गुरुवार, अगस्त 19, 2010

तो एक और पक्षी प्रवासी हो गया...

शाम का एक ही रास्ता था। सीढिय़ां चढ़ता और अपर्णा मैम मुस्कराते हुए दरवाजा खोलतीं। झुककर पैर छूता तो कहतीं खुश रहिए। उस आवाज में नेह था। फिर हम उनके घर के खुले बरामदे में बैठ जाते। अपनी पढ़ाई की बात करता। वो सलाह देती जातीं। मैं उत्साह में बकबक करता रहता और वो आंखों में मुस्कान समेटे सुनती जातीं। जब वो घर के काम में बिजी हो जातीं, तो मैं सामने के मैदान को ताकने लगता। पुराना बरगद का पेड़, उसके सामने पड़ी जंग खाती जीप और इक्का-दुक्का टहलते जानवर। फिर कुछ बेचैनी होती तो किनारे रखे तुलसी के पौधे पर हथेलियां घुमाने लगता। उन दिनों बहुत परेशान रहता था। प्लस टू तक कानपुर में पढ़ा था, मगर फिर कुछ ऐसे हालात हुए कि अपने कस्बे उरई वापस लौटना पड़ा। मैथ्स के रजिस्टर के बीच में रखकर कॉमिक्स और नॉवेल पढ़ता था। इससे आपको अंदाजा लग जाएगा कि मैं साइंस में कितना इंटरेस्टेड था। फिर थर्ड ईयर तक आते-आते घर कैदखाना लगने लगा और पनाह लेने आ जाता, इस कोने में। फिर कॉलेज के प्रफेसरों ने जेएनयू के बारे में बताया और अपने राम तैयारी में जुट गए। मैम खूब मदद करतीं, मैं उनसे बहस करता और जब बहस टॉपिक से इधर-उधर भागने लगती, तो वे उसे फिर से ट्रैक पर ले आतीं। मैं बहुत बोलता था, वो बहुत सुनती थीं और कम बोलती थीं, मगर उनके बोले एक-एक शब्द मुझ पर असर करते थे।
फिर अप्रैल आते-आते किसी बात पर मां-पापा से डांट पड़ी। मैं बागी था, तो घर में एक अबोला सा कायम हो गया। भाई से भी किसी बात पर लड़ पड़ा और फिर घर बस एक पिंजड़ा लगा, जिससे हर हाल में दूर भागना था। उन्हीं दिनों मेरा जन्मदिन आया। मैम ने अपने घर बुलाया और एक चमकीली इंक वाला पेन और डायरी दी। उसके पहले पेज पर लिखा - तुम्हारी नई दोस्त, जिसमें तुम अपनी कामयाबी दर्ज कर सको। नीली चमकती स्याही में लिखे वो शब्द आज भी आंखों में झलकते हैं। मैंने खूब मन से तैयारी की, सामने वाले मंदिर में बसे शिव जी को खूब पानी पिलाया और एग्जाम देने लखनऊ पहुंच गया। पेपर देखती ही हंसी आ गई। गिने-चुने सवाल ही तैयार किए थे और वही सामने छपे थे। एक भी शब्द लिखे बिना अपनी बगल वाली रो में बैठे दोस्त से बोल बैठा, मेरा हो गया। तब इतनी समझ भी नहीं थी कि जेएनयू का एंट्रेंस बहुत मुश्किल होता है। कुछ एक दिन लखनऊ कानपुर रुककर वापस आया, तो शाम को मैम से मिलने पहुंच गया। उन्हें दोस्त के जरिए पहले ही पता चल गया था कि मेरा एग्जाम अच्छा हुआ है। जैसे ही मैंने घर पहुंचकर उनके पैर छुए, उन्होंने कुछ गीली-कुछ भीगी आवाज में खुश रहिए के बजाय कहा - तो एक और पक्षी प्रवासी हो गया। मेरी भी आंखें गीली होने लगीं। मैंने माहौल हल्का करने की गरज से कहा, अरे कहां मैम, अभी तो एग्जाम दिया है, देखिए रिजल्ट क्या आता है। मगर कुछ ही मिनट बाद उन्हें पूरे उत्साह के साथ बताने लगा कि इस क्वेश्चन में मैंने ये लिखा, उसमें वो लिखा।
जब रिजल्ट आया, तो मैं दिल्ली में ही था। सीडीएस का रिटेन एग्जाम क्लीयर कर चुका था और एसएसबी के लिए कोचिंग कर रहा था। जनरल में पंद्रह सीटें थीं और मेरा लास्ट नंबर था। फोन पर एक कजिन ने रिजल्ट बताया तो समझ नहीं आया क्या करूं। गला सूखने लगा। कई बार सीढिय़ों से गिरते-गिरते बचा। फिर बूथ पहुंचा और जितने नंबर याद थे, सबको फोन घुमा दिया। मगर मैम को फोन करने की हिम्मत नहीं हुई। भाई से बोला, आप बता देना।
फिर एक शाम मिठाई का डिब्बा लेकर उनके घर पहुंचा। इस बार मेरी आवाज प्रणाम बोलते हुए गीली हो रही थी। उन्होंने सिर पर हाथ रखा, तो रुलाई छूट गई। मैंने कहा था न, एक और पक्षी प्रवासी हो गया, उन्होंने कहा। मैं बस मुस्करा दिया।
जेएनयू आया तो एक नई दुनिया से पाला पड़ा। पहले सेमेस्टर से ही लाइब्रेरी से यारी कर ली। जब छुट्टियों में घर जाता, तो उनसे मिलने पहुंच जाता। मैंने ये पढ़ा, आपने उसका नाम सुना है, ये किताब जरूर देखिएगा। मैं अधभरे घड़े की तरह चहकता और बताता और वो आंखों में खुशी भरे सुनती रहतीं। फिर धीमे-धीमे ये सिलसिला कुछ कम हो गया। वो अपनी जगह व्यस्त, मैं अपने काम में मस्त। हां, जब भी घर जाता, एक बार उस कोने में जरूर जाता।
उनकी शादी हो गई। कभी फोन पर लंबी बात होती, कभी महीनों कोई संपर्क नहीं। पिछले दिनों उन्हें एक प्यारा सा बेटा हुआ। उसका नाम शांतनु है। मुझे ये सब पता है थैंक्स टु फेसबुक। किनारे एक तस्वीर देखी पिछले दिनों। बिल्कुल मम्मी के टाइम जैसे फोटो फ्रेम होते न, वैसी तस्वीर। ये मेरी अपर्णा मैम थीं। फिर बात शुरू हुई और पहले ही दिन बहस अटक गई रावण फिल्म पर। मैं उन्हें तमाम तर्क देता रहा, जब तक शांतनु जाग नहीं गया और आखिरी में उन्होंने मान लिया कि तुम जीत गए, मैंने मान लिया कि इसका क्लाइमेक्स बहुत मीनिंगफुल है। ये कहकह मैम तो चली गईं, मगर मुझे अपनी जीत सुनकर कुछ हारा हुआ सा लगने लगा। मैं कुछ भी कर लूं, कितना भी पढ़ और समझ लूं, मैम से कभी नहीं जीतना चाहता।
उस घर के कोने में अब भी शाम उतरती होगी। तुलसी अब भी हवा के साथ हिलती होगी। जीप अभी भी बारिश में भीगकर और जंग खा रही होगी। उस कोने में अभी भी मेरी कुछ यादें सुस्ता रही हैं। ये पक्षी वहां जाकर कुछ देर बैठना चाहता है। सुनना चाहता है- खुश रहिए।

