रविवार, दिसंबर 27, 2009

ऐ जिंदगी गले लगा ले

जस्ट जिंदगी क्योंकि सब
कुछ जिंदगी के लिए ही है। ऑफिस का कॉम्पिटिशन, सुबह की जॉगिंग, थिएटर में पॉपकॉर्न टटोलती उंगलियां या फिर सोने के पहले सोचने जैसा कुछ, यही सब मिलकर बनाता है जिंदगी को। हमें इस जिंदगी से तमाम शिकायतें हैं, मगर उन शिकायतों की पूंछ में लिपटी आती हैं तमाम उम्मीदें और उन्हें पूरा करने के लिए जोश।

हमारे मकसद में एक तपिश है, जो मुश्किलों के पहाड़ को धीरे-धीरे ही सही, पिघलाने का माद्दा रखती है, बशर्ते हम ठंडे न पड़ जाएं। इसलिए जिस कोने में कभी आपकी सेहत, तो कभी आपकी जेब को बचाए रखने और बेहतर करने के नुस्खे सुझाए जाते हैं, उस पर हमने इस बार जिंदगी की हरारत से जुडे़ कुछ ख्यालों को जगह दी है। वजह सिर्फ इतनी कि जिंदगी को बांहों में भींचने के लिए हमें भी तो कुछ करना होगा। तो नए साल से पहले जिंदगी को नई नजर से निहारने की कोशिश

खिल-खिल-खिल कर हंस दें

एक ही स्कूल, कॉलेज और दफ्तर में तमाम ऐसी शक्लें हैं, तमाम ऐसी आवाजें हैं, जो कभी हमें पसंद थीं। फिर एक दोपहर या शाम किसी बहस ने जंबो साइज हासिल कर लिया और हमारी मुस्कानों के बीच में इगो का सोख्ता आ गया, जिसने रिश्तों की सारी नमी को सोख लिया। कोई दोस्त, कोई कलीग या फिर कोई रिश्तेदार, जिसके साथ आपने कभी न कभी कुछ अच्छा वक्त जरूर बिताया है, अब उससे बात करने का, उसे देखने का दिल भी नहीं करता। तो कोशिश करें कि अच्छी यादों को बुरी यादों के ऊपर जीत हासिल हो। हम यह नहीं कहते कि ऐसी हर गलतफहमी या मनमुटाव को खत्म कर धर्मात्मा बन जाएं, मगर हां चुप्पी के कुछ सन्नाटों को एक हंसी के कहकहे के साथ खत्म किया जा सकता है। क्या पता आपकी हंसी फिर से नमी पैदा कर दे? और हां इन सबसे दूर हंसी की डेली डोज भी जरूरी है। आपसे किसी ने कभी तो कहा होगा, वेन यू स्माइल, यू डू वेल। सो डू वेल इन लाइफ।

हरी-भरी दुनिया पर टिकती हैं आंखें

ऑफिस है, काम है, घर की जिम्मेदारियां हैं, बीवी है, बच्चे हैं, एक फिक्स्ड रुटीन है। दोस्त हैं, दुश्मन हैं, सब कुछ है, मगर फिर भी कुछ है जो अधूरा-सा लगता है। शायद हमारे आसपास बदलती दुनिया के साथ हमारा रिश्ता बड़ा कामकाजी-सा हो गया है। तो फिर हम एक नए कुछ-कुछ बचपने-से-भरे एक्सपेरिमेंट पर हाथ आजमा सकते हैं। एक नन्हा-सा गमला, जिसमें हम खुद से इंतजाम कर भरेंगे, संडे की सुबह मिट्टी। मिट्टी भरते समय एक लंबी सांस ताकि नाक जो गीली मिट्टी की खुशबू भूल चुकी है, ताजादम हो जाए। इस सबके बाद अपनी पसंद का कोई एक पौधा। ये तुलसी भी हो सकता है और गुलाब भी।

