गांधी गांव जाते थे, तब एक ब्रेकिंग न्यूज ये भी बनती थी कि राहुल ने पूड़ी सब्जी खाई। बहरहाल, इसके साथ ही साउथ और नॉर्थ ब्लॉक में बैठकर जो बाबूशाही देश को फाइलों में कैद करती है, उस पर भी जबर्दस्त चोट की गई है। नेतागीरी का तो कहना ही क्या, इस देश में लाशों पर राजनीति कोई नई बात नहीं है। पीपली लाइव बहुत अच्छी फिल्म इसलिए नहीं है क्योंकि इसमें व्यंग्य किया गया है। ये इसलिए भी बहुत अच्छी फिल्म नहीं है क्योंकि इसमें सभी ने बहुत सधी हुई एक्टिंग की है, जबर्दस्त गंवई ढंग से डायलॉग बोले हैं। ये एक महान फिल्म है क्योंकि इसका अंत बहुत मार्मिक और झकझोर देने वाला है।
जिसकी मौत पर हल्ला मचा है, वो तो नहीं मरता, मगर एक बूढ़ा और एक जवान जरूर मरता है। ये एक साथ दोहरी मार पड़ती है हमारे जेहन पर, क्योंकि बूढ़ा जब मरा तो किसी ने उसकी खबर नहीं ली, जबकि वही भूख से मरा और जवान जब मरा, तो उसे किसी और की मौत बता दिया गया।

कहानी के रेशे में छिपी कहानियां
मुख्य प्रदेश नाम के एक काल्पनिक स्टेट को रचा गया है, जहां के सीएम हैं यादव जी, जो जल्द ही उपचुनाव में खड़े हो रहे हैं। इसी विधानसभा में एक गांव है पीपली, जहां रहते हैं कर्ज में डूबे दो भाई - नत्था (ओंकार दास मानिकपुरी) और बुधिया ( रघुबीर यादव) । दोनों कफन कहानी के किरदारों की तरह कुछ काम करने के बजाय बैठकर चिंता करते हैं। फिर कर्ज दूर करने के लिए सीएम यादव के गुर्गे भाई ठाकुर के पास जाते हैं। वहां से उन्हें मिलती है दुत्कार और व्यंग्य में डूबी एक सलाह कि जा मर जा, किसान की आत्महत्या पर सरकार पैसे देती है। पीपली पहुंचा एक स्टिंगर यानी टेंपरेरी पत्रकार राकेश चाय सुड़कते हुए जब नत्था के मरने के ऐलान की बात सुनता है, तो खबर छाप देता है। इसके बाद कद्दू में शिवलिंगनुमा स्टोरी कर रहा हिंदी मीडिया और टीआरपी न आने को लेकर बॉस की डांट खाती इंग्लिश मीडिया इस गांव में अड्डा जमा लेती है। यहीं से शुरू होता है राजनीति, प्रशासन और एक्सक्लूसिव का खेल। ये खेल मेरे प्यारे देश के लोग टीवी पर रोज देखते हैं, फिर भी फिल्म में इसे देखकर हंसी भी आती है और अंत में एक सोच का सूत्र भी दिमाग में छोड़ जाती है। नत्था मरता नहीं है, मगर गायब जरूर हो जाता है।
इसी कहानी के समानांतर चलती है एक बुजुर्ग या कहें कि हड्डियों के एक ढांचे की कहानी, जिसका नाम है होरी महतो। होरी भी कर्ज में अपनी जमीन गंवा चुका है, मगर उसने कोई ऐलान नहीं किया या कहें कि खुद को परमशक्तिशाली समझने वाले न्यूजतंत्र को उसमें टीआरपी की गुंजाइश नजर नहीं आई, इसलिए होरी खबर नहीं बनता। होरी को सामने लाता है वही स्टिंगर राकेश, जिसे शुरुआत में तो लगता है कि पता नहीं बुड्ढा बिना कोई जवाब दिए कौन सा खजाना खोज रहा है। दरअसल होरी मिट्टी खोदकर बेचता है। फिर एक दिन उसी मिट्टी के गड्ढे में बिना कोई खबर बने मर जाता है, भूख की वजह से। ये सब देखकर राकेश के अंदर का भारत जागता है, मगर इंडिया को न राकेश की परवाह है, न होरी की। फिर नत्था की खोजबीन के फेर में में राकेश भी मर जाता है। सॉरी मैं गलत लिख गया, राकेश नत्था की खोज में नहीं, बल्कि उस शक्तिशाली तंत्र का हिस्सा बनने के लालच में मर जाता है। टीवी वाली मैडम को एक्सक्लूसिव देने के चक्कर में राकेश मर जाता है, मगर किसी को भी इसकी खबर नहीं होती। टीवी वालों के लिए तो ये नत्था की मौत थी।
फिल्म खत्म होती है और आखिरी शॉट में लौटता है इंडिया। दिल्ली में बनती मेट्रो, दिल्ली में बनती इमारतें और इन्हीं इमारतों के बीच काम करता बुधिया, गुमनाम। उसके परिवार वालों को कोई मुआवजा नहीं मिला क्योंकि नत्था हादसे में मरा है। नत्था के नाम से आत्महत्या के लिए इच्छुक किसानों की मदद के लिए बना नत्था कार्ड भी उसके परिवार को नहीं मिलता क्योंकि इसके लिए गरीबी रेखा के नीचे जीवनयावन करने वालों के जीवन को प्रमाणित करने वाला बीपीएल कार्ड चाहिए। कागजों पर चलती योजनाएं और किसानी में मरता देश, मगर दिल्ली आबाद है, तो देश आबाद है के भरम में जीते मिडल क्लास को ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए।

आप देख सकते हैं कि
पीपली लाइव सिर्फ किसानों की आत्महत्या और सरकारी इमदाद की कहानी ही नहीं है, ये इंडियन मीडिया की कहानी भी है। फिल्म में दो लीडिंग किरदार एनडीटीवी की जर्नलिस्ट बरखा दत्त और फिलहाल स्टार न्यूज में काम कर रहे पॉलिटिकल एडिटर दीपक चौरसिया से प्रेरित हैं। हालांकि हिंदी रिपोर्टर की कार्यशैली दीपक से मेल नहीं खाती, ये मेल खाती है इंडिया टीवीनुमा रिपोर्टिंग से, जिसमें मिट्टी के दबे हुए टुकड़े को भी नत्था की आखिरी निशानी बताते हुए बुलेटिन खींचा जाता है। गांव के मुद्दे पर पर भी अमेरिका को दोषी बता दिया जाता है और भेडिय़ा आया भेडिय़ा आया की तर्ज पर सब एक दूसरे के पीछे भागते हैं। शॉट बनाने के लिए कुछ नहीं मिलता, तो नत्था कितनी बार हल्का होने जा रहा है, इसके भी फुटेज तैयार किए जाते हैं। पीपली लाइव को मीडिया में बहुत जगह मिली है, पर क्या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इससे मिले सबक को भी अपने अंदर कुछ जगह देख पाएगा?
आपको देखनी ही होगी ये फिल्म क्योंकि
टीवी पत्रकार से डायरेक्टर बनी अनुषा रिजवी ने कोई भी कसर नहीं छोड़ी। एक-एक शॉट वास्तविक लगता है फिल्मी नहीं। फिल्म की भाषा में गालियों का प्रयोग किया गया है, जिस पर शहरी दर्शक सबसे ज्यादा हंसते हैं। जी हां, अब गालियों का बड़े पर्दे पर इस्तेमाल उतना बुरा नहीं रहा। महंगाई डायन के अलावा इंडिनय ओशियन का म्यूजिक खासतौर पर उनका गाना चेला माटी राम बहुत सटीक बैठता है। ओमकार दास और रघुवीर की तो हर तरफ चर्चा हो रही है, मगर बाकी किरदारों ने, जिनके नाम तलाशने के लिए शायद घंटों इंटरनेट खंगालना पड़े, जबर्दस्त एक्टिंग की है। तो फिर अगर आप हैं महंगाई के मारे या फिर हैं देश से दूर, तो देखिए ये सिनेमा क्योंकि आजादी की उमंग में डूबने से पहले कुछ सवाल पूछे जाने बाकी हैं खुद से। कहीं शहर के शोर में ये सवाल अनसुने तो नहीं रह जाएंगे।

