शनिवार, जुलाई 16, 2011

दिल चाहता है मिलेगी दोबारा

सौरभ द्विवेदी
दिलों में अपनी बेताबियां लेकर चल रहे हो, तो जिंदा हो तुम
जावेद अख्तर की कविता, फरहान अख्तर की कुछ भर्राई सोख्ते पर जमी भाप सी गीली और कुछ खुरदरी भी सी आवाज, स्पेन की तपस्या करती चींटियों के रंग की भूरी सी बैकग्राउंड। गुलजार सा सुरमई गीलापन लिए ये सीन फिल्म के तमाम यादगार सीन्स में से एक है। जिंदगी ने मिलेगी दोबारा में वो सब कुछ है, जो हम और आप किसी फिल्म का टिकट खरीदने से पहले चाहते हैं। तीन दोस्त, जो अलग है, मगर कहीं जुड़े हुए हैं। उनके पास खर्चने को पैसा, दिखाने को टोन्ड बॉडी और अच्छे कपड़े हैं। स्पेन की हिंदी सिनेमा के लिहाज से नई सी लोकेशन, सांड दौड़ या टमाटर फेस्टिवल के सीन जो हम न्यूज चैनलों या अखबारों के दुनिया रंग बिरंगी जैसे पन्नों पर देखते आए हैं। अच्छा डांस, लिरिक्स, खूब सारा ऑरिजिनल याराना और नॉन वल्गर मजाक। कटरीना कैफ और उनकी हिंदी, जो किरदार के हिसाब से इंग्लिश एक्सेंट वाली होनी चाहिए, इसलिए खटकती नहीं है। पहली बार नॉर्मल रोल में कल्कि, हालांकि उनके रोल में ज्यादा कुछ करने को था नहीं।
ये तो थे स्निपेट्स, नटशेल में ये समझिए कि जिंदगी न मिलेगी दोबारा, थोड़ी लेंदी, कहीं कहीं कुछ स्लो, मगर ऑल इन ऑल अच्छी, एंटरटेनिंग मूवी है।
ब्रोमैंस का नया फ्लेवर
तीन दोस्तों की कहानियां, इस पर इतनी फिल्में बन चुकी हैं कि आपको नाम गिनाने की जरूरत नहीं। पापा की जेनरेशन का फ्लेवर दिखाया चश्मे बद्दूर ने, हमारी जेनरेशन की टोन सेट की दिल चाहता है ने और अब उसका एक्सटेंशन दिखा जिंदगी न मिलेगी दोबारा में।ये ब्रोमैंस है, ब्रदरहुड वाला रोमैंस, ऐसा घ्यार, जो पागलपन भरा लग सकता है, ऐसा घ्यार जो तू मेरा भाई है वाली साइलेंट टोन लिए हुए आगे बढ़ता है।जिंदगी...इन्हीं तीन दोस्तों के मजबूत कांधों पर टिकी मजबूत कहानी है। कबीर, अर्जुन और इमरान, यानी अभय देओल, ऋतिक रोशन और फरहान अख्तर की कहानी। तीनों ने अपने अपने रोल को बहुत अच्छे से निभाया है। कभी ब्लैक फ्रेम के डेक्स्टर फ्रेम में गीकी लुक और कभी डिंपल के साज पर सजी हंसी के साथ बोलते अभय सूदिंग लगे हैं। पैसा कमाने की फिक्र में फन भूल चुके अर्जुन के रोल में ऋतिक की इंटेंसिटी अपील करती है और फरहान, उनकी एक्टिंग तो हर फिल्म के साथ बेहतर होती जा रही है। फ्लैट इमोशन के साथ घ्लेन डायलॉग और फिर एकदम से किनारे से रिसती हंसी और उस फ्लैट के पीछे के उतार-चढ़ाव सामने। जान हैं ये तीनों इस फिल्म की और अपने कैरेक्टर में जबर्दस्त ढंग से रचे-बसे।
कटरीना और कल्कि किसलिए