शुक्रवार, अगस्त 13, 2010

भारत लाइव- इंडिया के लोगों के लिए

इस साल की विदेशी फिल्मों की कैटिगरी में ऑस्कर के लिए भारत को अपना नॉमिनेशन मिल गया। पीपली लाइव है ही इतनी उम्दा फिल्म। इसे साढ़े चार स्टार दिए जा रहे हैं, पांच नहीं, क्योंकि परफेक्ट कुछ नहीं। खैर जुमलेबाजी को पीछे छोड़ मुद्दे की बात करें, तो पीपली लाइव दरअसल भारत लाइव है। इंडिया से या कहें दिल्ली और दूसरे मेट्रो से दूर गांव, जहां भारत रहता है। गांव, जहां किसान आज भी बकरियों को गोद में थामता है, पुरुष हर चौथे वाक्य में गालियां इस्तेमाल करते हैं और सास बहू के खांटी देसी गालियों के साथ झगड़े शुरू होते हैं, मैंने खत्म नहीं कहा क्योंकि ये किसी एक के खत्म होने के साथ ही खत्म होते हैं। पीपली लाइव जरूर देखिए, जबर्दस्त फिल्म है, लगातार हंसाती है, मगर आखिरी में जब आप हॉल की सीढिय़ों से उतरते हैं, तो सिर्फ सोच के साथ। शहर के दर्शकों के पास ये एक मौका है, इस मिथ को तोडऩे का, कि उन्हें अच्छी, एंटरटेनिंग और जमीनी फिल्मों की समझ कुछ कम है।