बुधवार, अगस्त 04, 2010

झल्ली लड़की को समझाया, आई लव लाइफ

जिंदगी अजीब होती है न। एक पल किसी को कुछ समझाता और दूसरे ही पल खुद उसी चीज को समझने की कोशिश करता। मेरी एक दोस्त है। उसका नाम आशिमा है। दिल्ली में है और थिएटर कर रही है। इंस्टिट्यूट में मुझसे तीन साल जूनियर थी। तो मैं वहां हर साल अपने जूनियर्स से मिलने जाता था। पिछले साल गया तो उससे भी मुलाकात हुई। फिर फेसबुक पर दोस्ती। चुलबुली सी है और फेसबुक के किसी भी अपडेट पर फौरन कमेंट करती। मुझे लगा यूं ही कमेंट कमेंट में बात करती रहेगी झल्ली। उससे कहा अपना जीमेल आईडी बताओ। उसने आईडी एक सवाल के साथ दिया। क्या हुआ सर, कोई गलती हो गई क्या, मेरी डांट तो नहीं पड़ेगी। मैंने कहा नहीं। फिर जीटॉक पर बात होने लगी। पूरी नौटंकी है ये लड़की। कुछ भी बात करो, कहेगी सर मेरी तो हो गई सारारारा। एक नया जुमला भी सिखाया उसने मुझे - यारा, अभी तक यार सुना था, मगर ये क्यूट झल्ली जब बहुत रिदम में होती तो यारा बोलती। प्ले का रिहर्सल हो या फिर रात में एक बजे उठकर मम्मी को बताए बिना मैगी बनाना, यारा छोटी-छोटी चीजें शेयर करती। टाइम से जवाब नहीं दो, तो खूब खीजती। जब मूड में होती, तो बोलती ही रहती। मगर इधर तीन दिनों से चुप थी। मैं भी वीकएंड पर दिल्ली गया था, तो इंटरनेट से कुछ दूर ही रहा। कल रात ऑफिस से लौटा, तो उसने पिंग किया, आप मुझसे नाराज हो क्या, मैंने कहा नहीं। फिर नॉर्मल बात शुरू हो गई।
मगर कुछ ही देर में वो रोने लगी। उसने खुद ही बताया। मैंने पूछा क्या हुआ, तो बोली यारा, मेरा तो प्यार से और ऐसी ही तमाम चीजों से यकीन उठ गया है। फिर खुद ही सुबकते हुए बताने लगी कि मेरा एक दोस्त था। पिछले एक साल से मेरे सामने कुछ और दिखावा कर रहा था और असलियत कुछ और थी। कुछ दिनों पहले मैंने उसका झूठ पकड़ लिया। तबसे सदमे में हूं। मेरे लिए प्यार विश्वास का नाम है, मगर उसने मेरे विश्वास को तोड़ा है। चैट की लिंगो में मैं हर सेंटेंस के बाद हमममम करता रहा। फिर उसे समझाने की कोशिश की, कि जीना इसी का नाम है। अलग-अलग लोग, अलग-अलग सबक। मैं ये नहीं कहता कि तकलीफ होने पर रोओ मत, मगर तकलीफ को अपने घर में ठिकाना मत बनाने दो। बुरे वक्त को बीत जाने दो। उसने कहा कि इस तरह की बातों से कोई मदद नहीं मिलती। तो मैंने उसके साथ अपना मंतर शेयर किया।
इसे पिछले कुछ हफ्तों से ट्राई कर रहा हूं और अभी तक इससे काफी मदद मिली है। जब भी बहुत जोर से खीझ उठे, गुस्सा आए, दीवार पर सिर मारने का मन करे या फिर लगे कि सब कुछ मेरे साथ ही गलत क्यों होता है, तो इसे ट्राई कर सकते हो। लंबी सी सांस खींचो और खुद से कहो, आई लव लाइफ। अब याद करो कि लाइफ के पिछले कौन से हैपी मोमेंट्स थे, जो बिना दरवाजा खटखटाए तुम्हारे पास चले आए थे। तब तुम सरप्राइज्ड हुए थे, ठीक से मुस्कराए थे और फिर चुप हो गए थे। तब तो यही लाइफ अच्छी थी न। मगर लाइफ अच्छी होती है, क्योंकि इसमें वैरायटी होती है, कभी खुशी तो कभी कोई सबक चुपके से आ जाता है। तो फिर शिकायत कैसी। उस बंदे के दिखावा का तुम्हें पता चल गया, ये कुछ कम है क्या। अब सांस भरो और खुद से फुसफुसाकर कहो, आई लव लाइफ। कुछ लोगों को इसमें ऑल इज वेल की टोन सुनाई दे सकती है, तो प्यारों मंतर तो दुनिया का एक ही है, कि स्ट्रॉन्ग इमोशन में बहने से पहले खुद को कुछ वक्त दो, कुछ ठहरो, ताकि झाग थम जाए और असली सतह और रंग नजर आएं।

आजकल बहुत बिजी रहता हूं। तो आशिमा को ये सब समझाकर चैट बॉक्स बंद कर दिया। फिर घर को देखने लगा। नया घर है। दिल्ली गया था तो चंपू जी और दूसरे दोस्तों ने मिलकर सामान तो शिफ्ट कर दिया, मगर अभी सेट नहीं किया था। हर कमरे में बस सामान का ही ढेर लगा था। अचानक से लगने लगा कि कब तक यूं ही अकेले सामान, अकेली दीवारों के साथ किसी की चैट, किसी के फोन या मैसेज का इंतजार करता रहूंगा। कब तक सन्नाटे के शोर में गुमसुम खड़ा रहूंगा। यही सोचते-सोचते लाइट ऑन किए ही सो गया। सुबह उठा, तो पहले कुछ घंटे आलस में ही बीते। फिर लगा कि जैसे किसी ने फुसफुसाकर कहा, यू तो लव लाइफ न। उठ गया। अगले एक घंटे में ड्राइंग रूम सेट हो चुका था। बिल्कुल वैसा ही जैसा किसी अच्छे बच्चे का होना चाहिए। क्रॉकरी, शो पीस, वाइन ग्लासेज, टैडी, स्टोन्स, भगवान जी, सब लोग अपनी अपनी अपनी जगह पर फिटफाट। फिर कुशन भी सेट कर दिए। तीन कमरों में कम से कम एक कमरा तो जिंदगी की रौनक से भर दिया आज। अगले कुछ दिनों में बाकी कमरों में भी हरारत लाने की कोशिश करूंगा। आज ऑफिस आते टाइम पलटकर अपना ड्राइंगरूम देखा और खुद से कहा, आई लव लाइफ। आप भी इस मंतर को ट्राई कर सकते हैं, आखिर जिंदगी के सबकों पर किसी का कॉपीराइट तो है नहीं। हैव ए ग्रेट वीक चंडीगढ़

गुरुवार, जुलाई 29, 2010

तुम जाना और आंसुओं पर चिपकी बारूद का हाल सुनाना

सब कहते हैं कि खुशी खिलखिलाहट लाती है, मैं नहीं मानता, कम से कम आज सुबह के बाद तो कतई नहीं। सुबह एक मीटिंग के लिए जा रहा था। उससे ठीक पहले अपना फोन चेक किया और फिर आंखों में आंसू आने लगे। मेरी सबसे अच्छी दोस्त और सबसे बड़ी दुश्मन (काम में कमियां निकालने के मामले में) का मैसेज था। उसने जेएनयू का एमफिल एंट्रेंस एग्जाम क्लीयर कर लिया था। पिछले एक हफ्ते से ऑफिस में हूं या घर में, बार बार जेएनयू की साइट खोलता, उसका रोल नंबर एंटर करता और फिर वही पेज, सेलेक्टेड इन रिटेन, इंटरव्यू इस डेट को। उस पेज का एक-एक फॉन्ट, कलर और डिजाइन याद हो गया था। मगर रिजल्ट जब पता चला तो किसी और से। सबसे पहले फोन किया, बधाई दी और फिर आंखें गीली होने लगीं। हम दोनों की। ज्यादा बात नहीं कर पाया, तो फोन रख दिया।
तो ऐसा क्या है, जो किसी की कामयाबी हंसाने के पहले रुलाती है। दरअसल इस एक लड़की की बात करूं तो चार साल से आंखों के सामने एक कहानी बनते-बुनते देख रहा हूं। जब दिल्ली में मुलाकात हुई थी, तो ये एक ऐसी लड़की थी, जो जोखिम से बहुत प्यार करती थी। जो पहाड़ी झरने की तरह थी, तेज-कुछ बेतरतीब और आवाज करती। मगर ये आवाज बहुत गौर करने पर ही सुनाई देती थी। फिर उसने नौकरी करने का फैसला किया। एक साल बीतते न बीतते उसका पुराना सपना कुलबुलाने लगा। उसे फिल्म स्टार्स के इंटरव्यू, दिल्ली की पेज थ्री पार्टियां और फैशन शो से बोरियत होने लगी। वो हमेशा से वॉर एरिया में काम करना चाहती थी। पापा आर्मी में हैं, शायद इसलिए ये चाह पैदा हो गई हो, मैंने शुरुआत में सोचा था। फिर जॉब के दौरान ही छुट्टी लेकर पढऩा शुरू किया और जेएनयू में इंटरनेशनल रिलेशंस में एमए का एंट्रेस क्लीयर कर लिया। यहां भी उसका झुकाव वैस्ट एशिया, खासतौर पर इस्राइल की तरफ रहा। उसके नॉवेल, उसकी मूवीज, उसके डिस्कशन और उसकी आदतें, सब कुछ इसी सपने के इर्द-गिर्द पनपती थीं।
आखिर क्या करेगी ये लड़की उन इलाकों में जाकर, जहां कोयल की कूक से ज्यादा आवाज बारूद की सुनाई देती है। जहां लड़ाई लाइफ का एक जरूरी हिस्सा है। मैं इतना तो दावे के साथ कह सकता हूं कि वो उस रेगिस्तान, उस बारूद से जिंदगी खींचकर लाएगी। वो हमें उन सूखे आंसुओं की कहानियां सुनाएगी, जिनके ऊपर रेत और धुंआ जम गया है। वो बुर्के और बैरल के पीछे से झांकती आंखों और उंगलियों की कहानी सुनाएगी। मुझे याद नहीं पड़ता कि इंडिया की ऐसी कितनी रिपोर्टर या रिसर्चर हैं, जो लड़ाई के दिनों में नहीं, बल्कि उन दिनों में जब लड़ाई रुटीन हो जाती है, हमें वहां की धमक सुनाती हों। मेरी दोस्त ने वादा किया है कि वो ऐसा ही करेगी।
फिलहाल वैेस्ट एशिया स्टडीज के सेंटर में एडमिशन के बाद उसका मिशन है इस्राइल जाने का। मैं कभी-कभी धमकाता और समझाता हूं, कि अगर इस्राइल का ठप्पा लग गया पासपोर्ट पर, तो बाकी सारी अरब कंट्रीज को सिर्फ नक्शे पर देखकर ही काम चलाना पड़ेगा। बताया था किसी जानकार ने, तो अपनी जानकारी उड़ेल रहा था उसके सामने। उसने बेफिक्री में कंधे उचकाए और अपनी बहुत बड़ी आंखों को कुछ समेटते हुए बोली, फिलहाल तो एक ही सपने को जी रही हूं और उसमें कोई रंग नहीं छूटने दूंगी। मैं जानता हूं कि जिंदगी इस्राइल या अफ्रीका के किसी देश में ठहर उसका इंतजार कर रही है। मैं जानता हूं कि कुछ कोरे कागज उसकी उंगलियों में थमी स्याही का इंतजार कर रहे हैं, कि कोई आए, कोई जो सैनिकों सा बहादुर और मां सा करुण हो और दुनिया के सबसे संभावनाशील देश में रहने वालों को हमारी कहानी सुनाए। कि हमारी कहानी सिर्फ एक कॉलम में ब्लास्ट की खबर और उसमें मरने वालों की गिनती बनकर न रह जाए।
इस सपने की सचाई के दरम्यान कुछ मुश्किलें भी आएंगी। सोसाइटी की मुश्किलें, लड़की होकर लड़ाई के मैदान में क्या काम, उसके अपने आलस की मुश्किलें, जिसे दूर करने में कभी फाइट तो कभी कॉफी का सहारा लेना पड़ता है। मगर जब भी इन मुश्किलों के बारे में सोचता हूं, उसकी आंखें याद आ जाती हैं। काजल के बांध से बंधी आंखें, जिनमें सपने सजे हुए हैं। सपने, जो आपको सोने नहीं देते। आज मैं बहुत खुश हूं, क्योंकि आज कोई बेटी, कोई दोस्त, कोई बाप, कोई मां बहुत खुश है और ये सब मेरे अपने हैं।