उस पौधे या कलम को गमले में रोप दें। थोड़ा-सा पानी, थोड़ी-सी धूप, इसका रखें ध्यान। और हां कुछ ही दिनों बाद वह पौधा, जो आपकी स्टडी टेबल वाली खिड़की या रोशनदान के नीचे वाली जगह पर सुस्ता रहा है, आपका ध्यान खींचने लगेगा। उसका बढ़ना, उसके जिस्म पर नई-नवेली पत्तियों का आना, उसकी तली यानी मिट्टी में भुरभुरापन पैदा होना, सब कुछ आपको अलहदा लगेगा। दरअसल, मन किसी को हमारे प्यार की हरारत पा बढ़ते देख खुश हो जाता है। तो जनाब देर किस बात की, एक गमला तलाशना शुरू करिए और हां याद रखिए, हमारे अपने भी ऐसी ही हरारत की उम्मीद रखते हैं।

कह दूं तुम्हें

ऑफिस में बॉस की नई टाई नोटिस करते हैं, मगर बीवी ने कान के बुंदे कब बदले, यह याद नहीं। स्टेशनरी खत्म हो गई, यह याद है, मगर बेटी के कलर ब्रश लाना रोज भूल जाते हैं। आपकी डेस्क कुछ ज्यादा साफ है, होटेल में वेटर ने वाकई अच्छी-सी मुस्कान के साथ सर्व किया या फिर उम्मीद के उलट ब्लूलाइन के कंडक्टर ने या फिर ऑटो वाले ने मुस्कराकर आपको चौंका दिया, हर बार जरूरत होती है झिझक या सुस्ती को कंधों से झटकर थैंक्यू बोलने की, कॉम्प्लिमेंट की खुराक देने की।

हममें से हर कोई बदलाव को नोटिस करता है, अच्छी चीजों को अपने-अपने तईं याद रखता है, मगर फिर हम उन्हें बोलने से मुकर जाते हैं। लगता है क्या सोचेगा सामने वाला इस तरह से खुद को, खुद की चीजों को नोटिस किया जाते देखकर। सोचेगा, जरूर सोचेगा, मगर यकीन मानिए, सच्चे दिल से की गई सच्ची तारीफ उसे कुछ अच्छा ही सोचने पर मजबूर करेगी। तो फिर कह दीजिए दिल की बात, अपनों से। कुछ अपने ही अंदाज में। यह अंदाज मिसिंग यू का एसएमएस भी हो सकता है या फिर किसी पुराने दोस्त को फोन कॉल या ईमेल। प्यार भरी थपकी या फिर आंखों में ढेर सारी मीठी शरारत घोलकर बोला गया थैंक्यू भी जादू कर सकता है। तो नए साल को एक्सप्रेशन का साल बनाइए और कह ही दीजिए।

बोल के लब आजाद हैं तेरे

सड़क में गड्ढे क्यों हैं, ऑफिस में लोग दूसरों की सुविधा का ध्यान रखे बिना घंटों गॉसिप क्यों करते हैं, एक सुबह अगर हम खुद को आईने में देखें और बूढ़ा पाएं, तो ऐसे तमाम सवाल या ख्याल हमें घेरे रहते हैं और उनके बारे में सोचकर हम कसमसाते भी खूब हैं, मगर ऐसी कसमसाहट का क्या फायदा। वो कहते हैं न कि जिस गुस्से से कोई गुल न खिले, उसके होने का क्या फायदा। तो अपने आसपास की बातों के लिए, अपनी यादों के लिए या किसी और की कहानी को दुनिया को सुनाने के लिए ही सही बोलिए और अपने अंदर की आवाज को बाहर आने दीजिए। इंटरनेट की दुनिया है, चंद मिनटों की मेहनत से अपना ब्लॉग तैयार किया जा सकता है। किसी वेब पोर्टल के लिए कंटेंट तैयार किया जा सकता है। चंद हजार में आपकी अपनी वेबसाइट। हर मीडिया एजेंसी को तलाश है ऐसे ही लोगों की जो कुछ बोलना चाहते हैं, क्योंकि जमाना सिटिजन जर्नलिस्ट का है। मोबाइल पर बोलते हैं, दिन में आधा घंटे एसएमएस टाइप करते हैं।

