टीवी सिरीज को फिल्म में बदलने के अपने जोखिम हैं। टीवी सीरियल 24 मिनट का और कम से कम तीन ब्रेक वाला होता है। ऐसे में हफ्तों महीनों में जिन किरदारों से राब्ता कायम होता है, उनकी हरकतों के साथ एक पहचान स्थापित हो जाती है। इसलिए आगे चलकर बार बार वो तनाव नहीं बुनना पड़ता, जो किसी किरदार को उसकी खास रंगत मुहैया कराता है। ऑफिस ऑफिस बीते बरसों का ऐसा ही सीरियल था। इसके किरदार अपनी सिग्नेचर टोन के साथ हमारी बातचीत और जेहन का एक हिस्सा बन गए थे। पानी में जो दिखती नहीं, वो छवि हूं मैं, मुसद्दी लाल नाम है मेरा, कवि हूं मैं, जैसे तमाम वन लाइनर आज भी बिना किसी जतन के याद हैं, क्योंकि ऑफिस ऑफिस सहज ह्यूमर का अड्डा था। शुक्ला जी की पान की पीक, ऊषा जी का खींचकर बोलना वही तो और भाटिया जी के रोल में गब्दू टेट्रा चिन दिखाते मनोज पाहवा का हमेशा समोसे खाते रहना, सब कुछ सरकारी तंत्र पर बुने गए व्यंग्य का एक अनिवार्य हिस्सा लगता था।
सीरियल पर इतनी बात क्योंकि इसकी थीम पर बनी फिल्म चला मुसद्दी ऑफिस ऑफिस में ये सब किरदार और यही सरल बातें होने के बावजूद कुछ मिसिंग है। कहानी उबाऊ हो जाती है, अपेक्षित हो जाती है और किरदार बिना सींग के पालतू बैल जैसे हो जाते हैं, जो अपने ऊपर बैठा कौआ भी नहीं उड़ा सकते।
कई पेच ढीले रह गए
फिल्म में पुराने सेटअप के अलावा एक नया किरदार आया है बंटी त्रिपाठी का। ये मुसद्दीलाल जी के बेटे हैं और निठल्ले हैं। इसे निभाया है गौरव कपूर ने।स्किनी से गौरव कपूर एमटीवी वी टीवी के यो टाइप प्रोग्रैम होस्ट करें और टाइम मिले तो आईपीएल मैच के पहले बेवकूफाना सवाल पूछें। फ्रेम में एक तरफ पंकज कपूर और दूसरी तरफ गौरव कपूर को देखना कागजी नींबू वाले अचार को पीतल के बर्तन में रखने की तरह है। मुसद्दी लाल के चेहरे की करुणा गौरव की ओवर एक्टिंग के चलते मजाक में बदल जाती है। और याद रहे मुसद्दी मजाक का नहीं पीड़ा से उभरे व्यंग्य का नायक है। इसीलिए वो कॉमेडी सर्कस के जमाने में कुछ भदेस ठहाकों की जमीन मुहैया कराता रहा है। इस पैच वर्क के अलावा जमे जमाए कैरेक्टर भी दोहराव के शिकार लगे हैं। फिल्म उनके ढर्रेदार डायलॉग के सहारे आगे बढऩे के जतन में घिसटने लगती है। ऐसा लगता है कि जैसे पूरी फिल्म के दौरान डायरेक्टर राजीव मेहरा इस उहापोह के शिकार रहे कि मुसद्दीलाल की टोन और चेहरे के भावों के उतार चढ़ाव के जरिए कॉमेडी पैदा की जाए या उनके आसपास जमा सरकारी जमूरों की टोली के बोल बचनों के जरिए।
कुछ भला भी लगा क्या
एक सरकारी कर्मचारी दूसरे सरकारी कर्मचारी से : कहते हैं ठीक कर देंगे, अरे हम कोई बीमारी थोड़े ही न हैं, जो ठीक हो जाएंगे।
सरकारी तंत्र की मानसिकता पर ऐसे ही कुछ मार्के वाले व्यंग्य हैं फिल्म में, जो गुदगुदाते हैं। इसके अलावा चपरासी शुक्ला का हर बात के बाद पान की पीक थूकने का मेटाफर अच्छा है। इस बारे में सोचते ही कि कोई आगे पीछे देखे बिना कहीं भी पान थूक सकता है, एक घिन सी उठती है। मगर कमाल ये कि पूरी फिल्म में वो पीक सिर्फ एक बार दीवार पर दिखाई गई। बाकी रील में कैमरे को पीक गिरने की आवाज सुनाने तक सीमित रखा गया। इस अदृश्य पीक से जो घिन पैदा होती है, वो कहीं गहरी है। दरअसल ये पीक नहीं वो बदबू है, सीलन है, जो हर सरकारी दफ्तर में भरी है। आप यहां एंटर करिए, सफेद कलई से पुती दीवारें, काली भूरी हो चुकी कुर्सियों पर झूलते बाबू, चाय ले जाता छोटू, खैनी रगड़ते चपरासी और बेअदबी से बात करते कर्मचारी नजर आएंगे।
और अंत में...
फिक्स्ड ट्रैक से हटकर कुछ अप्रत्याशित होता लगता है फिल्म के अंत में, मगर फिर ये भी लगे रहो मुन्ना भाई के घूस से तंग बूढ़े वाले सीन से प्रेरित लगता है। इसके अलावा गाने के नाम पर मुसद्दी मुसद्दी गाते मकरंद देशपांडे कहानी की सुस्ती को और भी बोझिल कर देते हैं। फिल्म में बार--बार कॉमनमैन की बात की गई है। मगर डायरेक्टर भूल जाते हैं कि आम आदमी कॉमेडी फिल्म हंसने के लिए देखने जाता है, घड़ी देखने के लिए नहीं। वह ये भी भूल जाते हैं कि अकेले पंकज कपूर के सहारे फिल्म नहीं खिंच सकती।
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