तीन दोस्तों की कहानी चूंकि जवानी की दहलीज पर रची जा रही है, तो रोमैंस का एंगल भी जरूरी है। इस मामले में ये फिल्म दिल चाहता है से कुछ बेहतर साबित होती है। यहां फिल्म का मेन घ्लॉट अपनी लाइफ का फलसफा और आपसी टेंशन-लगाव ज्यादा रहता है। घ्यार आता है, मगर सेंटर स्टेज पर काबिज नहीं होता। कल्कि अच्छी एक्ट्रेस हैं, मगर इस फिल्म में नताशा के रोल में उनके पास इरिटेट करने के अलावा कुछ ज्यादा था नहीं। शायद अपनी रेग्युलर इमेज से छुटकारा पाने और मेनस्ट्रीम में पहचान बनाने के लिए उन्होंने ये रोल कर लिया। कटरीना सुंदर दिखी हैं हमेशा की तरह, मगर उन्हें हमेशा की ही तरह एक्टिंग करनी नहीं आती। कुछ एक फ्रेम्स में वो फरहान के साथ ठीक लगी हैं। कैमरे के लिहाज से कहें तो अच्छी बिल्ट के कारण ऋतिक के साथ उनकी जोड़ी जमी है, मगर इमोशनल सीन में उनका चेहरा नकलीपन से भरा लगने लगता है। चादर पर लेट सितारे ताकने जैसा रूमानी ख्याल हो या फिर तीनों दोस्तों के साथ डिनर के वक्त की बातचीत, कटरीना कुछ कसर छोड़ देती हैं।


कैमरा, कविता और कुछ किस्से
रिलेशनशिप में स्पेस नहीं रह जाती और फिर किसी एक को घुटन लगने लगती है। घुटन की एक वजह होती है मोबाइल फोन, वेब कैम और ऐसी ही तमाम डिवाइस, तो आपको कभी भी ट्रैक कर सकती हैं। जिंदगी...में एक सीन है, जब कल्कि और अभय वीडियो चैट कर रहे हैं। बैचलर ट्रिप से ठीक पहले का वाकया है ये। फिर कैमरा पैन होता है, और दिखता है कि अरे ये तो एक ही बेडरूम में हैं और आने वाले कल की प्रैक्टिस कर रहे हैं। जब दोस्तों के साथ फन ट्रिप के दौरान अभय को अपनी हाजिरी इसी कैम के जरिए बजानी होगी। तो ये सिर्फ एक कैमरा या कहानी का हिस्सा नहीं, किस्से के जरिए मिला सबक है। इसी सबक का एक एक्सटेंशन दिखता है, जब तीनों दोस्तों के बीच ऋतिक का फोन सौत बनने लगता है।
बिना हाइपर हुए रिलेशन कैसे पोट्रे कर सकते हैं, इसका भी एक खूबसूरत नमूना है फरहान और उसके बाप नसीरुद्दीन शाह के बीच के सीन। नसीर ने फरहान की मां के प्रेग्नेंट होने के बाद अपनी कलाकारी के पैशन के चलते छोड़ दिया था। फरहान को दूसरे अब्बू के मरने के बाद इसका पता चलता है। जब वो तमाम उधेड़बुन के बाद नसीर से मिलता है, उनके बीच बात होती है, तो डायरेक्टर जोया अख्तर की मैच्योरिटी सामने आती है। हमने अमिताभ और दिलीप कुमार का टकराव शक्ति में देखा, अमिताभ और शाहरुख को कभी खुशी कभी गम में देखा, मगर ये उससे भी उम्दा केमिस्ट्री और कनफ्लिक्ट है। कोई मेलोड्रामा नहीं, बहुत ज्यादा डायलॉग नहीं, एक्स्ट्रा आंसू नहीं, फिर भी सब कुछ बीत जाता है आंखों के सामने से। उड़ान में हमने इस रिश्ते की टकराहट का कस्बाई रूप देखा था, ये महानगरीय या कहें कि अंतरदेशीय टकराहट है।
इसी तरह एक सीन है, जब फरहान एक हिंदी न समझने वाली स्पेनिश बाला से अपने मन की बात कहता है। वो बाला स्पेनिश में कुछ और बोलती है। फिर दोनों एक दूसरे की बात भाषा जाने बिना समझने की कोशिश करते हैं। ये सीन कहीं जाना पहचाना किसी देखी भाली फिल्म से उठाया फिर भी मासूम सा लगता है।
कैमरे की बात करें तो अरसे बाद एक फिल्म देखी, जिसमें शहर पहाड़, सड़कें और इमारतें कहानी का एक पात्र लगती हैं। लोकेशन का खूबसूरती से इस्तेमाल किया है जोया ने। उसी तरह से जावेद साहब की कविता भी फिल्म को बांधने वाले रेशमी तागे सी खूबसूरत लगती है।