तो ऐसा नहीं है कि इंडिया बोलता नहीं है, मगर इस साल ये बोल औरों तक मुकम्मल ढंग से पहुंचें, इसका इंतजाम करें। आप रेजिडेंट वेलफेयर असोसिएशन में बोलें, किटी पार्टी के बीच में बोलें, पैरंट्स मीटिंग में बोलें, मगर जब भी बोलें, दिल से बोलें। जिन चीजों को आपने महसूस किया है, उन्हें बोलें। और हां, अगर सबके साथ अपने ख्याल साझा करने से परहेज है, तो एक दिन स्टेशनरी की दुकान के सामने रुक जाएं और अपने लिए चमड़े के जिल्द या चिड़िया के कवर वाली डायरी या कॉपी खरीद लें और इसी पर लिखें। पहला हर्फ लिखने से पहले 15 मिनट से कम नहीं लगेंगे, मगर एक बार सिलसिला निकल पड़ा तो फिर थमाए नहीं थमेगा। तो फिर बोल क्योंकि जबां अब तक तेरी है।

वॉक पर चलें क्या

सर्दियों की शाम और गर्मियों की सुबह नेचर ने उन लोगों के लिए बुनी है, जो सपनों को चुनना जानते हैं। अच्छा गोल-गोल बात नहीं, पर बताइए आखिरी बार अपनों के साथ या खुद अपने साथ वॉक पर कब गए थे? यूं ही शरीर को कुछ सुस्त-सा छोड़कर, कदमों को खुद अपनी थाप पर डोलते देखने का मन नहीं करता? एक जर्मन थिंकर था नीत्शे। कहता था कि दुनिया के सारे महान ख्याल टहलते हुए ही आते हैं। तो फिर टहलिए। कोई वक्त तय नहीं, कोई रूट तय नहीं। बस यूं ही खाना खाने के बाद या शाम की चाय से पहले टहला जाए। आसपास की चीजों को कुछ ठहरकर देखा जाए।

हो सकता है कि एक दुनिया समानांतर बसी हो, जिसे टाइम से ऑफिस पहुंचने या फिर जल्दी घर पहुंचने के फेर में कभी देखा ही न हो। खैर दुनिया की छोड़िए और अपने भीतर की दुनिया का ही हाल जान लीजिए। पार्क में या फिर कम ट्रैफिक वाली सड़क के फुटपाथ पर या फिर दिन के शोर से दूर किसी चुप से मैदान में टहलिए और दिमाग को डोलने दीजिए, जहां दिल करे। यकीन मानिए कुछ बेहतर महसूस करेंगे। तो फिर सोचना कैसा, वॉक पर चलते हैं। धुंध के बीच अपने ख्यालों के साथ पार्टनरशिप करते हैं और फिर घर में घुसने से पहले सिर्फ अपने कानों को सुनाते हुए कहते हैं - हेलो जिंदगी।

छोटी चीजों का सुख

कार कब ले पाऊंगा, अपने घर का क्या होगा, मशीन है मगर पूरी तरह से ऑटोमैटिक नहीं। बीवी से बनती नहीं, बॉस समझता नहीं और बच्चे, अजी कुछ पूछिए मत, कम्बख्त पढ़ते ही नहीं। तो बड़ी शिकायतें हैं हमें जिंदगी से, अपने आसपास से और उनसे पार पाने के लिए हम किसी बड़े सुख का इंतजार करते हैं। कुछ भारी-भरकम सा, बहुत अच्छा-सा होगा। सुबहों का रंग और शामों की खुशबू बदल जाएगी। मगर इस बड़ी खुशी के इंतजार में हम छोटी खुशियों को फुटपाथ किनारे ठिठुरता छोड़ देते हैं, घर लाने के बजाय। संडे सुबह की खूब अदरक वाली कड़क चाय पीते हुए बतियाना या फिर रात गए रजाई के ऊपर ही मूंगफली से मुठभेड़ करना। सब भूल गए, वक्त की आपाधापी में। सच बताएं, भूले नहीं, मगर अब महसूस नहीं करते। दाल अब भी खाते हैं, मगर उसमें ताजा धनिया पत्ती पड़ी है या फिर लहसुन, पता ही नहीं चलता। मां या पत्नी या बेटी ने नई ड्रेस पहनी और बहुत प्यारी लग रही है, मगर ठहरकर उनको देखने का सुख नहीं लपकते।