शुक्रवार, जुलाई 23, 2010

लड़की की चीख, उड़ता लड़का और सांप

सबकुछ तेजी से हो रहा है। जमीन पर अजीब सी कैक्टस उग आई है, वैसी ही कुछ, जैसी मोरनी हिल्स के टॉप पर देखी थी। फिर चितकबरे से लिजलिजे से सांप, जिनसे बचकर भागने की कोशिश। और फिर अचानक उडऩे लगता हूं। ऊंचा बस्तियों के ऊपर से निकलता, सीली हवा को महसूस करता और कभी नीचे आता, तो कभी ऊपर जाता, मगर लगातार भागता।
फिर एकदम से नींद खुलती है, तो देखता हूं कि लैपी के चार्जर की नीली रोशनी के अलावा और कुछ भी नहीं टिमटिमा रहा। हाथ टटोलने पर बोतल नहीं मिलती। कूलर के शोर को चीरती एक आवाज सुनाई देती है। अब नींद कोसों दूर चली गई। जागता हूं तो वो आवाज तेज होती है। सामने के किसी घर से आती घुटी सी चीख। किसी लड़की की या शायद बच्ची की। अंधेरा और सील जाता है।
टाइम हुआ है 2.45 का। उठकर पानी पिया, मगर फ्रिज का ठंडा पानी कोई कितना गटक सकता है। फिर आकर चटाई पर पसर गया। कल क्या क्या काम करने हैं, मां से काफी दिनों से बात नहीं हुई, आगे क्या होने वाला है लाइफ में, सब कुछ कितनी तेजी से हो रहा है न, घर शिफ्ट करना है और ऐसे ही तमाम बुलबुले सेकंडों में टूटकर बिखर जाते हैं और फिर आता है वो ख्याल।
कितने सालों से देख रहा हूं ये सपना। भागता हूं और फिर उडऩे लगता हूं। लगता है कि लपककर मां के पास जाऊं और कहूं देख मां मैं उड़ रहा हूं। सबसे तेज। फिर एकदम से याद आता है कि ऐसी हर उड़ान के पहले सांप दिखाई देते हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि नेवला देखना शुभ है। मैं मजाक में कहता था मैं नेवला हूं। पता नहीं क्यों सांप को देखकर बदन में अजीब सी झुरझुरी दौडऩे लगती है। बस लगता है कि जो कुछ सामने है उससे मार डालो। कभी चप्पल, तो कभी झाड़ू और कभी डंडा से तमाम सांप मार चुका हूं। फिर सांप मर जाता है और मैं सोचता हूं कि ये सांप को देखकर ही ऐसा क्यों होता है।
कूलर का शोर ज्यादा लगता है तो उसे ऑफ कर देता हूं, अब पानी कुछ ठीक हो गया हो शायद, ये सोच फिर चार बूंद गटकता हूं। सांप और सपना, सपना और उड़ान। आखिर कहां रुकेगा ये सब। कितनी बार कितने लोगों से पूछा कि इन सबका कुछ मतलब है क्या। सबने अपने अपने जवाब दिए। मगर सवालों के जवाब नहीं होते, जो होते हैं वे जवाब का भरम देते कुछ छुपे सवाल होते हैं।
आज कितने दिनों बाद तुम वोसब पढ़ रहे हो, जो हमेशा से लिखना चाहता था। मकान की चिखचिख, रोजमर्रा की लाइफ और इन सबसे परे बसा सच। सीली रातों और तपती दोपहरों की कहानी। अच्छा ये सोचो कि जो लड़की चीख रही थी, उसकी क्या कहानी रही होगी। क्या वो भी अपने सपनों में कुछ देखती होगी। जब छोटा था, तब कुछ ड्रीम एनैलिस्ट का नाम अपनी डायरी में लिख रखा था। सोचा था बड़ा होकर ऐसा ही कुछ करूंगा। क्या किया, उसका तो नहीं पता, मगर सपने इधर जरूर कुछ कम हो गए थे। लोग कहते हैं कि सपनों के बिना नींद अच्छी होती है, मगर मैं हर रात इस लालच में सोता था कि आज कुछ नया देखेंगे और भरपूर कोशिश करेंगे कि याद रखें। कई बार सपने का वो गुदगुदाता सिरा बस हाथ में आते आते रह जाता।
अब नींद आती नहीं है, लानी पड़ती है, सांप और उड़ान कहीं दूर चले गए हैं, एक रात है, जिसके सिरे की तलाश जारी है।

बुधवार, जुलाई 07, 2010

लोगों के घर में रहता हूं कब मेरा अपना घर होगा

रुकिए और एक बार फिर से हेडिंग पढि़ए। बड़ी पुरानी गजल है, दिमाग में पता नहीं कब अटक गई और अब तो चौबीसों घंटे यही लाइन नगाड़े बजा रही है। मेरे मकान मालिक ने नोटिस दे दिया। घर खाली कर दो, महीने के आखिरी तक। दुबई से उनकी बेटी अपनी फैमिली के साथ रिसेशन की वजह से वापस लौट रही है। जब मैंने अपने फ्लैटमेट मंकू जी को सुबह सवेरे ये खबर सुनाई कि घर खाली करना है, तो उनका चेहरे हारे हुए जुआरी जैसा दिख रहा था, जिसके पास अब जुए के अड्डे तक जाने के भी पैसे न बचे हों।
कितना कुछ था इस हफ्ते आपको बताने के लिए। रेनू आंटी और बेस्ट फ्रेंड गुंजन के साथ पटियाला गया था। भाभी की शादी के लिए शॉपिंग करने। उनके लिए फुलकारी वाली साड़ी, सूट और परांदा खरीदा। फिर उसके बाद सनावर हिल्स की ट्रिप की खबर देनी थी। मेरा दोस्त विक्रम ले गया, बारिश से भीगी पहाड़ी के टॉप पर। वहां पर बैठकर वॉटर फॉल के लिए मजे लिए। नहीं-नहीं पहाड़ी की चोटी पर कोई फॉल नहीं था, ये तो फ्रूट वाइन का नाम है। इसके अलावा एक पुराने दोस्त और फिल्म डायरेक्टर अनुराग कश्यप से लंबी गुफ्तगू हुई। मैंने उससे मजाक किया कि मेरी शादी हो रही है और तुम्हें जरूर आना है, सेंटी हो गया, बोला चाहे शूट रोकना पड़े आऊंगा। दोस्त भी ऐसी ही होते हैं न। वैसे उसने डांट भी खूब खाई। कम्बख्त छह महीने से सीन से गायब था।
मगर नहीं आज न तो डिटेल में पटियाला की कहानी सुनाऊंगा, न सनावर हिल्स की और न ही अनुराग की। आज कहानी उस दुखड़े की, जो मेरे जैसे हजारों बैचलर फेस कर रहे हैं, ठौर-ठिकाने की प्रॉब्लम। जब शहर आया था, तो दो बैग थे। फिर रेनू आंटी, वीरेंदर अंकल की मदद से घर जमाया। अमिताभ बच्चन की तरह कहने का दिल करता था कि आज मेरे पास फ्रिज है, कूलर है, किताबों और डीवीडी से भरी रैक हैं, जमा-जमाया किचेन है, तुम्हारे पास क्या है। मगर अब लगता है कि ठीक ही रहा किसी छड़े से ये नहीं कहा। सब कुछ है, मगर अब घर नहीं है। अंकल, आन्टी ने तो अपनी मजबूरी बता दी, बुजुर्ग हैं तो कुछ कह भी नहीं सकता, मगर मैं अपना गम कहां गलत करूं।
तो यारों पिछले कुछ दिनों से हम नए सिरे से घर तलाश रहे हैं। इस बार मकान लेने से पहले कुछ बातें भी साफ कर लेनी होंगी। इस मकान में जैसे ही दोस्त आते थे और उनमें लड़कियां भी होती थीं, तुरंत मकान मालिक आ जाते थे। तुम्हारी मम्मी आई हैं क्या, ये कौन हैं, अच्छा क्या काम करते हैं। फिर एक दिन मंकू जी से कहा, हमने पहले ही मना किया था कि लड़की नहीं आएगी। ऐसे साउंड करता था, जैसे कोई बहुत गलत काम कर दिया हो दोस्तों को बुलाकर। फिर अंकल आंटी ड्राइंग रूम में बिठाते और कहते, तुम तो हमारे लिए बेटे जैसे हो, हमें पूरा भरोसा है, मगर यहां मोहल्ले के लोग बातें बना सकते हैं, वगैरह-वगैरह। मैंने कह दिया कि समाज ने तो भगवान राम को भी नहीं छोड़ा और आ गया। खैर उसके बाद ये मुद्दा नहीं उठा क्योंकि फिर लड़कियां नहीं आईं। सब बस कहती ही रह गईं कि हाउस वॉर्मिंग पार्टी नहीं दी। अब क्या बताएंगे कि उनके नाम से ही घर में ग्लोबल वार्मिंग का असर दिखने लगता है।
अंकल आंटी बुजुर्ग थे, तो ज्यादा तेज आवाज में बात भी नहीं कर सकते थे। खैर, इसमें तो उनकी कोई गलती नहीं, हमें पहले ही इन सब बातों के बारे में सोच लेना चाहिए था। घर में खुला आंगन था और ग्राउंड फ्लोर था, तो लगा घर सही रहेगा। मगर अब घर किसी भी फ्लोर पर चलेगा। बस ये किसी के साथ शेयरिंग में नहीं होना चाहिए।

जब यहां शिफ्ट हुआ तो कई लोगों ने कहा कि अकेले हो, जमा-जमाया कमरा ले लो, फ्लैट के चक्कर में क्यों पड़े हो। सबने ये भी कहा कि छड़ों के साथ ये दिक्कतें आती ही हैं। मगर जिद थी और अभी भी कायम है कि फ्लैट ही लेंगे और फिर से सब नए सिरे से सेट करेंगे। बस यही दुआ करिए कि इस बार जल्दी खाली करने का नोटिस न देना पड़े और अपने सब दोस्तों को घर पर बुलाकर पार्टी दे सकूं। इन दोस्तों में लड़कियां भी शामिल हो सकें। तब तक मेरे लिए दुआ करिए कि एक छत मिल जाए, महीना खत्म होने से पहले। इस शहर की आंखों में ये एक सपना रोप रहा हूं, देखें सच होता है कि नहीं।
from my column, sahar aur sapna, the story of a bachelor in chandigarh, published in dainik bhaskar, city life

