गुरुवार, जुलाई 29, 2010

तुम जाना और आंसुओं पर चिपकी बारूद का हाल सुनाना

सब कहते हैं कि खुशी खिलखिलाहट लाती है, मैं नहीं मानता, कम से कम आज सुबह के बाद तो कतई नहीं। सुबह एक मीटिंग के लिए जा रहा था। उससे ठीक पहले अपना फोन चेक किया और फिर आंखों में आंसू आने लगे। मेरी सबसे अच्छी दोस्त और सबसे बड़ी दुश्मन (काम में कमियां निकालने के मामले में) का मैसेज था। उसने जेएनयू का एमफिल एंट्रेंस एग्जाम क्लीयर कर लिया था। पिछले एक हफ्ते से ऑफिस में हूं या घर में, बार बार जेएनयू की साइट खोलता, उसका रोल नंबर एंटर करता और फिर वही पेज, सेलेक्टेड इन रिटेन, इंटरव्यू इस डेट को। उस पेज का एक-एक फॉन्ट, कलर और डिजाइन याद हो गया था। मगर रिजल्ट जब पता चला तो किसी और से। सबसे पहले फोन किया, बधाई दी और फिर आंखें गीली होने लगीं। हम दोनों की। ज्यादा बात नहीं कर पाया, तो फोन रख दिया।
तो ऐसा क्या है, जो किसी की कामयाबी हंसाने के पहले रुलाती है। दरअसल इस एक लड़की की बात करूं तो चार साल से आंखों के सामने एक कहानी बनते-बुनते देख रहा हूं। जब दिल्ली में मुलाकात हुई थी, तो ये एक ऐसी लड़की थी, जो जोखिम से बहुत प्यार करती थी। जो पहाड़ी झरने की तरह थी, तेज-कुछ बेतरतीब और आवाज करती। मगर ये आवाज बहुत गौर करने पर ही सुनाई देती थी। फिर उसने नौकरी करने का फैसला किया। एक साल बीतते न बीतते उसका पुराना सपना कुलबुलाने लगा। उसे फिल्म स्टार्स के इंटरव्यू, दिल्ली की पेज थ्री पार्टियां और फैशन शो से बोरियत होने लगी। वो हमेशा से वॉर एरिया में काम करना चाहती थी। पापा आर्मी में हैं, शायद इसलिए ये चाह पैदा हो गई हो, मैंने शुरुआत में सोचा था। फिर जॉब के दौरान ही छुट्टी लेकर पढऩा शुरू किया और जेएनयू में इंटरनेशनल रिलेशंस में एमए का एंट्रेस क्लीयर कर लिया। यहां भी उसका झुकाव वैस्ट एशिया, खासतौर पर इस्राइल की तरफ रहा। उसके नॉवेल, उसकी मूवीज, उसके डिस्कशन और उसकी आदतें, सब कुछ इसी सपने के इर्द-गिर्द पनपती थीं।
आखिर क्या करेगी ये लड़की उन इलाकों में जाकर, जहां कोयल की कूक से ज्यादा आवाज बारूद की सुनाई देती है। जहां लड़ाई लाइफ का एक जरूरी हिस्सा है। मैं इतना तो दावे के साथ कह सकता हूं कि वो उस रेगिस्तान, उस बारूद से जिंदगी खींचकर लाएगी। वो हमें उन सूखे आंसुओं की कहानियां सुनाएगी, जिनके ऊपर रेत और धुंआ जम गया है। वो बुर्के और बैरल के पीछे से झांकती आंखों और उंगलियों की कहानी सुनाएगी। मुझे याद नहीं पड़ता कि इंडिया की ऐसी कितनी रिपोर्टर या रिसर्चर हैं, जो लड़ाई के दिनों में नहीं, बल्कि उन दिनों में जब लड़ाई रुटीन हो जाती है, हमें वहां की धमक सुनाती हों। मेरी दोस्त ने वादा किया है कि वो ऐसा ही करेगी।
फिलहाल वैेस्ट एशिया स्टडीज के सेंटर में एडमिशन के बाद उसका मिशन है इस्राइल जाने का। मैं कभी-कभी धमकाता और समझाता हूं, कि अगर इस्राइल का ठप्पा लग गया पासपोर्ट पर, तो बाकी सारी अरब कंट्रीज को सिर्फ नक्शे पर देखकर ही काम चलाना पड़ेगा। बताया था किसी जानकार ने, तो अपनी जानकारी उड़ेल रहा था उसके सामने। उसने बेफिक्री में कंधे उचकाए और अपनी बहुत बड़ी आंखों को कुछ समेटते हुए बोली, फिलहाल तो एक ही सपने को जी रही हूं और उसमें कोई रंग नहीं छूटने दूंगी। मैं जानता हूं कि जिंदगी इस्राइल या अफ्रीका के किसी देश में ठहर उसका इंतजार कर रही है। मैं जानता हूं कि कुछ कोरे कागज उसकी उंगलियों में थमी स्याही का इंतजार कर रहे हैं, कि कोई आए, कोई जो सैनिकों सा बहादुर और मां सा करुण हो और दुनिया के सबसे संभावनाशील देश में रहने वालों को हमारी कहानी सुनाए। कि हमारी कहानी सिर्फ एक कॉलम में ब्लास्ट की खबर और उसमें मरने वालों की गिनती बनकर न रह जाए।
इस सपने की सचाई के दरम्यान कुछ मुश्किलें भी आएंगी। सोसाइटी की मुश्किलें, लड़की होकर लड़ाई के मैदान में क्या काम, उसके अपने आलस की मुश्किलें, जिसे दूर करने में कभी फाइट तो कभी कॉफी का सहारा लेना पड़ता है। मगर जब भी इन मुश्किलों के बारे में सोचता हूं, उसकी आंखें याद आ जाती हैं। काजल के बांध से बंधी आंखें, जिनमें सपने सजे हुए हैं। सपने, जो आपको सोने नहीं देते। आज मैं बहुत खुश हूं, क्योंकि आज कोई बेटी, कोई दोस्त, कोई बाप, कोई मां बहुत खुश है और ये सब मेरे अपने हैं।

1 टिप्पणी:

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

आप की रचना 30 जुलाई, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com

आभार

अनामिका