शुक्रवार, अगस्त 12, 2011

आरक्षण क्यूईडी प्रॉब्लम नहीं है प्रकाश

सौरभ द्विवेदी
अमिताभ बच्चन, मैथ्स के प्रफेसर और एक प्राइवेट ट्रस्ट द्वारा चलाए जा रहे बेहद प्रतिष्ठित कॉलेज के प्रिंसिपल। एक बार अपने दूधवाले के तबेले में छोटे बच्चों को एक थ्योरम आसान उदाहरणों के जरिए सिखाते हैं। फिर एक शब्द बोलते हैं क्यूईडी यानी क्वाइट इजिली डन। डायरेक्टर प्रकाश झा ने आरक्षण जैसे जटिल मुद्दे का भी यही ट्रीटमेंट किया है, हमेशा की तरह। यहां आप ठहरकर याद कर सकते हैं गंगाजल, अपहरण और राजनीति को, प्रकाश फस्र्ट हाफ में उम्मीदें जगाते हैं, आपस में कई स्तरों पर गुंथा प्लॉट दिखाते हैं, मगर सेकंड हाफ में पहले से तय निष्कर्षों की तरफ हांफते हुए भागते हैं। यहां उनके अंदर के निर्देशक के ऊपर अंदर का बिजनेसमैन हावी हो जाता है। फिल्म को एक ड्रामेटिक और तसल्ली शुदा अंत तक पहुंचाने की हड़बड़ी उन पर हावी दिखती है। आरक्षण में भी यही हुआ। और इसके चलते मनोज वाजपेयी की उम्दा एक्टिंग, अमिताभ की रेंज और उनके सैफ और मनोज के साथ कुछ एक इंटेंस सीन वेस्ट हो गए। आरक्षण एक बार फिर इस यकीन को पुख्ता करती है कि बॉलीवुड बड़े कैनवस पर पॉलिटिकल एंगल वाला मुकम्मल स्टेटमेंट देता ड्रामा बनाने के लिए फिलवक्त तैयार नहीं।
कौन सी डोर खींचे, कौन सी काटे
पंडित छन्नू लाल मिश्र की हवा में बेताल सी डोलती आवाज जब आलाप भरती है और सुर फूटते हैं कौन सी डोर खींचे, कौन सी काटे, तो सम्मोहन पैदा होता है। सिनेमा और संगीत अपना धर्म पूरा करते लगते हैं। ये लाइन लिखने वाले प्रसून जोशी के हाथ चूमने का मन करता है। मगर फिर पूरी फिल्म के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि झा और फिल्म के राइटर अंजुम राजाबली नौकरी में आरक्षण, दलित और पिछड़ी जातियों के अंतर्विरोध, शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण और इस मैदान पर अपने-अपने पाले में खड़े हो हुंकारें भरते तमाम मोहरों को समेट नहीं पाए। फस्र्ट हाफ में फिल्म मोहब्बतें के नारायण शंकर के अनुशासन में सांस लेते गुरुकुल जैसे कॉलेज में शुरू होती है। प्रभाकर आनंद (अमिताभ) यहां के प्रिंसिपल हैं और दीपक कुमार (सैफ) यहां के सबसे होनहार स्टूडेंट, जो जाति से दलित हैं। प्रिंसिपल साहब की बेटी पूर्वी (दीपिका) दीपक की दोस्त है और ये दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं। इस ग्रुप में शामिल है सुशांत जो ऊंची जाति का है। इन सबके जीवन में हलचल आती है तब, जब सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली बेंच सरकारी शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी कैटिगरी के लिए 27 फीसदी रिजर्वेशन के पक्ष में फैसला सुनाती है। यहीं से राजनीति शुरू हो जाती है उस कॉलेज में जो प्राइवेट होने के कारण सीधे इस फैसले से प्रभावित नहीं होता, मगर यहां के लोगों की जातीय अस्मिता अचानक जाग जाती है। इस बीच कॉलेज के ही एक कोचिंग माफिया अध्यापक फलक पर उभरते हैं और अपनी राजनीति के जरिए रिजर्वेशन पर पक्ष और विपक्ष की फांक साफकर देते हैं। यहां होता है इंटरमिशन और लगता है कि आरक्षण और अनुशासन के बीच फंसा ये प्लॉट कुछ ठोस दिखाएगा। मगर इंटरवल के बाद फिल्म फोकस हो जाती है कोचिंग माफिया के ऊपर। कैसे कुछ कॉलेज और स्कूल अध्यापक अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करते। फिर खोलते हैं महंगी कोचिंग जिसमें एडमिशन को बच्चे मजबूर हैं क्योंकि उन्हें रैट रेस जीतनी है। ऐसे सीन में कॉलेज से रिजर्वेशन पर अपने स्टैंड के चलते चलता किए गए प्रिंसिपल साहब को एक व्यक्तिगत वजह मिल जाती है कोचिंग माफिया से लडऩे की और तमाम मुश्किलों के बाद क्या गरीब, क्या पिछड़े क्या अगड़े सबके बच्चे एक तबेला स्कूल में पढ़कर अपना भविष्य सुधारते हैं क्योंकि उन्हें पढ़ाते हैं कुछ नेक आदर्शवादी विचारों वाले लोग।
इस कहानी को सुनकर और अगर आप फिल्म देखने चले गए तो देखकर समझ नहीं आएगा कि आरक्षण फिल्म पर मचे बवाल की वजह क्या है। आखिर इसमें कुछ भी तो भयंकर, क्रांतिकारी या नया नहीं। और सेकंड हाफ में तो फिल्म फिल्मी ट्रीटमेंट के जरिए सबका भला करे भगवान की तर्ज पर बात करने ही लगती है।
एक्टिंग पर कुछ बातें
जैसा मैंने पहले भी कहा अमिताभ सफेद दाढ़ी और फॉर्मल जोधपुरी सूट में नारायण शंकर की याद दिलाते हैं। हां आवाज में कड़की की जगह एक सर्द नरमी जरूर है। फिर सेकंड हाफ में अपनों और दुश्मनों से जूझते वक्त वह विरुद्ध के मजबूर और फिर संकल्पशील पिता की याद दिलाते हैं, जो लेंस के पीछे छिपी पनियाई आंखों में अपने आदर्शों को घुलने नहीं देता। आरक्षण अगर कुछ जमी तो अमिताभ उसकी एक अहम वजह हैं। मनोज वाजपेयी ने मिथलेश सिंह के रोल में एक बार फिर कमाल अभिनय किया। राजनीति में भी वही बेस्ट थे।याद कीजिए वीरेंद्र प्रताप सिंह के हवा में हाथ झुलाकर करारा जवाब दिया जाएगा वाले डायलॉग को। मनोज अमिताभ के साथ किसी भी फ्रेम में कमजोर नहीं दिखे। साझा फ्रेम की ही बात करें तो अमिताभ से आरक्षण पर उनका स्टैंड पूछते सैफ उम्मीदें जगाते लगे। कलमी मूंछें और प्लेट वाली हेयर स्टाइल और बिना टक इन किए शर्ट में वह स्कॉलर वाली टिपिकल इमेज क्रिएट करते हैं। मगर सेकंड हाफ में उनकी एक्टिंग फ्लैट हो जाती है। स्क्रिप्ट में भी ज्यादा गुंजाइश नहीं बचती उनके लिए। दीपिका शहरी लड़की के रोल में चुहल के मोमेंट्स अच्छे से क्रिएट करती हैं, अच्छा लगता है गाने को वह एक देह बख्शती हैं, मगर उनके रोल में एक किस्म के भदेसपन की गुंजाइश थी, जो उन्होंने गंवा दिया।उन्हें अपने इलीट तेवर विसर्जित करने के लिए अपने को स्टार सैफ की ओमकारा देखनी चाहिए।प्रतीक बब्बर फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी हैं, उनका रोल अधूरा, उनके हाव-भाव भौंचक्के से। एक संभावनाशील एक्टर का इस तरह वेस्ट होना अखरता है।
और अंत में...
आरक्षण निराश करती है, कई स्तरों पर। इसमें शुरू किया गया राजनीतिक विमर्श सरलीकरण का शिकार है। इसके अलावा फिल्म में कई चीजें जबरन हैं, जैसे दे दे मौका गाना, जिसका कोई ओर-छोर और औचित्य नहीं। इसके अलावा कहानी को फाइनल रिलीफ देने के लिए हेमा मालिनी के किरदार का सहारा भी जमता नहीं। आखिर आरक्षण या एजुकेशन सिस्टम पर कोई भी लड़ाई इसी सिस्टम के अंगों के सहारे लड़ी जानी है, किसी गार्जियननुमा दैवीय से दिखते हस्तक्षेप के जरिए नहीं। प्रकाश झा ने दामुल जैसी तीखी क्लैसिक फिल्म बनाई, जो नहीं चली। झा ने बड़ी स्टार कास्ट के साथ राजनीति बनाई जो सुपरहिट रही। इस फिल्म में न तो तीखापन है और न ही बड़ी स्टारकास्ट के बावजूद हिट होने की कोई वजह।


1 टिप्पणी:

Rohit Prabhakar ने कहा…

Movie Disappointed :(