मंगलवार, जुलाई 06, 2010

तुम्हारे लिए

खिलखिलाते हुए हाथ से ढापकर सफेद रंग, सबसे बड़ा झूठ बोला औरत ने,
पनियाई सी हवा के रंग की थी तब तक दुनिया

उसके ब्लाउज के किनारे जम गया था उतरती धूप के साथ कुछ नमक
सफेद रंग ने ठीक उसी वक्त खोली थीं आखें

और फिर एक वक्त तुम डर गई थीं अपनी ही परछाईं से एक साथ
आंखों में भरा और फिर छलक उठा था रंग काला
परछाई के डर से पैदा हुई रात भी बालों से लिपट काली हो गई

नमी को सहलाने के लिए तुमने बढ़ाया हाथ
तुम्हारी बांह के नीचे फूट रहे थे भूरे हरे से अंखुए
कुलबुलाती हुई उस खोह से निकला आंच में पका हरा रंग
और निकलते ही हवा में गुम गया
पत्तियां निकली थीं शाम को घूमने
लौटते में उस हरे रंग का दुशाला ओढे पीहर चली गईं
पत्तियां हरी होती हैं तुमने कहा कुछ ठहरकर ओस से

और फिर तुमने कहा प्यार
वो शर्माकर भागने लगा इस खुले निमंत्रण से
तुम झुकीं और उसे होठों से टटोल राहत देने लगीं
लजाते, थरथराते प्यार का सहारा बने होंठ लाल हो गए

मगर एक और लाल था, जिसे तुमने छुपाना चाहा,
जिसे तुमसे भी ज्यादा कुछ पल पहले शरमाते प्यार ने छिपाना चाहा,
ठोस पहाड़ों की जांघों से बह निकली जब धार
तो लाल रंग कुछ गाढ़ा होने लगा,


किनारे आ लगे थे हम
और फिर उस धार को ढांपते
कभी नमक की ढेलियों तो कभी पत्तियों से

रंग नहीं हैं दुनिया में अब मरदों
औरतों ने तुमसे झूठ बोला है

सौरभ द्विवेदी
18 फरवरी 2010

रविवार, जुलाई 04, 2010

अनुराग कश्यप का सदियों पुराना कोट

कार में तकरीबन छह आठ लोग थे। आगे वाली सीट पर अपने सदियों पुराने क्रीम कलर के कॉड्राय कोट में अनुराग, पीछे कुछ असिस्टेंट और मैं। बात हो रही थी नो स्मोकिंग की। किसी ने कह दिया कि फलाने साहब कह रहे थे कि अनुराग कश्यप की फिल्में हमारे समय से 20 साल आगे की हैं, अनुराग ने हमारी तरफ मुड़कर कहा, नहीं समय मुझसे 20 साल पीछे चल रहा है, तो मैं क्या करूं। उस वक्त उनकी आंखों में अहंकार नहीं था, भदेस लहजा जरूर था और वो मुंबई में रहकर और सब कुछ गंवाने की हद तक जाकर पक्का होने से हुआ था।
यहां पर अनुराग को लेकर तमाम फतवे दिए जा रहे हैं। अच्छी बात है मोहल्ले में चोंपों न हो, तो पॉश कॉलोनी लगने लगती है। मैं सिर्फ अपनी बात कहना चाहता हूं।
कितने लोगों को पता है कि पांच के रिलीज न होने, ब्लैक फ्राइडे पर कोर्ट केस चलने और ऐसी ही तमाम वजहों की वजह से अनुराग की निजी जिंदगी की गांड़ लग गई थी। कितने लोगों को वो दिन और रातें याद हैं, जब अनुराग की पत्नी आरती काम करती थीं और अनुराग फ्लैट में शराब के साथ अपनी इस थोपी गई नाकामी को एकटक घूरते रहते थे। और फिर वो रात जब इसी सबके बीच उन्होंने नो स्मोकिंग का पहला ड्राफ्ट लिखा और बहुत सारे लोगों को मदद का मैसेज करके सो गए। जवाब दिया सिर्फ मैचो लुक और गंभीरता से परे रखकर देखे जाने वाले जॉन अब्राहम ने।
नो स्मोकिंग को लेकर हिंदी सिनेमा में बात होगी, मगर मुझे फिल्म से ज्यादा अनुराग की तकलीफ पर बात करनी है। बहनापा महसूस करता हूं। भाईचारा नहीं क्योंकि उसमें वो आत्मीयता नहीं। आत्मीयता कम से कम मैं औरतों के रूप में ही जी पाता हूं। बहरहाल जॉन ने जवाब दिया और फिल्म बनी। जब बाबा बंगाली के रोल के लिए पंकज कपूर से कहा गया, तो उनका जवाब था कि मुझे लगता है कि चीजों को दूसरे ढंग से भी, कहा जा सकता है। मगर अनुराग की जिद थी कि वो दूसरों के सपनों को नहीं जिएंगे। वर्ना अनुराग कश्यप की रिलायंस और अभिषेक बच्चन और मणि रत्नम से कोई दुश्मनी नहीं। न ही करण जौहर से। पहले झगड़ा हुआ झूम बराबर झूम की स्क्रिप्ट को लेकर। फिर गुरु की स्क्रिप्ट को लेकर। धीरू भाई ने जबरदस्ती अनुराग का खेत नहीं जोत लिया था। अनुराग बदलाव के खिलाफ थे, क्योंकि वो ईमानदारी से काम करना चाहते थे। तब मोहल्ले पैदा नहीं हुए थे और वहां बसर करने वाले नींद में थे।
ये सब हुआ और अनुराग को दलितों की तरह हाशिए पर डाल दिया गया। तो भइया दलित पर कौन बात करे और कैसे बात करे ये मुंबई के एक दलित को भी तय करने का हक है न।
नो स्मोकिंग के बाद अनुराग को हेल्थ मिनिस्ट्री ने अवॉर्ड दिया कि साहब आप बहुत महान हैं, कि आपने सिगरेट के खिलाफ फिलिम बनाई। अनुराग के चेहरे पर ट्रैजिक कॉमेडी के नायक के आखिरी शॉट वाले भाव थे। फिल्म सिगरेट के खिलाफ नहीं थी, फिल्म तो समाज की नैतिकता के जाल को तार तार कर रही थी। भयानक फंडू फिल्म है ये, मेरे आईआईटी में पढ़ रहे एक दोस्त ने कहा। और फिर हम दोबारा फिल्म से जूझने लगे।
जेएनयू में स्क्रीनिंग के दौरान अनुराग से पहली बार मिला। अगली सुबह हैबिटाट में मिला। उस आदमी ने खुद को उघाड़कर रख दिया। और हां इस वक्त भी वो वही सदियों पुराना कोट पहने थे। कितने स्टार और नॉन स्टार बचपन में हुए हादसों के बारे में बात करते हैं। कितने बताते हैं कि मेरे चाचा, मामा ने मुझे यहां सहलाया। क्या करें मैचो मर्द बनने की मार ही इतनी पड़ी है कि ये सब बताया नहीं जाता। मगर ये शख्स बोलता है बिना इस बात की परवाह किए कि यहां बोलना है, मगर सोच की शालीन तुरही पर अलापे राग की तरह।
नो स्मोकिंग फ्लॉप हुई थी, मगर अनुराग नहीं। फिर दिल्ली में देव डी की लोकेशन ढूंढ़ते वक्त भी बार बार बात हुई सिनेमा पर, समाज पर और तमाम चीजों पर। शाम को हम प्रगति मैदान भी गए। इस दौरान वह बार बार हिंदी में नई लिखी जा रही चीजों के बारे में जानकारी जुटाते रहे। जब मैदान से निकले तो उनके पास किताबों के तकरीबन 50 किलो के पैकेट होंगे। इसमें अरविंद कुमार का हिंदी कोष भी थी, दलित साहित्य भी और उदय प्रकाश भी। साथ में थे सुरेंद्र मोहन पाठक और अंग्रेजी में इसी तर्ज पर लिखे जा रहे कुछ नॉवेल। यही है अनुराग का पूरा सच। यहां शिंबोर्स्का के साथ पाठक और उदय के साथ निर्मल वर्मा को पढ़ा जाता है। और हां इस सबके के लिए रैक में अलग जगहें नहीं हैं। सब एक साथ ठुंसा हुआ है।
फिर अनुराग देव डी बनाने में जुट गए। फिल्म में मसरूफ थे, मगर उनकी बेटी आलिया की एक दिन की छुट्टी हुई, तो खुद उसे लेने मुंबई गए। आलिया आरती के पास रहती थी, मगर एक बाप के नाते उन्हें भी कुछ वक्त मिलता था। फिल्म के सेट के बाहर अनुराग ने हजारों सिगरेंटे फूंकी, बहस की, लाइट ठीक की और तमाम किरदारों को एक्टर्स से ज्यादा जिया। खैर इसमें कोई बहादुरी नहीं, हर डायरेक्टर ऐसा ही करता है, मगर मुझे शूटिंग की उन तमाम रातों और दिनों में यही लगा कि ये आदमी हारा और हताश नहीं है। कि अभी भी खिड़की से झांकते चेहरों में इसे जिंदगी नजर आती है।
ज्यादा तो नहीं जानता, मगर इतना जानता हूं कि अनुराग के यहां हिंदी और अंग्रेजी का फर्क भी नहीं है। पत्रकारों से पूछ लीजिए, जो टेक्स्ट मैसेज और ईमेल करके थक जाते हैं, मगर स्टार लोगों के जवाब नहीं आते। अनुराग इसके उलट लगे। इस फेहरिस्त में सुधीर मिश्रा, अंजुम राजाबाली और पीयूष भाई जैसे नाम भी शामिल किए जा सकते हैं। इन सबका भी यही कहना है कि सांड है ये आदमी। परवाह नहीं करता। अभी नई फिल्म दैट गर्ल इन येलो बूट्स की बात ही करें। सुधीर ने कहा कि उसने रशेज दिखाएं हैं, लाजवाब मूवी है, मगर दुनिया कमीनी है, वो पगले उत्साही बच्चे की तरह सबको फुटेज दिखा रहा है, ऐसा नहीं करना चाहिए।
मगर अनुराग ऐसा कर रहे हैं। किसी को देवता लगे या दानव, मगर दो दो फिल्मों की एडिटिंग और तीन शिफ्ट में काम करने के बावजूद वो मोहल्ले में चहलकदमी कर रहे हैं, हां उनका वो कोट नजर नहीं आ रहा।
दोस्तों कोट बदला है, जिस्म नहीं। और इसके अंदर वही पगलाया सांड रहता है, जिसे खेत से खदेड़ दिया गया, जिसे चौराहे पर बैठने के अलावा कहीं ठौर नहीं मिला और अब जब तमाम कारों के, ख्यालों के रास्ते रुक रहे हैं, तो कोई हॉर्न बजा रहा है, कोई पुलिस को बुला रहा है और कोई ओह गॉड इतना भी सिविक सेंस नहीं बोल रहा है, तब यही सांड़ पूरी बेशर्मी और ईमानदारी के साथ, आंखें लाल किए पगुरा रहा है।
अनुराग तुम्हारी भाषा से मुझे कोफ्त होती है। क्योंकि हम सब शालीनता का कंडोम चढ़ाए सेफ वैचारिक सेक्स की तमन्ना लिए बैठे हैं खुद को सहलाते।