पसंदीदा गाने के बोल खोजने की कौन कहे, अब तो गाने भी पूरा वक्त देकर नहीं सुने जाते। ड्राइव करते या काम करते हुए बैकग्राउंड के शोर की तरह गाने सुने जाते हैं। किताबें सिर्फ बीते बरसों या अधूरे सिलेबस की याद दिलाती हैं। मगर इन्हीं में छोटे-छोटे सुख छिपे हैं। इन्हीं से जुड़ी चीजों को करने में कभी बहुत लुत्फ आता था। हिम्मत न हारिए, बिसारिए न राम, सो अपने राम को आज से ही काम पर लगा दीजिए। कभी स्टोररूम से पुरानी मैगजीन निकालकर पलटिए या फिर एक दिन कॉपी का पिछला पन्ना फाड़कर किसी दूर के रिश्ते की बुआ या मास्टर बन चुके यार को खत लिख डालिए। हो सकता है कि दसियों बरस पहले बनाई गई अड्रेस बुक ढूंढने में वक्त लगे, मगर इस तरह से वक्त खर्चने का अलग मजा है।

इन छोटी चीजों के सुख में आदतों को सहलाना शामिल है तो सभ्यता को ठेंगा दिखाते हुए हाथ से चावल खाना भी। बस ऐसा कुछ जो अच्छा लगे, जिंदगी के पूरेपन का एहसास कराए।

खुद की मुहब्बत में पड़ गए

और अब इस बार की आखिरी बात। हमें सब प्यार करें, इससे पहले जरूरी है कि खुद हम खुद से प्यार करें। और खुद से प्यार करना उतना ही मुश्किल है, जितना बीवी को रिझाना या गर्लफ्रेंड से पहली बार दिल की बात कहना। खुद से प्यार तभी कर पाएंगे, जब खुद के सपनों के साथ ईमानदारी से पेश आएंगे। अपनी क्षमताओं के साथ इंसाफ करेंगे और अपने लिए सबसे ज्यादा सख्त बनेंगे। मगर जनाब सवाल सिर्फ सख्ती का नहीं है। खुद से प्यार करने के लिए खुद को छूना, महसूस करना और देखना भी जरूरी है। कभी सुबह ब्रश करते या शाम को कंघी करते हुए अचानक शीशे पर नजर ठहर जाती है और हम खुद की शक्ल को एक अलग ही ढंग से देखने लगते हैं। यह मैं हूं, ऐसा दिखता हूं, मेरी आवाज ऐसी है और दुनिया मुझे और मेरे काम को इस नाम के साथ जोड़ती है। या फिर ऐसा ही कोई पहली नजर में अजीब-सा लगता ख्याल। तो फिर जल्दी से शीशे के सामने से हटने के बजाय खुद को नजर भरकर देख लें। अपनी जरूरतों का, अपनी हेल्थ का और अपने स्वादों का ख्याल रखें, मगर ऐसे कि खुद से प्यार हो जाए, खुद पर दुलार बढ़ जाए।

नए साल में क्या कर सकते हैं, यह तो आप ही बेहतर जानते हैं। चलते-चलते सिर्फ इतना ही कि जेनरेशन एक्स, वाई, जेड के लोग अपनों से छोटों और बड़ों की बातों को हमेशा खारिज करने के बजाय समझने की कोशिश जरूर करें। और हां, नए दौर के लोग खासतौर पर अपने विचारों को कुछ वक्त के लिए ही सही, साइड पॉकेट में रखकर बुजुर्गों की सुन लें, क्योंकि जो उनके पास है वह कहीं नहीं। किसी कवि की इन पंक्तियों के साथ आप सबको हैपी जिंदगी का नया साल मुबारक हो।

संभावनाओं से लबालब भरा हुआ ये साल
यदि बस में होता मेरे
तो बांध देता इसे मां के पल्लू से
और फिर रोज मांगता उससे
एक खनकता हुआ दिन।