कुछ कमी भी है क्या
फिल्म में दो तीन कमियां हैं। ये कुछ लंबी हो गई है। और इस लंबाई को जस्टिफाई नहीं किया जा सकता। कॉलेज टाइम की शर्त कि तीनों एक दूसरे के बताए एडवेंचर स्पोट्र्स करेंगे और उस फेर में सबका एक एक कर डर निकलना कुछ ज्यादा ही खिंचता लगता है। इसी तरह लास्ट में टाइटल ट्रैक के साथ आता गाना या बीच के एक आध गाने भी फिल्म को स्लो करते हैं। कहानी कहीं स्लो होती है, तो कोई एक दोस्त अपने बेवकूफाना किस्सों या हरकतों से उसे संभाल लेता है।
तो जिंदगी न मिलेगी दोबारा देखिए। क्योंकि इसमें जोया अख्तर का मैच्योर डायरेक्शन है। साथ ही एक अचरज भी कि एक लेडी ब्रोमैंस को, पुरुषों के खिलंदड़पन और उसके पीछे छिपे कमजोर पलों को कितनी खूबसूरती से सेल्युलाइड पर उकेरती है।

शनिवार, जुलाई 09, 2011

बहुत हाइप वाली एवरेज मूवी

'मर्डर टू देखने की क्या वजहें हो सकती हैं? महेश भट्ट के प्रॉडक्शन में बनी फिल्मों में खुलापन खूब होता है। मसलन 'जिस्म, 'पाप, 'मर्डर और अब 'मर्डर टू। इन सारी फिल्मों में सबसे ज्यादा याद रखा गया कमनीय काया दिखाने वाले कैमरे को। बिपाशा, उदिता और मल्लिका से होते हुए ये सफर अब जैक्लिन पर रुका है। वह खूबसूरत हैं और इस तरह के सीन, जिसमें अनड्रेस होना या किस करना शामिल है उन्होंने सहजता से अंजाम दिए हैं। पर क्या सिर्फ इसी वजह से ये फिल्म देखी जानी चाहिए। सीन तो कांतिशाह की फिल्मों में भी खूब होते हैं।
कॉकटेल कई फिल्मों का
फिल्म देखने की एक वजह क्राइम थ्रिलर में दिलचस्पी होना हो सकती है। मगर इस मोर्चे पर भी ये फिल्म कई फिल्मों का कॉकटेल नजर आती है। गौर फरमाइए। मेन प्लॉट 2008 में आई साउथ कोरिया की फिल्म 'द चेजरÓ से पूरा का पूरा उठाया गया है। अब इस मेन प्लॉट का भारतीयकरण कर दीजिए। एक विलेन है जो हिजड़ा है और 'सड़कÓ फिल्म में सदाशिव अमरापुरकर के महारानी वाले गेटअप में रहता है।हरकतें 'संघर्षÓ के लज्जाशंकर (आशुतोष राणा) की तरह करता है। वही पागलपन, वही वहशीपन। फिर भट्ट कैंप की ही पहले आ चुकी फिल्मों जैसा देखा-जाना हीरो है।मॉडल सी दिखती लड़की से प्यार करता है। झबरों से बाल और हल्की दाढ़ी रखता है। फिर किसी केस में फंस जाता है, या सॉल्व करने लगता है और आखिर में कामयाब हो जाता है। इमरान हाशमी नेरोलक पेंट की तरह हो गए हैं, सालों साल चले और एक सा रहे। इसके अलावा फिल्म में वही बीट वाला म्यूजिक है, जो इस बार ज्यादा हिट नहीं हुआ। चेज है, पुलिस है, मुंबई-गोवा है। यानी कुछ भी नया नहीं है, सिवाय एक चीज के। और वह चीज या कहें कि चरित्र या किरदार है प्रशांत नारायण का। उन्होंने फिल्म में धीरज पांडे नाम के साइको किलर का रोल प्ले किया है।भले ही ये किरदार 'सड़कÓ या 'संघर्षÓ की याद दिलाता हो, मगर सिहरन उससे भी ज्यादा देता है।इतने खूंखार और वहशी तरीके से उसे हत्या करते दिखाया गया है कि डर के साथ घिन्न भी आने लगती है।