प्रेमचंद का नाम सुना है क्या?
हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े, सुने और बताए जाने वाले कहानीकार हैं प्रेमचंद। अगर हिंदी लिटरेचर से दूर-दूर तक कोई मतलब नहीं, फिर स्कूल में हिंदी की किताब में इनकी कुछ कहानियां आपने जरूर पढ़ी होंगी। प्रेमचंद की सबसे अच्छी कहानी है कफन। ये दो किसानों की कहानी है। घीसू और माधव की कहानी। घीसू की पत्नी मर रही है और दोनों उसको तड़पते देख हिल भी नहीं रहे हैं। डर है उनके अंदर कि कहीं एक गया तो दूसरा आग में पकते आलू न खा जाए। फिर औरत मर जाती है और घीसू-माधव जो पहले से ही कर्ज में डूबे हैं, कफन के लिए पैसे जुगाडऩे चलते हैं। पैसे मिल जाते हैं और उससे ये दोनों पूड़ी-सब्जी की दावत उड़ाकर दारू पी लेते हैं और ठगिनी क्यों नैना झमकाए गाते हुए ढेर हो जाते हैं। यही है गरीबी का सच और ऐसा ही सच पीपली लाइव में दिखाया गया है। फिल्म हर उस चीज पर व्यंग्य करती है, जिन्हें ये नाज है कि हम देश चलाते हैं। सरकार, प्रशासन, मीडिया, यहां घेरे में सब आए हैं, जबर्दस्त तरीके से। प्रशासन के लिए किसान का मरना तब तक कोई खबर नहीं है, जब तक वो देश के लीडिंग इंग्लिश चैनल में प्राइम टाइम बुलेटिन का हिस्सा न बन जाए। फिर लाइव आत्महत्या की खबर के फेर में टीआरपी के मारे हिंदी चैनल भी स्पॉट पर पहुंचते हैं और जरूरी से कहीं ज्यादा गैरजरूरी चीजों की ब्रेकिंग न्यूज बनाते हैं। आपको याद है, जब राहुल गांधी गांव जाते थे, तब एक ब्रेकिंग न्यूज ये भी बनती थी कि राहुल ने पूड़ी सब्जी खाई। बहरहाल, इसके साथ ही साउथ और नॉर्थ ब्लॉक में बैठकर जो बाबूशाही देश को फाइलों में कैद करती है, उस पर भी जबर्दस्त चोट की गई है। नेतागीरी का तो कहना ही क्या, इस देश में लाशों पर राजनीति कोई नई बात नहीं है। पीपली लाइव बहुत अच्छी फिल्म इसलिए नहीं है क्योंकि इसमें व्यंग्य किया गया है। ये इसलिए भी बहुत अच्छी फिल्म नहीं है क्योंकि इसमें सभी ने बहुत सधी हुई एक्टिंग की है, जबर्दस्त गंवई ढंग से डायलॉग बोले हैं। ये एक महान फिल्म है क्योंकि इसका अंत बहुत मार्मिक और झकझोर देने वाला है।
जिसकी मौत पर हल्ला मचा है, वो तो नहीं मरता, मगर एक बूढ़ा और एक जवान जरूर मरता है। ये एक साथ दोहरी मार पड़ती है हमारे जेहन पर, क्योंकि बूढ़ा जब मरा तो किसी ने उसकी खबर नहीं ली, जबकि वही भूख से मरा और जवान जब मरा, तो उसे किसी और की मौत बता दिया गया।