बुधवार, जून 30, 2010

ख्यालों की लड़ाई और मेरी रुलाई

घर पहुंचा, दादा तो स्टेशन पर ही आ गए थे। पहुंचने से पहले ही फोन पर जिद शुरू हो गई थी। एसी गाडी़ लेकर आना, गर्मी बहुत है। दादा बोले ठीक है। घर पहुंचा तो मां ने दरवाजा खोला। मुड़ी सी सूती साड़ी, कुछ थकी मगर आंखों में इंतजार और खुशी भरे हुए मां। पापा भी जैसे इंतजार कर रहे थे, मगर उनकी आंखें हमेशा की तरह शांत थीं, भावों को कहीं गहरे छुपाए। शाम ढले पापा ने अपनी बीमारी और लापरवाही के बाबत बात करनी चाही, मगर मैंने उन्हें रोक दिया और कहा कि कल सुबह डिटेल में बात होगी। वैसे पापा बेहतर लग रहे थे। अगले दिन सुबह उनकी गॉल ब्लैडर के स्टोन की दवाई बनानी शुरू की। रेनू आन्टी से इंस्ट्रक्शन लेता जा रहा था और बनाता जा रहा था। शाम को डॉक्टर के यहां गया, तो पापा के बोलने के पहले ही मैंने अपनी कहानी शुरू कर दी। ये अपनी सेहत का ध्यान नहीं रखते हैं। चंडीगढ़ पीजीआई में पापा का चेकअप करवाना चाहता हूं, आपकी क्या सलाह है। डॉक्टर बोले कि पहले सारे टेस्ट दोबारा करवा लेते हैं, फिर बात करेंगे। पापा ने फीस के लिए वॉलेट निकाला, मगर मैंने उन्हें रोक दिया और पैसे दिए। अच्छा लगा। लगा कि अब पापा की देखभाल के कुछ लायक हो गया हूं।
अगले दिन रिपोर्ट लेने गया तो कुछ डरा हुआ था, मगर सब नॉर्मल रहा। खुद डॉक्टर भी आश्चर्य में थे कि इतनी जल्दी इतनी ज्यादा रिकवरी कैसे हो गई। इसके बाद शुरू हुआ दूसरा मिशन, दादा की शादी फिक्स करने का। ये एक पुराने और नींद में गुम चुके सपने के सच होने जैसा है। दादा ग्रेजुएशन में थे और उनके साथ एक लड़की पढ़ती थी अक्षरा। दादा को बहुत पसंद थी और उनका दावा था कि अक्षरा भी उन्हें पसंद करती है। फिर काम की आपाधापी और रूमानी सपनों के सच न होने के एहसास तले ये छोटी सी लव स्टोरी खत्म हो गई। मगर पिछले कुछ महीनों में दादा और अक्षरा फिर से एक दूसरे के टच में आ गए थे। अक्षरा के पापा को दादा के बारे में पता चला और उन्होंने तमाम दरियाफ्त कर ली। अक्षरा के जरिए ही अंकल को मेरे बारे में भी पता चला, दादा के लाडले कल्लू के बारे में। घर बाद में पहुंचा, अक्षरा के घर का न्योता पहले आ चुका था।
उस शाम ढाई घंटे कैसे बीते पता ही नहीं चला। तमाम मसलों पर बात हुई। अंकल के दो-तीन रिजर्वेशन थे। पहला, हमारी पॉलिटिकल फैमिली है, मगर वो बहुत बड़ी बारात अफोर्ड नहीं कर सकते। उनके जेहन में ताऊ जी के बेटे यानी हमारे सबसे बड़े भाई की बारात की याद ताजा थी। पापा का पॉलिटिकल करियर पीक पर था और तकरीबन चार हजार कार्ड बांटे गए थे। बारात में हाथी, घोड़े और चार बैंड थे। ये बात और है कि हम भाई मई की गर्मी में भी देर तक भांगड़ा और नागिन डांस करते रहे और जब तक खाने पहुंचे, उसकी टैं बोल गई थी। खैर मैंने अंकल से कहा कि अगर मन मिले तो हर प्रॉब्लम सॉल्व हो जाती है। बारात ज्यादा बड़ी नहीं होगी। हम अपने व्यवहारियों को तिलक में भी निपटा लेंगे। फिर दूसरी प्रॉब्लम आई कि आप लोगों की डिमांड क्या है। मैंने सबसे कहा कि मैं अगले पांच मिनट तक जो भी बोलूंगा वो मेरे पर्सनल ख्याल हैं। फिर मैंने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों होता है कि हमारे इलाकों में लड़की के पिता की झुकते झुकते रीढ़
की हड्डी मुड़ जाती है। कि लड़की के घरवाले दयनीयता की छांह तले घिरे नजर आते हैं। कि लड़की के साथ एक भारी भरकम रकम भी विदा करनी पड़ती है, कभी प्रस्टीज के नाम पर, कभी डिमांड के नाम पर तो कभी संकल्प के नाम पर। मैंने अंकल को बताया कि आपकी लड़की काबिल है, पीएचडी कर रही है, सुंदर है और सबसे बड़ी बात कि दादा और अक्षरा एक दूसरे को पसंद करते हैं, इससे बड़ा दहेज और क्या होगा। फिर आखिरी में ये भी कहा कि मेरे माता पिता की कोई डिमांड नहीं है। फिर मैंने अपनी भी एक शर्त रखी। मैंने कहा कि अंकल इसे रिक्वेस्ट ही समझिएगा, बस इतना चाहता हूं कि बारात की आवाभगत अच्छे से हो। मेरे दिल्ली और चंडीगढ़ से बहुत सारे दोस्त आएंगे। उनके लिए पनीर-पूड़ी जैसा टिपिकल इंतजाम न हो, बल्कि खालिस बुंदेलखंडी खाना खिलाया जाए। अंकल बोले, बिल्कुल जैसा आप चाहें। फिर चलते टाइम अक्षरा से मिला, पूरे सात साल बाद। मन खुश हो गया। मां ने बचपन से सिखाया और हमने माना भी कि भाभी मां का दूसरा रूप होती है। घर के नए मेंबर को देखने की खुशी बयान नहीं कर सकता।
घर वापस आया और मां और दादा को सब डिटेल में बताया। अब अगला मोर्चा था पापा को इन सारे डिवेलपमेंट के बारे में बताना। ये काम मां ने बखूबी किया।
इस बीच मेरी और पापा की नोंक-झोंक चलती रही। केबल कनेक्शन लगवाया, तो पहले तो मां बोली इसकी क्या जरूरत थी, फिर पापा-मम्मी चैनल को लेकर चर्चा करते रहते कि ये सीरियल सही लग रहा है और ये धार्मिक चैनल ज्यादा अच्छा है। काफी वक्त बीता उन्हें रिमोट की बारीकियां समझाने में। पापा को डायबिटीज भी है और कई बार उनकी चीनी खाने की इच्छा हुई, मगर छोटे बेटे के गुस्से के सामने उन्होंने हिम्मत नहीं की। अच्छा लगा कि जिन पापा से बचपन में नजरें नहीं मिला पाते थे, वही अब हमारी केयर की इतनी केयर कर रहे हैं।
जिस दिन वापस आना था, उसी दिन अक्षरा के पापा मिलने आए। पापा और अंकल एक दूसरे के पुराने परिचित थे। सब कुछ फाइनल हो गया और फिर वो हुआ, जिसका मुझे डर था। अंकल पूछ बैठे कि हम बेटी को गाड़ी गिफ्ट करना चाहते हैं, आपकी चॉइस क्या है। फिर मां ने भी पूछ लिया कि आपने क्या सोचा है। वो बताने लगे और मेरा गुस्सा बढऩे लगा। मुझे लगा कि मां को नहीं पूछना चाहिए थे। घर पर इस बात को लेकर मां से पहले भी बहुत बहस हुई है। मां कह भी चुकी हैं कि तुम्हारी शादी में जाति और दहेज जैसी कोई बात नहीं होगी। पापा तो मां से कई साल पहले कह चुके हैं कि तुम्हारे जो भी अरमान हैं, बड़े बेटे की शादी में पूरे कर लेना, छोटे से कोई उम्मीद मत करना, ये बागी किस्म का है। हां मैं बागी हूं और हर उस चीज के खिलाफ बगावत करूंगा, जो मेरे ख्यालों के उलट है। फिर चाहे वह जाति का शोशा हो या फिर दहेज या लड़की के विवाह के लिए किए गए संकल्प की बतोलेबाजी।
अंकल के जाते ही मैं मां से बहस करने लगा। मां ने कहा कि शादी में दस खर्चे होते हैं, लड़की के लिए चढ़ावा खरीदना, जेवर गढ़वाना और सब रिश्तेदारों की आवाभगत करना, अगर उनके कहने पर मैंने पूछ लिया तो क्या गलत किया। तब तक पापा भी कमरे में आ गए। मां ने उन्हें बता दिया कि मैं किस बात पर बहस कर रहा हूं। पापा ने कहा कि हर बात तुम्हारे डिस्कशन की नहीं होती। मां बोली कि तुम्हारी शादी में इस तरह की बात नहीं करेंगे, बस अब चुप हो जाओ। फिर कुछ बोलता उसके पहले ही पापा ने कहा कि ये घर है, पत्रकार भवन नहीं, और इतना कहकर पूजाघर की तरफ बढ़ गए। मेरे जाने का टाइम हो रहा था, तो मां किचेन में चली गई, मगर मैं वहीं सोफे पर धम्म से बैठ गया। आंखों से लगातार आंसू बहने लगे। फिर जोर जोर से रोने लगा। मेरा दोस्त गौरव छोडऩे आया था, अभी जाने में काफी टाइम था, मगर उससे गुस्से में बोला कि चलो, निकलते हैं। मां ने समझाया कि ऐसे रोकर घर से नहीं जाते
भावुक मत बनो, व्यवहारिक बनो। दादा ने समझाया, मगर मैं सब पर बिगड़ पड़ा। बाहर आया मगर पापा के कोर्ट के कागज छूट गए थे, सो वापस लौट आया। तब तक पापा भी पूजाघर से बाहर आ गए थे। उनके सामने आंखों को छुपाने के लिए गॉगल्स पहन लिए। मगर आंसू नहीं रुक रहे थे। फिर पापा के जोर देने पर नाश्ता करने लगा। पापा बोले, सब तुम्हारे हिसाब से ही होगा, दुखी मत हो। मगर मन नहीं मान रहा था। जेएनयू से पाए संस्कार जोर मार रहे थे। बहुत सारे सवाल थे और एक भी जवाब नहीं।
चलते टाइम पापा के पैर छुए और मां के भी। मां ने कहा, इधर आओ अपने बच्चे को प्यार तो कर लूं। मगर मैं इसे अनसुना कर बाहर चला आया। फिर रास्ते भर मां की याद भी आई और आंसू भी। समझ नहीं आ रहा कि क्या सही है, उनकी व्याहारिकता या मेरे ख्याल। मगर इतना तो तय है कि मेरी शादी में लड़की बिना एक पाई लाए घर आएगी। सबको सच मुबारक, मेरा सच यही है।