मंगलवार, अक्तूबर 27, 2009

मेज पर मरे हुए बच्चों की मुस्कान और जय जिहाद

मेज पर मरे हुए बच्चों की मुस्कान...
यूनिवर्सिटी की उस पहाड़ी पर शाम के धुंधलके में सिगरेट का धुंआ कसैलापन पैदा नहीं कर रहा था। बीयर के कैन की टिन कभी उठते-खिसकते स्किन से छू जाती, तो बदन चिहुंक जाता, मगर जाने का मन नहीं करता। छह दिन कुढ़ने, जलने और कटने के बाद ये संडे आया था और इसे यूं ही नहीं बीतने देना था। शाम हल्की और फिर तेजी से सांवली हो रही थी और चट्टान पर परसते न पसरते याद आ रहा था कि कुछ ही देर में सामने का जंगल भी ठंड से बचने के लिए धुंध की चादर ओढ़ लेगा।
उसकी आंखों में शाम बीतने के साथ लाली उतर रही थी, गोया डूबते सूरज से उधार लेकर आई हो। नहीं, हिंदुस्तान की फौज हमें तबाह कर रही है, आप लोगों तक तो खबरें भी नहीं आ पाती हैं। सचाई जाननी है तो यहां दिल्ली में बैठकर मैगजीन पढ़ना बंद करो। एक बार घाटी में जाओ, धुंध की चादर-वादर सब भूल जाओगे। चार बोतल का नशा चार सेकंड में उतर जाएगा मियां। जब कनपटी के बगल से गोली निकलती है न, तो दिमाग यह पूछने के काबिल नहीं रह जाता कि ये पीतल दहशतगर्द उड़ेल रहे हैं या फौजी।
मुझे लगा जावेद की बात में दम है। इसलिए नहीं क्योंकि हाल ही में शोपियां और उसके बाद एक और स्टूडेंट के केस में पुलिस, फौज की ज्यादती सामने आई है, इसलिए भी क्योंकि वो खुद उसी कश्मीर का रहने वाला है, इसीलिए उसकी बात चाहे सही लगे या गलत, सुनी जानी जरूरी है। जावेद चालू था कि आज भी उसका पासपोर्ट कुछ ज्यादा देर तक चेक किया जाता है और जैसे ही वो बोलता है कि मैं कश्मीरी मुसलमान हूं, हवा कुछ ठहरकर बहने लगती है।
सिगरेट बुझ चली थी, मगर बात इतनी गर्म हो चुकी थी कि दूसरी जलाने का जी नहीं किया किसी का। यार बाकी सब तो ठीक है जावेद, मगर आजादी की लड़ाई में जब मजहब की बात लाई जाती है, तो दिक्कत पैदा होती है। मान लिया कि कश्मीरी हिंदुस्तान और पाकिस्तान किसी के साथ नहीं रहना चाहते, मगर इसे इस्लाम की लडा़ई, जिहाद कैसे कहा जा सकता है।
बंद करो ये सब राजनैतिक बातें यार, हफ्ते के छह दिन तो यही सब चलता है। साइंस रिपोर्टर ने फरमान सुनाया। सबको लगा कि बात वाजिब भी है और जायज भी। एक बार फिर बीयर के सुर्ख सुरूर में ठंड से गुफ्तगू शुरू हो गई। यार चखना बढ़ाना जरा, सलीम बोला। सलीम का किरदार भी दिलचस्पी की हदें छूता है। मल्लू है, ऐसा वो खुद बोलता है, मगर हिंदी में बात करना पसंद करता है। उसके घर में कुरान-शरीफ के बगल में शिवलिंग रखा है। म्यूजिक बनाता है क्योंकि उसे लगता है कि यही सबसे बेहतर तरीका है दुनिया को बेहतर बनाने का। सचिन के लिए किसी से भी भिड़ जाएगा, मगर क्रिकेट मैच कभी लाइव नहीं देखेगा। पूछो तो वही जवाब, यार ये धुकधुकी जो है न, ये मुझसे बर्दाश्त नहीं होती सचिन को देखते वक्त।
हां तो हम बात कर रहे थे सलीम की, ओए नमकीन बढ़ा जरा, नमकीन वाला अखबार बढ़ा दिया गया, मैं चीखने को हुआ, ये क्या बे, आज के ही अखबार पर फैला दी, सब तेल हो गया, मेरी पेज वन बाईलाइन छपी थी। कम्बख्तों तुम्हें नरक भी नसीब नहीं होगा। ठहाके तेज हो गए। लाइटर जलाकर उस खबर को देखा जाने लगा। भाई लोगों में से एक ने बुलंद आवाज में आसपास के जंगल, झाड़ी औऱ पहाड़ों को सुनाते हुए खबर पढ़ना शुरू किया। बीच में ब्रेक भी लिए क्योंकि बकौल उनके यार हिंदी पढ़ने में लग जाती है, आदत ही नहीं रही, बोलते वक्त तो एकदम सूंसूं रफ्तार, मगर पढ़ने में बाप रे। खबर एक पाकिस्तानी शख्स राणा शौकत अली के बारे में थे। अब उन लोगों ने कैसे पढ़ी सुनी सो छोड़ो और हमारी जबानी ही मसले की झलक पा लो। वैसे ये खबर के पीछे की खबर है और इसमें रंग कुछ गाढ़े और लकीरें कुछ तिरछी हो गई हैं, ताकि तस्वीर मुकम्मल रहे...