कहानी के रेशे में छिपी कहानियां
मुख्य प्रदेश नाम के एक काल्पनिक स्टेट को रचा गया है, जहां के सीएम हैं यादव जी, जो जल्द ही उपचुनाव में खड़े हो रहे हैं। इसी विधानसभा में एक गांव है पीपली, जहां रहते हैं कर्ज में डूबे दो भाई - नत्था (ओंकार दास मानिकपुरी) और बुधिया ( रघुबीर यादव) । दोनों कफन कहानी के किरदारों की तरह कुछ काम करने के बजाय बैठकर चिंता करते हैं। फिर कर्ज दूर करने के लिए सीएम यादव के गुर्गे भाई ठाकुर के पास जाते हैं। वहां से उन्हें मिलती है दुत्कार और व्यंग्य में डूबी एक सलाह कि जा मर जा, किसान की आत्महत्या पर सरकार पैसे देती है। पीपली पहुंचा एक स्टिंगर यानी टेंपरेरी पत्रकार राकेश चाय सुड़कते हुए जब नत्था के मरने के ऐलान की बात सुनता है, तो खबर छाप देता है। इसके बाद कद्दू में शिवलिंगनुमा स्टोरी कर रहा हिंदी मीडिया और टीआरपी न आने को लेकर बॉस की डांट खाती इंग्लिश मीडिया इस गांव में अड्डा जमा लेती है। यहीं से शुरू होता है राजनीति, प्रशासन और एक्सक्लूसिव का खेल। ये खेल मेरे प्यारे देश के लोग टीवी पर रोज देखते हैं, फिर भी फिल्म में इसे देखकर हंसी भी आती है और अंत में एक सोच का सूत्र भी दिमाग में छोड़ जाती है। नत्था मरता नहीं है, मगर गायब जरूर हो जाता है।
इसी कहानी के समानांतर चलती है एक बुजुर्ग या कहें कि हड्डियों के एक ढांचे की कहानी, जिसका नाम है होरी महतो। होरी भी कर्ज में अपनी जमीन गंवा चुका है, मगर उसने कोई ऐलान नहीं किया या कहें कि खुद को परमशक्तिशाली समझने वाले न्यूजतंत्र को उसमें टीआरपी की गुंजाइश नजर नहीं आई, इसलिए होरी खबर नहीं बनता। होरी को सामने लाता है वही स्टिंगर राकेश, जिसे शुरुआत में तो लगता है कि पता नहीं बुड्ढा बिना कोई जवाब दिए कौन सा खजाना खोज रहा है। दरअसल होरी मिट्टी खोदकर बेचता है। फिर एक दिन उसी मिट्टी के गड्ढे में बिना कोई खबर बने मर जाता है, भूख की वजह से। ये सब देखकर राकेश के अंदर का भारत जागता है, मगर इंडिया को न राकेश की परवाह है, न होरी की। फिर नत्था की खोजबीन के फेर में में राकेश भी मर जाता है। सॉरी मैं गलत लिख गया, राकेश नत्था की खोज में नहीं, बल्कि उस शक्तिशाली तंत्र का हिस्सा बनने के लालच में मर जाता है। टीवी वाली मैडम को एक्सक्लूसिव देने के चक्कर में राकेश मर जाता है, मगर किसी को भी इसकी खबर नहीं होती। टीवी वालों के लिए तो ये नत्था की मौत थी।
फिल्म खत्म होती है और आखिरी शॉट में लौटता है इंडिया। दिल्ली में बनती मेट्रो, दिल्ली में बनती इमारतें और इन्हीं इमारतों के बीच काम करता बुधिया, गुमनाम। उसके परिवार वालों को कोई मुआवजा नहीं मिला क्योंकि नत्था हादसे में मरा है। नत्था के नाम से आत्महत्या के लिए इच्छुक किसानों की मदद के लिए बना नत्था कार्ड भी उसके परिवार को नहीं मिलता क्योंकि इसके लिए गरीबी रेखा के नीचे जीवनयावन करने वालों के जीवन को प्रमाणित करने वाला बीपीएल कार्ड चाहिए। कागजों पर चलती योजनाएं और किसानी में मरता देश, मगर दिल्ली आबाद है, तो देश आबाद है के भरम में जीते मिडल क्लास को ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए।