गुरुवार, जून 17, 2010

झूठी लड़कियों की लाइफ से कुछ फुट नोट्स

क्यूट बोलते हैं न जिसे, वही दिखती है वो, छोटी सी, प्यारी सी और चहकती सी। आंखों में शरारत भरकर बोलती, कैसे हैं आप? तो शनिवार को जब ऑफिस से घर पहुंचा तो थका था और थोड़ा मायूस भी। एक और वीकएंड आ गया था, जब मेरे पास करने को कुछ नहीं था। दिल्ली में तो पता भी नहीं चलता था कि संडे कब फुर्र हो गया। चेंज किया और लैपटॉप ऑन किया, तभी एक दोस्त का फोन आया, क्या कर रहा है। बैठा हूं, आजा सेक्टर 32 में। फिर क्या अपन ग्लैड होकर स्कूटर पर सवार हुए और पहुंच गए। वहां लड़कियां भी थीं और लड़के भी। लड़कियां कुछ डरी थीं। किसी को हॉस्टल टाइम से जाना था और किसी को घर पर बताना था। फिर उन्हें समझाया कि हम हैं न, टाइम से घर छोड़ देंगे। अभी परेशान मत हो और आराम से खाना फिनिश कर लो। मगर उस क्यूट सी लड़की के चेहरे से चिंता जा ही नहीं रही थी। फिर उसको गौर से देखने लगा। इतनी पवित्र दिख रही थी वो उस वक्त उस डर के साथ भी।
फिर ग्रुप में किसी ने ट्रिक बताई कि कार में जाकर घर फोन करो। शोर नहीं रहेगा उस वक्त। बोल देना घर पहुंच गई। ऐसा ही हुआ और फिर अगले आधे घंटे में सबने आराम से मस्ती मारते हुए डिनर फिनिश किया और अपने-अपने घर गए। मगर मैं वहीं रह गया, अपने सवालों के साथ।
लड़कियों को, उन पवित्र चेहरों को समाज, परिवार, लोग क्या कहेंगे, इन तमाम वजहों की वजह से डरना क्यों पड़ता है। क्यों ये प्यारी लड़कियां झूठी लड़कियों में तब्दील हो जाती हैं।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ। पिछले आठ-दस सालों से देख रहा हूं। दोस्त के साथ कॉफी पीने जाना है, मगर घर पर बोलना पड़ता है कि सहेली के घर जा रही हूं। मूवी डीवीडी खरीदनी है या फिर फॉर ए चेंज पार्लर में कुछ एक्स्ट्रा खर्च करना है, तो घर पर बोलना कि गाइड लेनी है। और और और किसी लड़के से प्यार करना है, उसके साथ जिंदगी बिताने का फैसला करना है, तब भी घर पर झूठ बोलने की मजबूरी। ये लड़कियां मेरे आसपास की, लगातार झूठ बोल रही हैं, घर से और कभी-कभी खुद से भी।
मेरी एक दोस्त लेस्बियन जैसी कुछ है। जैसी कुछ इसलिए क्योंकि वो अपनी सेक्सुअल आइडेंटिटी को लेकर कन्फ्यूज है। वो बहुत-बहुत अच्छी पेंटिंग्स बनाती है और लिखती भी उतना ही अच्छा है। मगर इस फैक्टर को वो अपनी फैमिली के साथ शेयर नहीं कर सकती। एक दोस्त एक लड़के से बहुत प्यार करती है, मगर फैमिली को नहीं बता सकती क्योंकि फैमिली उसके फैसले पर एक सेकंड में सवालिया निशान लगा देगी। ज्यादातर लड़कियां किसी से प्यार करती हैं, किसी का साथ चाहती हैं और ये फैसले उन्होंने सोलह बरस के लड़कपन में आकर नहीं लिए, पूरे होशोहवास में लिए। उन तमाम दोस्तों के फैसलों में मच्योरिटी झलकती है, मगर फिर लगता है कि इस सही फैसले के लिए भी झूठ की आड़ क्यों।
ये अच्छे घर की लड़कियां हैं, हमारे आपके घरों की लड़कियां हैं और ये अपने मां-बाप से बहुत ज्यादा प्यार करती हैं। इन्हें पता कि मां-पापा ने बहुत अरमानों से पढ़ाया है और हमें उनकी मेहनत, उनके विश्वास को कायम रखना है। मगर साथ में ये लड़कियां किसी के साथ जीना चाहती हैं और आगे बढऩा चाहती हैं। ये अपने हिस्से की मस्ती, धूप, छांव में भीगना चाहती हैं। और सबसे बड़ी बात ये अपने हिस्से की गलतियां भी करना चाहती हैं।

मगर हम उनके दोस्त, भाई, बाप, बॉयफ्रेंड, उन्हें ये सब नहीं करने देना चाहते। हमें लगता है कि हम ज्यादा समझदार हैं और हमने दुनिया देखी है। देखी है, तो उन्हें भी उनके हिस्से की दुनिया देखने दें न। लड़कियां गजब की होती हैं, हर पल चौंकाती, हंसाती-रुलाती। मगर वे झूठी नहीं होतीं। उन्हें झूठ बोलना पड़ता है क्योंकि वे बैलेंस बनाने की कोशिश करती हैं, क्योंकि वे परवाह करती हैं, प्यार की भी और परिवार की भी। आपने किसी झूठी लड़की का सच जानने की कोशिश की है क्या?

बुधवार, मई 12, 2010

सबसे मुश्किल काम : रोटी, बाई और काक्रोच

मुझे इस देश का पीएम बनना है और मुझे लगता है कि ये इस देश का ही नहीं बल्कि दुनिया का सबसे मुश्किल काम होगा। मगर मैं गलत हूं। आप भी मेरी बात मान जाएंगे, इस लिस्ट को पढऩे के बाद। मैं पिछले एक महीने से अपना फ्लैट सेट करने की कोशिश कर रहा हूं और इसी दौरान मुझे दुनिया के इन सबसे मुश्किल कामों के बारे में पता चला।

रोटी गोल कैसे होती है
हमारे फ्लैटमेट हैं मंकू जी। उन्हें दस हजार बार समझाया कि रोटी का आटा गीला नहीं करते। मुझे याद है मां भी यही बताती थी। मगर मंकू जी मानते ही नहीं। फिर और आटा डालना पड़ता है। मंकू जी के दोस्त हैं चंपू जी। वो भी आ जाते हैं कई बार रोटी बनते वक्त। रोटी बनाने का काम मेरा है। कभी लोई में आटा ज्यादा लग जाता है, कभी इतना कम कि रोटी बेलते वक्त चिपकने लगती है। और हां गोल, अभी तक बनाई कई सैकड़ा रोटियों में आठ-दस गोलाई पाते-पाते रह गईं। तो रोटी बेलना और वो भी गोल अमेरिका को खोजने जितना महान काम है। मां को कितनी आसानी होती है न इस काम में।

सारी सब्जियों का एक ही फॉम्र्युला
अभी मैं किचेन से बाहर नहीं निकल पाया हूं। मंकू जी सब्जी बनाएं या चंपू जी या फिर मैं, सबका एक ही सुपरहिट फॉम्र्युला है। प्याज, लहसुन, टमाटर और हरी मिर्च काटी। तेल गरम किया, हींग, जीरा डालकर ये सब सामान भूंजा। फिर हल्दी, धनिया पाउडर और गरम मसाला भूना और फिर सब्जी उड़ेल दी। गौर करिए, सब्जी चाहे भिंड़ी हो चाहे करेला, हमारा बनाने का तरीका यही रहता है। दाल में भी तड़का डालना हो तो सब्जी की जगह बस दाल डाल देते हैं। तो मुश्किल काम है सब्जियों के हिसाब से मसालों का कॉम्बिनेशन चेंज करना। हमारे किचेन में भी बहुत सारे मसाले हैं, थैंक्स टु रेनू ऑन्टी, मगर अभी उनके साथ एक्सपेरिमेंट की हिम्मत नहीं जुटा पाए।