कौन है ये प्रशांत नारायण
'फुलवा सीरियल में आप इन्हें देख रहे हैं। फुलवा के गुरु भइया जी। इससे पहले कई सीरियल्स में देख चुके हैं। फिल्म की बात करें तो दो-तीन हफ्ते पहले आई फिल्म 'भिंडी बाजारÓ में भी प्रशांत का अच्छा रोल था। पिछले साल आई प्रवेश भारद्वाज की फिल्म 'मिस्टर सिंह एंड मिसेज मेहताÓ में उनके लिए करने को कुछ था नहीं।मगर उनके लिए 'मर्डर टूÓ में धीरज पांडे का रोल माइलस्टोन साबित होगा। मर्डर के गाने भीगे होंठ तेरे को कत्ल के पहले जब प्रशांत अपनी पतली आवाज में गाते हैं, तो अंधेरा भी डर से कांपने लगता है। प्रशांत का किरदार धीरज अपनी औरत बाजी से इतना तंग आता है, कि हिजड़ों के पास जाकर कामुकता अनुभव करने की वजह ही खत्म कर देता है। मगर इससे उसके अंदर का वहशीपन खत्म नहीं होता। वो लगातार लड़कियों का कत्ल करता रहता है। कत्ल के दौरान वह कीर्तन में इस्तेमाल होने वाले वाद्ययंत्र चिमटे को यूज करता है। यहां बताता चलूं कि धीरज के किरदार को ऐतिहासिक अमेरिकी फिल्म 'साइलेंस ऑफ द लैंब्स के बफैलो बिल से ज्यादा से ज्यादा लिया गया है। यहां वह पेशे से मूर्तिकार है, तो बाकी औजारों को भी लड़की की बॉडी खोलने में काम लाता है। उसके कब्जाए घर में एक कुंआ है, जहां काले पॉलीथीन के ढेर पड़े हैं। कहने की जरूरत नहीं कि उनमें क्या है। इस पूरे मंजर को प्रशांत नारायण की हंसी, शांति और सीटी इतनी खूंखार बना देती है, कि आप सिनेमा हॉल में भी खौफ जैसा कुछ महसूस करने लगेंगे। मगर प्रशांत की एक्टिंग के सहारे फिल्म कितनी खिंचेगी।
कितने बरस, कितने दफा
जैक्लिन हैं, उनकी जगह कोई और भी हो सकता था। मतलब ये कि हिंदी सिनेमा की दूसरी फिल्मों की तरह भट्ट कैंप भी एक्ट्रेस को सिर्फ फिक्स सीन के लिए इस्तेमाल करता दिखता है। एक्टिंग जैक्लिन को आती नहीं, और इसकी उम्मीद भी नहीं थी। रेशमा नाम की कॉलेज गर्ल के रोल में नजर आई सुलग्ना पाणिग्रही निशा कोठारी जैसी दिखती हैं और उन्हीं की तरह जबरन मासूम दिखने की एक्टिंग करती हैं। फिल्म में कैमरा वर्क कहीं-कहीं रामगोपाल वर्मा के भुतिया सिनेमा के अंदाज में गहरे कुंए में उतरता है। इसके अलावा एक गुफा में चूहे श्रीराम राघवन की फिल्म 'एक हसीना थीÓ के क्लाइमेक्स की याद दिलाते हैं।प्रशांत नारायण के बंगले को तैयार करने में आर्ट डायरेक्टर में कमाल का काम किया है।इसमें कल्पनाशीलता कूट-कूटकर भरी नजर आती है। इसके अलावा फिल्म में ज्यादा कुछ नहीं है। स्टोरी स्लो हो जाती है, थैंक्स टु गाने एंड म्यूजिक, जो हाशमी के किरदार भागवत की गिल्ट दिखाने की कोशिश करते रहते हैं।
आखिर में
'मर्डर टू देख सकते हैं अगर टाइम पास करना हो, कुछ खुले सीन देखने हों या फिर एक साइको किलर के रूप में प्रशांत नारायण की एक्टिंग फील करनी हो। नहीं भी देखेंगे तो कुछ ज्यादा मिस नहीं करेंगे। बहुत हाइप वाली एवरेज मूवी है।
two star