आप देख सकते हैं कि
पीपली लाइव सिर्फ किसानों की आत्महत्या और सरकारी इमदाद की कहानी ही नहीं है, ये इंडियन मीडिया की कहानी भी है। फिल्म में दो लीडिंग किरदार एनडीटीवी की जर्नलिस्ट बरखा दत्त और फिलहाल स्टार न्यूज में काम कर रहे पॉलिटिकल एडिटर दीपक चौरसिया से प्रेरित हैं। हालांकि हिंदी रिपोर्टर की कार्यशैली दीपक से मेल नहीं खाती, ये मेल खाती है इंडिया टीवीनुमा रिपोर्टिंग से, जिसमें मिट्टी के दबे हुए टुकड़े को भी नत्था की आखिरी निशानी बताते हुए बुलेटिन खींचा जाता है। गांव के मुद्दे पर पर भी अमेरिका को दोषी बता दिया जाता है और भेडिय़ा आया भेडिय़ा आया की तर्ज पर सब एक दूसरे के पीछे भागते हैं। शॉट बनाने के लिए कुछ नहीं मिलता, तो नत्था कितनी बार हल्का होने जा रहा है, इसके भी फुटेज तैयार किए जाते हैं। पीपली लाइव को मीडिया में बहुत जगह मिली है, पर क्या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इससे मिले सबक को भी अपने अंदर कुछ जगह देख पाएगा?
आपको देखनी ही होगी ये फिल्म क्योंकि
टीवी पत्रकार से डायरेक्टर बनी अनुषा रिजवी ने कोई भी कसर नहीं छोड़ी। एक-एक शॉट वास्तविक लगता है फिल्मी नहीं। फिल्म की भाषा में गालियों का प्रयोग किया गया है, जिस पर शहरी दर्शक सबसे ज्यादा हंसते हैं। जी हां, अब गालियों का बड़े पर्दे पर इस्तेमाल उतना बुरा नहीं रहा। महंगाई डायन के अलावा इंडिनय ओशियन का म्यूजिक खासतौर पर उनका गाना चेला माटी राम बहुत सटीक बैठता है। ओमकार दास और रघुवीर की तो हर तरफ चर्चा हो रही है, मगर बाकी किरदारों ने, जिनके नाम तलाशने के लिए शायद घंटों इंटरनेट खंगालना पड़े, जबर्दस्त एक्टिंग की है। तो फिर अगर आप हैं महंगाई के मारे या फिर हैं देश से दूर, तो देखिए ये सिनेमा क्योंकि आजादी की उमंग में डूबने से पहले कुछ सवाल पूछे जाने बाकी हैं खुद से। कहीं शहर के शोर में ये सवाल अनसुने तो नहीं रह जाएंगे।