कामवाली बाई का बवाल
एक अच्छी टाइम पर आने वाली, बहाने न करने वाली कामवाली बाई बहुत नसीब वालों को मिलती है, ये मैं अपने आप से रोज सुबह कहता हूं। फिर ये भी कहता हूं कि मैं नसीब वाला हूं, मगर उसे मैंने जॉब पाने और दूसरी चीजों में खर्च कर दिया है। पहली काम वाली बाई आईं, लैंड लॉर्ड के यहां भी वही काम करती थीं। दो दिन बाद अंकल-ऑन्टी गए, अगले दिन से बाई जी भी गईं। फिर पूरे 12 दिन बाद आईं। क्यों नहीं आईं। बेटी की तबीयत खराब थी। अरे कम से कम एक बार आकर बता तो दिया होता। फिर दो दिन पहले फस्र्ट फ्लोर पर रहने वाली भाभी जी के यहां आने वाली बाई जी को बोला। तैयार हो गईं। मगर दो दिन हो गए, अभी तक डोरबेल नहीं बजी। मंकू जी और मैं बर्तन धो डालते हैं। मगर कभी-कभी लगता है कि काश एक बाई जी फटाफट बर्तन धोतीं, तो हमें सिर्फ खाना बनाना पड़ता। और हां घर भी हफ्ते में दो-तीन बार ही साफ होता है इसी वजह से। टाइम से आने वाली बाई ढूंढऩा वाकई मुश्किल है।

छोटा काक्रोच, मोटा काक्रोच
बरसों पहले कानपुर में रहता था और खूब काक्रोच मारता था। फिर दिल्ली में रहा तो काक्रोच दिखने ही बंद हो गए। सोचता था शायद म्यूजियम जाकर देखना पड़े। मगर आपको ऐसा नहीं करना पड़ेगा। मेरे घर आइए न, हर वैरायटी और साइज का काक्रोच मिलेगा। दरवाजे के पीछे, बेड के नीचे। डे वन से ही पूरी बिरादरी से मेरी और मंकूजी की दोस्ती हो गई। फिर लक्ष्मण रेखा भी लाए और उसे लगाया भी, मगर काक्रोच तो रावण के भाई बंधु, रेखा को भी गच्चा दे गए। मंकूजी काक्रोच की लाशें उठातें हैं और मैं उन्हें ठिकाने लगाता हूं। पुण्य का काम है भाई। आपने किया है कभी। सुबह उठकर और रात में टहलकर इन्हें मारने का पुण्य भी मैं ही करता हूं।

तो ये दुनिया के सबसे मुश्किल कामों में से कुछ हैं, बाकी की लिस्ट अगले हफ्ते। तब तक चिल मारो चंडीगढ़

from my column sahar aur sapna for dainik bhaskar, chandigarh

एक ड्रामा राज का, एक उस भिखारन का...

जब नवभारत टाइम्स में था, तब ये ब्लॉग लिखा था अखबार की वेबसाइट के लिए, आज दोबारा पढ़ा तो कुछ ठीक लगा, सोचा आप सबके साथ शेयर करूं


एकदम धांसू शो चल रहा है बिग बॉस - 3 का। हर रूम में, हर कोने में कैमरे फिट हैं। हर शख्स जानता है कि रील चालू है। सब ससुरे ऐक्टिंग में लगे हुए हैं। दिखाना चाहते हैं मानो रिऐलिटी शो है लेकिन स्क्रिप्ट पहले से तैयार है। कैसे तमाशा रचना है, दर्शकों को बांधे रखना है। ऐसे में मेरे अंदर का क्लैप बॉय जो सपनों की दुनिया में हीरो बनने का सपना सजाए था, जोर से चीखना चाहता है - कट। बस भी करो। अब कितनी ऐक्टिंग करोगे?
मगर नहीं, कोई रुकने को तैयार नहीं। एक बात बताऊं? कई बार तो लगता है कि अगर ये लोग ऐक्टिंग करना छोड़ दें तो शायद पूरा शो ही इतना बोरिंग हो जाए कि कोई देखे ही नहीं। वैसे भी जबसे कमाल खान शो को छोड़कर गया है, आधा मज़ा खत्म हो गया है। राजू श्रीवास्तव की नौटंकी थोड़ा-बहुत गुदगुदा देती है, बस।
ऐक्टिंग बिग बॉस के आलीशान फ्लैट में है और सड़कों और गलियों में भी। अभी कल बाइक पर सवार होकर आ रहा था। भीकाजी कामा प्लेस की रेडलाइट पर रुका। कुछ औरतें शिकार की तलाश में घूम रही थीं। दुनिया की भाषा में कहें तो ये औरतें भिखारी थीं। लोगों से कह रही थीं कि मदद करिए। एक औरत के पेट में बच्चा है, उसे अस्पताल ले जाना है। ऑटो के पैसे दे दीजिए। इन औरतों को पिछले ढाई साल से इस रेडलाइट पर देख रहा हूं। एक औरत का पेट फूला भी इतने ही वक्त से देख रहा हूं। नहीं जानता, उनमें सच में कोई गर्भवती है या फिर कपड़ों की मदद से साड़ी के अंदर फूला हुआ पेट दिखता है। कई बार उसी रेडलाइट के किनारे तिकोनी जमीन पर इन औरतों को गुटखा चबाते, बच्चे खिलाते भी देखा है। वो खालिस उनका अपना वक्त होता है। खीज-सी उठती है। बहुत जोर से, जैसे दातों में कुछ ककरैला फंस गया हो और पूरा जी कसमसा जाए। कई बार लगता है मेरे पास ये औरतें आएंगी तो चीखकर कहूंगा, शर्म नहीं आती! मुझे तुम्हारा ड्रामा पता है। बगल में सफदरजंग और एम्स हैं और अस्पताल का बहाना गढ़ती हो। मगर ऐसा हो नहीं पाता। कभी महीनों पहले एक औरत पास आई भी थी, मगर इतना ही कह पाया कि मैं रोज यहां से निकलता हूं, सब पता है, कोई और शिकार खोजो।
मगर ड्रामा बदस्तूर जारी है। भूख का ड्रामा है, एक सुविधा का ड्रामा है या फिर सिर्फ मेरे मन का फितूर, नहीं पता। बाइक आगे बढ़ी तो महाराष्ट्र चुनाव कौंध गया। यूपी का हूं। मुंबई वाले मुझ जैसों को ही भइया कहते हैं न। अभी पिछले दिनों सुकेतु मेहता की किताब मैक्सिमम सिटी पढ़ी, तो मुंबई से प्यार-सा कुछ हो गया। शायद लेखक की बदमाशी या ईमानदारी थी, जिसने मुंबई के सच को इस रूमानी अंदाज में रचा कि मकबूल में पंकज कपूर का डायलॉग याद आ गया कि मियां मुंबई हमारी महबूबा है, इसे छोड़कर हम कहीं नहीं जाएंगे।
पंकज जी, एक दिन हम भी अपने सपनों का सूटकेस लिए मुंबई आएंगे। मगर मुंबई में एक राज ठाकरे भी रहता है। औऱ यहीं से दिक्कत शुरू होती है। राज ठाकरे, जो अब हीरो बनने की कगार पर है। राज ठाकरे कभी हंसता नहीं। हंसता भी है, तो रैलियों के दौरान कभी-कभी, जब किसी लालू यादव या सोनिया गांधी का मज़ाक उड़ाता है। वो हंसी भी होठों के किनारे से फिसलने के पहले ही लपक ली जाती है। राज के माथे पर हमेशा त्यौरियां चढ़ी रहती हैं। बहुत गुस्सा जज्ब किए हो जैसे। ऐसा लगता है कि जैसे क्लैप बॉय को एंग्री यंगमैन मिल गया हो। राज ठाकरे बडे़ काबिल नेता होंगे। जब कोई उद्धव का नाम और शक्ल भी नहीं जानता था, तब से राज ठाकरे बाल ठाकरे के काम यानी राजनीति में हाथ बंटा रहे हैं। मगर बाल को भी पुत्रमोह मार गया और उन्होंने राज को दरकिनार कर उद्धव को पार्टी की कमान सौंप दी।
कुछ महीने बीते और राज ने पार्टी से किनारा कर लिया। मगर चाचा की पाठशाला में सीखा पाठ नहीं भूले। चाचा ने मद्रासियों को निशाना बनाया था, राज ने कहीं बडा़ लक्ष्य रखा और यूपी-बिहार के लोगों को निशाना बनाया। वही तेवर, वही कलेवर। मीडिया ने राज को बड़ा बनाया, ये बात अक्सर लोग कहते हैं। मगर मीडिया को भी कितना दोषी ठहराया जाए? हम कैमरों पर फिल्माए गए सनसनीखेज सच के इतने आदी हो गए हैं कि हमें हर दिन सोने से पहले खीज उतारने के लिए तमाम राज ठाकरे जैसों की जरूरत पड़ती है।
राज आपको उन औरतों की याद नहीं दिलाता, जो डर बेचती हैं? कहीं बेचारी औरत का बच्चा सड़क पर ही हो गया तो, कितना अनर्थ हो जाएगा! एक लिजलिजा-सा डर भर जाता है। और कई लोगों के हाथ जेब तक चले जाते हैं। राज भी ऐसा ही डर बेच रहे हैं। किसकी है मुंबई, राज की, मराठियों की, या उन मछुआरों की, जो सुबह-सवेरे मुंबा देवी का नाम लेकर खुद को समंदर में झोंक देते हैं। मुंबई हम सबकी है, क्योंकि इसे हम सबने बनाया है। मगर कैमरे के सामने यह भी एक रटा-रटाया छिछला-सा सच लगता है। इसीलिए तो कैमरे के पीछे रहने वाले करण जौहर राज की धमकी मिलते ही भागे चले जाते हैं राज की शरण में। और कैमरे वाले रिपोर्टर उनके घर के बाहर जुट जाते हैं, दयनीयता और समपर्ण के इस जादुई और काले पल को कैद करने। जोर से क्यों नहीं चीखता कोई...कट, अब बस भी करो, बहुत हो गया तमाशा।
आज रामगोपाल वर्मा औऱ सरकार राज लिखने वाले प्रशांत पांडे सोच रहे होंगे कि अब सरकार का तीसरा हिस्सा लिखने का समय आ गया है। जैसे सरकार में दोनों बेटों की मौत के बाद आखिरी में सुभाष नागरे ( अमिताभ बच्चन) कहता है कि चीकू को बुलाओ, वैसे ही क्या बाल ठाकरे आखिर में कहेंगे कि राज को बुलाओ। अभी भी बात नहीं बिगड़ी है। और फिर केके का सरकार में बोला गया वह डायलॉग, अब क्या करेगा सरकार, तो अब क्या करेंगे राज ठाकरे।
ड्रामा जारी है, हर तरफ, पूरे शोर के साथ, तमाशे के साथ। हर दिन नए ऐंगल के साथ कैमरा घूम रहा है। कोई होगा, जो कयामत के दिन, या युग बदलने के दिन रील लेकर बैठेगा, एडिट करने के लिए, या फिर दुनिया की यह पिक्चर भी डिब्बाबंद ही रह जाएगी?