राणा पाकिस्तान के पंजाब सूबे के फैसलाबाद जिले में किराने की दुकान चलाते हैं। पतली-महीन सी आवाज, एकबारगी सुनने पर दिल्लगी का मन करे कि क्या यार, नाम राणा और आवाज रनिवास से आती हुई। बहरहाल, राणा की कहानी सुनने के बाद दिल्लगी का ख्याल भी नहीं आएगा, जेहन में। राणा फरवरी 2007 में नोएडा के पास एक गांव में खेती कर गुजारा कर रहे भाई की बेटी में शिरकत करने आए। राणा और उनकी बीवी और छह बच्चे। समझौता एक्सप्रेस से वापस जा रहे थे। राणा खिड़की के किनारे बैठे खैनी रगड़ रहे थे। बेगम छुटकी को गोद में लिए कभी सो जातीं तो कभी उसके हिलने पर पुचकार फिर सुलाने लग जातीं। बाकी बच्चे नींद के कच्चेपने से बेपरवाह थे। शायद बाजी और अम्मी की डांट के बाद जागकर ऊधम मचाने की गुंजाइश बची भी नहीं थी। एकदम से राणा को बोगी में अजीब सी गंध आती लगी। झुककर हथेली सूंघी कि कहीं मिलावटी तंबाकू तो नहीं रगड़ मारी, मगर तब तक गंध फैल चुकी थी। राणा फौरन दूसरे मुसाफिरों को जगाने लगे। गाड़ी आधा घंटा पहले ही पानीपत से गुजरी थी, इसलिए चाय पीकर झपकी लेने वाले फौरन जाग गए। इतने में जोर का धमाका हुआ और गैस और भी तेजी से फैलने लगी। राणा ने चीखकर बीवी को आवाज दी, मगर दूसरे धमाके में वो आवाज भी दब गई। बीवी ने सबसे छोटी आइसा को छाती में दबाया और बाहर की तरफ लपकी। जबतक गेट पर पहुंची, उसे याद आया, या खुदा बाकी बच्चे तो सो ही रहे हैं। मोहतरमा वापस लौटतीं, उससे पहले ही गैस का एक झोंका और आया और आग तेज हो गई। पीछे से किसी ने उन्हें धक्का दिया और तब तक बोगी जलने लगी। हवा थी, धुंआ था, चीखें थी और थी बेबसी। किसी की बीवी, किसी का बच्चा, किसी की मां तो कोई बेवा। एक-एक करके 69 जिंदा जल गए। कितना अजीब लगता है न ये बोलना, लिखना जिंदा जल गए। हाथ पर जरा सी गर्म बूंद मिजाज गर्मा देती है। यहां पूरा का पूरा शरीर जला। पहले सफेद हुआ, फिर सुर्ख और फिर आगे लिखे न जाने वाले रंग में तब्दील होता।
पुलिस आई, जांच का ऐलान हुआ। घायलों को अस्पताल भेजा गया। सियासत शुरू हुई, साथ में कुछ इंसानियत भी। राणा के परिवार में बीवी और बेटी बचे थे और खुद राणा जो दूसरी बोगी से एक बुढ़िया को नीचे उतार रहे थे, जब पहला धमाका हुआ। हल्के चोटिल इस परिवार को दिल्ली लाया गया और फिर वापस पानीपत जाकर उन्होंने अपने बच्चों ( तीन बेटे-दो बेटियों की शिनाख्त की)। कैसे कलेजा मुंह में आ जाता होगा न एक बाप का, जब अपने बच्चे की लाश देखकर वो बोले, हां ये मेरी आइशा है, ये मेरा अब्दुल है....
राणा अपने बच्चों की लाश लेकर वापस पाकिस्तान चले गए। कहानी यहीं खत्म हो जानी चाहिए थी क्योंकि वक्त बीतने के साथ जीना सिखा देता है, मगर जिंदगी कहानियों की माई है, अंदाजे से पहले थपकी देती, मगर खुद कभी नहीं सोती।
राणा अगले साल फिऱ पाकिस्तान से वापस आए। कुछ हिंदुस्तानियों ने समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट की बरसी पर हवन-पूजन औऱ सर्वधर्म सभानुमा प्रोग्राम किया था। यहां से किस्से में दूसरा किस्सा घुसता है।
पानीपत की कब्रिस्तान में कभी जाएंगे, तो वही मिट्टी के ढूहे, कुछ पुराने, कुछ नए पत्थर, लोबान, अगरबत्ती की गंध, एक दो आवारा कुत्ते, टोपी सीधी करते कोई बुजुर्ग, हिंदुस्तान के हर दूसरे कब्रिस्तान जैसा नजारा...मगर इस कब्रिस्तान में 32 लावारिस लाशें दफन हैं। उनके पत्थर पर किसी ने नहीं लिखा कि फलाने-फलाने यहां चैन की नींद सो रहे हैं। ये वो लाशें हैं, जो समझौता एक्सप्रेस के दौरान किसी के क्लेम न करने की वजह से यहां दफन कर दीं गईं। इनका वतन, इनका नाम, इनकी वल्दियत किसी को नहीं पता। और सच पूछिए तो ये सब हम जिंदा लोगों के लिए ही रची गई बातें हैं। मरे हुओं का कौन मसीहा....