बुधवार, अगस्त 04, 2010

झल्ली लड़की को समझाया, आई लव लाइफ

जिंदगी अजीब होती है न। एक पल किसी को कुछ समझाता और दूसरे ही पल खुद उसी चीज को समझने की कोशिश करता। मेरी एक दोस्त है। उसका नाम आशिमा है। दिल्ली में है और थिएटर कर रही है। इंस्टिट्यूट में मुझसे तीन साल जूनियर थी। तो मैं वहां हर साल अपने जूनियर्स से मिलने जाता था। पिछले साल गया तो उससे भी मुलाकात हुई। फिर फेसबुक पर दोस्ती। चुलबुली सी है और फेसबुक के किसी भी अपडेट पर फौरन कमेंट करती। मुझे लगा यूं ही कमेंट कमेंट में बात करती रहेगी झल्ली। उससे कहा अपना जीमेल आईडी बताओ। उसने आईडी एक सवाल के साथ दिया। क्या हुआ सर, कोई गलती हो गई क्या, मेरी डांट तो नहीं पड़ेगी। मैंने कहा नहीं। फिर जीटॉक पर बात होने लगी। पूरी नौटंकी है ये लड़की। कुछ भी बात करो, कहेगी सर मेरी तो हो गई सारारारा। एक नया जुमला भी सिखाया उसने मुझे - यारा, अभी तक यार सुना था, मगर ये क्यूट झल्ली जब बहुत रिदम में होती तो यारा बोलती। प्ले का रिहर्सल हो या फिर रात में एक बजे उठकर मम्मी को बताए बिना मैगी बनाना, यारा छोटी-छोटी चीजें शेयर करती। टाइम से जवाब नहीं दो, तो खूब खीजती। जब मूड में होती, तो बोलती ही रहती। मगर इधर तीन दिनों से चुप थी। मैं भी वीकएंड पर दिल्ली गया था, तो इंटरनेट से कुछ दूर ही रहा। कल रात ऑफिस से लौटा, तो उसने पिंग किया, आप मुझसे नाराज हो क्या, मैंने कहा नहीं। फिर नॉर्मल बात शुरू हो गई।
मगर कुछ ही देर में वो रोने लगी। उसने खुद ही बताया। मैंने पूछा क्या हुआ, तो बोली यारा, मेरा तो प्यार से और ऐसी ही तमाम चीजों से यकीन उठ गया है। फिर खुद ही सुबकते हुए बताने लगी कि मेरा एक दोस्त था। पिछले एक साल से मेरे सामने कुछ और दिखावा कर रहा था और असलियत कुछ और थी। कुछ दिनों पहले मैंने उसका झूठ पकड़ लिया। तबसे सदमे में हूं। मेरे लिए प्यार विश्वास का नाम है, मगर उसने मेरे विश्वास को तोड़ा है। चैट की लिंगो में मैं हर सेंटेंस के बाद हमममम करता रहा। फिर उसे समझाने की कोशिश की, कि जीना इसी का नाम है। अलग-अलग लोग, अलग-अलग सबक। मैं ये नहीं कहता कि तकलीफ होने पर रोओ मत, मगर तकलीफ को अपने घर में ठिकाना मत बनाने दो। बुरे वक्त को बीत जाने दो। उसने कहा कि इस तरह की बातों से कोई मदद नहीं मिलती। तो मैंने उसके साथ अपना मंतर शेयर किया।
इसे पिछले कुछ हफ्तों से ट्राई कर रहा हूं और अभी तक इससे काफी मदद मिली है। जब भी बहुत जोर से खीझ उठे, गुस्सा आए, दीवार पर सिर मारने का मन करे या फिर लगे कि सब कुछ मेरे साथ ही गलत क्यों होता है, तो इसे ट्राई कर सकते हो। लंबी सी सांस खींचो और खुद से कहो, आई लव लाइफ। अब याद करो कि लाइफ के पिछले कौन से हैपी मोमेंट्स थे, जो बिना दरवाजा खटखटाए तुम्हारे पास चले आए थे। तब तुम सरप्राइज्ड हुए थे, ठीक से मुस्कराए थे और फिर चुप हो गए थे। तब तो यही लाइफ अच्छी थी न। मगर लाइफ अच्छी होती है, क्योंकि इसमें वैरायटी होती है, कभी खुशी तो कभी कोई सबक चुपके से आ जाता है। तो फिर शिकायत कैसी। उस बंदे के दिखावा का तुम्हें पता चल गया, ये कुछ कम है क्या। अब सांस भरो और खुद से फुसफुसाकर कहो, आई लव लाइफ। कुछ लोगों को इसमें ऑल इज वेल की टोन सुनाई दे सकती है, तो प्यारों मंतर तो दुनिया का एक ही है, कि स्ट्रॉन्ग इमोशन में बहने से पहले खुद को कुछ वक्त दो, कुछ ठहरो, ताकि झाग थम जाए और असली सतह और रंग नजर आएं।

आजकल बहुत बिजी रहता हूं। तो आशिमा को ये सब समझाकर चैट बॉक्स बंद कर दिया। फिर घर को देखने लगा। नया घर है। दिल्ली गया था तो चंपू जी और दूसरे दोस्तों ने मिलकर सामान तो शिफ्ट कर दिया, मगर अभी सेट नहीं किया था। हर कमरे में बस सामान का ही ढेर लगा था। अचानक से लगने लगा कि कब तक यूं ही अकेले सामान, अकेली दीवारों के साथ किसी की चैट, किसी के फोन या मैसेज का इंतजार करता रहूंगा। कब तक सन्नाटे के शोर में गुमसुम खड़ा रहूंगा। यही सोचते-सोचते लाइट ऑन किए ही सो गया। सुबह उठा, तो पहले कुछ घंटे आलस में ही बीते। फिर लगा कि जैसे किसी ने फुसफुसाकर कहा, यू तो लव लाइफ न। उठ गया। अगले एक घंटे में ड्राइंग रूम सेट हो चुका था। बिल्कुल वैसा ही जैसा किसी अच्छे बच्चे का होना चाहिए। क्रॉकरी, शो पीस, वाइन ग्लासेज, टैडी, स्टोन्स, भगवान जी, सब लोग अपनी अपनी अपनी जगह पर फिटफाट। फिर कुशन भी सेट कर दिए। तीन कमरों में कम से कम एक कमरा तो जिंदगी की रौनक से भर दिया आज। अगले कुछ दिनों में बाकी कमरों में भी हरारत लाने की कोशिश करूंगा। आज ऑफिस आते टाइम पलटकर अपना ड्राइंगरूम देखा और खुद से कहा, आई लव लाइफ। आप भी इस मंतर को ट्राई कर सकते हैं, आखिर जिंदगी के सबकों पर किसी का कॉपीराइट तो है नहीं। हैव ए ग्रेट वीक चंडीगढ़