मगर क्लैप बॉय जोर से चीखना चाहता है, ताकि बंद हो यह ऐक्टिंग और एडिटिंग चालू हो। कभी आपके अंदर ऐसी चीख उठती है क्या...


ये ब्लॉग एंट्री नवभारत टाइम्स के लिए लिखी थी, सो वहीं से साभार

गुरुवार, मई 06, 2010

लाल साड़ी तुम्हारा इंतजार कर रही है नीरू

मौत क्या करती है, आपको दार्शनिक बना देती है, भीतर कुछ सूखने सा लगता है, कुछ मरने सा लगता है। ऐसा लगता है कि जो मरा, उसके साथ आपकी हरहराती जिंदगी का भी एक टुकड़ा मर गया। पिछले कुछ दिनों से आप दिल्ली में काम करने वाली एक पत्रकार निरूपमा पाठक की मौत से जुडी़ खबरें पढ़ रहे हैं। मैं निरूपमा को जानता था। बहुत तकलीफ हो रही है पिछले वाक्य में है की जगह था लिखकर। उस लड़की ने हमेशा मुस्कराकर हैलो सर बोला था और हमने डेढ़ साल में कुल जमा 100 सेंटेंस भी नहीं बोले होंगे आपस में। उसकी मौत से चंद हफ्तों पहले फोन पर बात हुई थी। तब तक वो शादी का फैसला कर चुकी थी। मैंने सिर्फ यही कहा कि बडा़ फैसला है सोचकर करना और करना तो उस पर कायम रखना। उन दिनों भोपाल में था। नीरू को परिवार की कमी न अखरे, इसलिए दिल्ली अपनी बहन को फोन किया और कहा कि एक सुहाग के रंग की साड़ी खरीदना। एक लड़की अपना प्यार पा रही है। मगर शादी नहीं हुई क्योंकि नीरू के पिता का खत आ गया था, जिसमें उसे अपने प्यार और सनातन धर्म का वास्ता दिया गया था। फिर एक दिन नीरू दिखी, मगर उसे बुलाया नहीं। वो भी शायद नजर बचा रही थी। मुझे लगा उलझन में होगी, फिर बात करूंगा। अब कभी बात नहीं कर पाऊंगा उससे, अब हमेशा उसकी बात करूंगा और हां मेरी अल्मारी में रखी नीरू की साड़ी सुहाग के रंग से धीमे-धीमे खून के रंग में तब्दील होती लग रही है।

ऑफिस में काम कर रहा था, जब उसके मरने की खबर मिली। दिमाग सन्नाटे में आ गया। फिर अगले दिन पता चला कि उसने स्यूसाइड किया है। सुनकर अजीब लगा, आखिर क्या वजह रही होगी उन चमकीली आंखों के हमेशा के लिए बंद हो जाने की। फिर अगले रोज एक मित्र ने नीरू की दो तस्वीरें भेजीं। सॉरी उसकी लाश की दो तस्वीरें भेजीं। एक घर में लेटी हुई, दूसरी पोस्टमॉर्टम हाउस में। उसने उसी लाल रंग की टीशर्ट पहन रखी थी, जैसा रंग बौद्ध भिक्षु पहनते हैं। शांति का रंग। टीशर्ट जैसा एक लाल रंग उसकी गर्दन पर भी था। बाद में पता चला कि नीरू को गला दबाकर मारा गया और बाद में स्यूसाइड दिखाने के लिए फांसी पर लटकाने की कोशिश में ये निशान बना।
रात में पानी पीने उठता हूं, दिन में लैपटॉप ऑन करता हूं, शाम को कुछ सोचते हुए काम से जूझता हूं, बार-बार वो लाल निशान मेरी आंखों को पहले गीला और फिर लाल कर जाता है। ये लिखते हुए भी ऐसा ही कुछ हो रहा है।
नीरू मरी तो तमाम लोगों की पकी हुई नींद टूट गई। अगर पत्रकारों के साथ ऐसा हो सकता है, तो फिर बाकियों की बिसात क्या। और ध्यान रहे ये अपराध हरियाणा की किसी खाप पंचायत ने नहीं सो कॉल्ड मिडल क्लास वेल एजुकेटेड फैमिली ने किया। फिर नीरू के गर्भवती होने को लेकर भी बहस शुरु हो गई। अदालतें बैठेंगी, किसी को जमानत मिलेगी तो किसी को सजा। उसके प्रेमी की जिंदगी भी आगे बढ़ जाएगी और मेरी भी।

मगर उस लाल रंग को देखते ही जो निशान आंखों के सामने तैरने लगेगा उसका क्या? मेरी अल्मारी में रखी उस लाल साड़ी का क्या, जो नीरू के लिए ली थी। नीरू बहुत नीर पाया तुमने और हमने भी।

बुधवार, अप्रैल 28, 2010

एक टिकट, ढाई सिनेमा और शहद चांद की बस

जिंदगी का रेला और चेहरों का मेला देखना हो, तो सफर करो। इस सफर के चक्कर में कई बार अंग्रेजी का सफर भी हो जाता है, मगर उसके भी अपने मजे हैं, वो कहते हैं न दर्द में भी कुछ बात होती है।
पिछले सैटरडे को मेरी ऑन्टी दिल्ली जा रही थीं, तो उनके साथ मैं भी चला गया। मनडे को वापस लौटा। शाम को आईएसबीटी पहुंचा और पालमपुर जाने वाली बस में सवार हो गया। एसी बस, दिन भर का थका था, सोचा अब सुकून से सोऊंगा। मगर यहां भी हमेशा की तरह एक ट्विस्ट था।
पालमपुर का नाम फस्र्ट टाइम राजा हिंदुस्तानी मूवी में सुना था। करिश्मा आन्टी वहां जाती हैं और राजा आमिर खान के प्यार में पड़ जाती हैं। बस में भी कुछ हीरो-हीरोइन बैठे थे, बोले तो न्यूली मैरिड कपल। एक कपल ठीक आगे बैठा था। पूरे रास्ते कूची-कू करता रहा। जो सज्जन बैठे थे, वो अपनी सजनी को कॉलेज के दिनों की कहानी सुना रहे थे। मैडम ने पूछा, वो श्वेता तुमसे इतना चिढ़ती क्यों है, पता नहीं यार। तुम्हारा उसके साथ कुछ चक्कर तो नहीं था। नहीं, लेकिन जब वो राजा मूवी आई थी न, तो उसमें एक गाना था न, नजरें मिलीं दिल धड़का, तो मैं श्वेता को और खुद को उस गाने में इमेजिन करता था। अरे मेरा बच्चा, पुच्च। सॉरी ये ब्रेक नहीं है, मगर सज्जन को उनकी सजनी की तरफ से दिया गया ब्रेक है। जब मैडम कहानी सुनकर या सुनाकर बोर हो जातीं, तो कपल गाने लगता, जोर से नहीं, मगर प्यार से।
मैं आपको लव स्टोरी सुनाकर बोर करने के मूड में नहीं हूं। इस पिक्चर में धांसू एक्शन भी है। बस की दाईं रो में दो सीट आगे एक और कपल बैठा था। सज्जन जिन्हें कुछ देर बाद आप दुर्जन के रोल में देखेंगे, तेरे नाम के राधे भइया टाइप बाल रखे और दारू पीकर टाइट, उनके साथ उनकी सजनी। उन्हें देखने से ही लग रहा था कि अभी शादी हुई है। साथ में एक अंकल भी थे।
तो बस चली, साथ वाले अंकल खड़े हुए और अपने लेफ्ट साइड में बैठे दो फॉरेनर्स से बोले कि दिस इज माई सीट। उन शरीफ विदेशियों ने अपने रिजर्वेशन दिखा दिए। अंकल बोले, डीसीपी हूं, चौकी में गाड़ी रुकवा सकता हूं, मगर कोई नहीं अडजस्ट कर लेते हैं। मुझे लगा कि ये क्या कोई एक्शन ही नहीं। बस माहौल टाइट हो रहा है। मगर राधे भइया अभी तैयारी में थे। कुछ ही देर में बस में भद्दी गालियां गूंजने लगीं। राधे भइया को उनकी सजनी पीटने में लगी थीं। कभी मुंह में हाथ रखतीं, तो कभी घर फोन कर पापा को शिकायत करतीं कि सो एंड सो अंकल ने इनको ड्रिंक करा दिया और अब ये बस में तमाशा कर रहे हैं। भइया से पूछा गया कि तमाशा क्यों भाई, तो बोले कि ये विदेशी हिंदुस्तान को गाली दे रहे हैं। देशप्रेम जाग गया भइया का दारू पीकर। 10 मिनट तक लोग सुनते रहे। फिर आगे से एक सज्जन जो सही में सज्जन थे, खड़े हुए और बोले भाई साहब आप चुप रहें, मेरी पत्नी और छोटी बच्ची है। अपनी जबान संभालें। मेरे ठीक बगल वाली सीट एक मैडम और उनकी मां बैठी थीं। कुछ देर पहले किसी खान बाबा से बड़े अदब से बतिया रही थीं। अब उन्हें भी गुस्सा आ गया। और वो भी चीखने लगीं। कंडक्टर बाबू आए और ऐसे एक्ट किया गोया सब कुछ ठीक हो गया है अब तो। वैसे बाद में पता चला कि ये कपल भी शहद चांद के लिए जा रहा है।
इंटरमिशन के पहले एक और ट्विस्ट सुन लीजिए। रास्ते में कपल में फिर झगड़ा हुआ, इस बार मसला ये रहा कि सजनी ने दुर्जन सज्जन की क्लास लगा दी कि तुमने अंकल को 3800 रुपये क्यों दिए। फिर गाली-गुल्ला और फिर कंडक्टर की सुस्त एंट्री।
उफ्फ एक ही टिकट में कितना कुछ। लाइफ की पिक्चर ऐसी ही होती है भाई।