राणा की कहानी पता चली एक मित्र के मार्फत। राणा एक बार फिर हिंदुस्तान आ रहे हैं। गोद में होने के बाद बची बेटी, अब कुछ बड़ी हो गई है और आगे से टूटे दांत से हवा बाहर आने के बाद भी ए फॉर एप्पल साफ बोल लेती है। राणा इस बार आ रहे हैं सरोजनी नगर ब्लास्ट की बरसी में शिरकत के लिए। उनका कहना है कि आतंक इंसान की जात और मजहब पूछकर उसे अपना शिकार नहीं बनाता, इसलिए इसके खिलाफ लडा़ई भी साझा होनी चाहिए। चूंकि राणा की कहानी, उनके जज्बे की खबर लिखनी थी, इसलिए राणा के दोस्तों से उनकी तस्वीर की डिमांड कर दी। दोस्त ने जो तस्वीर दी, वो एक नहीं दो थीं। एक तस्वीर में राणा अपने चार बच्चों के साथ बगीचे में बैठे हैं। एकदम फूल से बच्चे. कोई टीशर्ट के ऊपर टीशर्ट पहने, तो किसी के जूते और पैंट के बीच से मोजा झांकता। दूसरी तस्वीर में सबसे बड़ी बेटी सबसे छोटी बहन को हाथ में थामे खड़ी है। दोनों तस्वीरों को स्कैन कर लिया गया, ताकि सॉफ्ट कॉपी का इस्तेमाल किया जा सके। फ्रेम की हुई दोनों तस्वीरें मेरी डेस्क पर रखी थीं, कंप्यूटर के ठीक बगल में। काम करते-करते नजर पड़ी और चौंक गया। अजीब सा लगा ये सोचकर कि मेरी मेज पर चंद मरे हुए लोगों की तस्वीरें रखी हैं, मुस्कराती और मेरी तरफ देखती। आंखों में कुछ कांपने सा लगा। लगा कि बच्चे बस अभी कुछ बोल ही देंगे।
कानों में इन बच्चों की मां की आवाज गूंज रही थी। बड़ी हुलस के साथ वो बोली थीं सलाम भाईजान। रामकसम, इतनी मुहब्बत से आजतक किसी ने सलाम नहीं बोला था। फिर बातों का सिलसिला शुरू हुआ, तो अजीब लगना कुछ कम हुआ। जिंदगी में पहली बार पाकिस्तान कॉल लगाई थी। किसी ने मजाक में कहा भी देखना कहीं फोन टैप न हो रहा हो।
फटाक..................बोतल जब पहाड़ से टकराती है, तो तीन तरह की आवाजें आती हैं। आवाज इससे तय होगी कि बोतल खाली थी, भरी या आधीभरी। खाली बोतल की झन्न में न कर्कशता कम होती है, मगर कोफ्त कि क्यों जंगल गंदा कर रहे हो। पूरी भरी बोतल सिर्फ धोखे से फूटती है और उस गुदगुदाते पल का एहसास तब पुख्ता होता है, जब बोतल में भरे सामान के नुकसान की याद कम हो जाती है। तीसरी आवाज होती है किसी जावेद की, किसी रणंजय की, जो बहस के तेज होने के साथ बोतलें उछलने पर आती है। चौंकिए मत, उनके बीच झगड़ा नहीं हुआ था। मुद्दा अभी भी कश्मीर ही था, मगर आवाजें कुछ तेज हो गई थीं और इसी दौरान धोखे से, 24 कैरट धोखे से एक बोतल नीचे गिर कर टूट गई थी। जावेद ने आज पहली बार शराब चखी थी। उसकी जबान सुर्ख हो चुकी थी और वो जोर से पहाड़ी पर चढ़कर चीखा कि कमजोरों की आवाज नहीं सुनी जाती, इसीलिए तो सारा फसाद होता है। अरे आवाज तो सुनलो, करना किसको क्या है। आवाज बहुत तेज थी, सब चुप हो गए। रात का सन्नाटा इस शोर से आहत था। चुप्पी अंधेरे में घुल ही रही थी कि जावेद के गिरने की आवाज आई। भाई-भाई तीन लोग उसकी तरफ लपके। मना किया था न, मत पिला इसे नहीं झेल पाएगा, फैल जाएगा, उधर जावेद मियां मुस्कराते हुए बोले क्यों भाई अपना तो जय जिहाद हो गया न.......
क्या बकवास है, जय जिहाद। एक आवाज बोतल टूटने की, एक आवाज उस औरत के बोगी से नीचे गिरने की और फिर एक आवाज एडिटर की, स्टोरी पूरी हो गई क्या। मेरी मेज पर अभी भी मरे हुए बच्चे मुस्करा रहे थे। वो सच में कुछ कहना चाह रहे थे...गीली आंखों से, लरजती-तुतलाती आवाज से मगर हम सुन नहीं पाए क्योंकि कानों में जय जिहाद का जुमला अटका था।


और फिर ः -अब फिर कभी मरे हुए बच्चों की तस्वीरें नहीं लगाउंगा। कम्बख्तों को देखकर भूल जाता हूं हिंदुस्तान और पाकिस्तान का फर्क, हिंदू और मुसलमान का फर्क, सिर्फ दर्द का, प्यार का और पाकीजगी का मजहब याद रहता है।
-फिर कभी मरे हुए बच्चों की मुस्कान नहीं देखूंगा। इन्हें देखकर दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, इस्लामाबाद, लंदन, न्यू यॉर्क और दुनिया के तमाम कोनों में हुए बम धमाकों में मारे गए बच्चों की मुस्कान दिखती है। मगर मुस्कान के दुधिया रंग के ऊपर खून के कुछ छींटे भी होते हैं।
- अब फिर कभी मैं पाकिस्तान फोन नहीं करूंगा। नेताओं पर गुस्सा आने लगता है यार, आखिर क्यों सरहदें खिंचीं और खिंची भी तो उन्हें बना क्यों रहने दिया गया
- और सबसे आखिर में उन भाई बंधुओं को राम-सलाम जो इस पोस्ट को पढ़कर मुझे गाली सुनाएंगे, बुरा-भला कहेंगे। कोई पाकिस्तान को कोसेगा, कोई इस्लाम को, तो कोई हिंदुओं को...मगर एक गुजारिश है कुछ भी लिखने से पहले याद करना, आखिरी बार किसी मरे हुए बच्चे की मुस्कराती तस्वीर देखकर आंख गीली हुई थी क्या......