शुक्रवार, जून 10, 2011

सिन की सनसनी से भरी शानदार शैतान

शैतानी बुजुर्गों को कम पसंद आती है, जाहिर है इसीलिए शैतान फिल्म उन्हें चिढ़ाती हुई, आजकल के बच्चों की तरह रैंडम और अजीब लगेगी। मगर वो कहते हैं न कि सनसनी तो सिन करने पर ही महसूस होती है। वैसे ही सनसनाहट फिल्म देखते हुए लगती रही। शैतान अच्छी है क्योंकि इसने एक बार फिर एक था राजा एक थी रानी, जैसे स्टोरी फॉर्मेट को तोड़ा। फिल्म फास्ट ट्रैक पर है, मगर ये ट्रैक सिंगल नहीं है। फिल्म में स्टार नहीं हैं, एक्टर हैं और इसी वजह से कैरेक्टर याद रह जाते हैं। कैमरा वर्क जबरदस्त है, मगर जो दर्शक अनुराग कश्यप का सिनेमा बखूबी देख चुके हैं, उन्हें इसमें बहुत ज्यादा नयापन नहीं लगेगा। बैकग्राउंड म्यूजिक कहानी के मोड़ के पहले बजने वाले जरूरी हॉर्न की तरह है, ताकि सब कुछ अनओके प्लीज न रहे। शैतान देखिए अगर लगता है कि लाइफ कूची कूची कू नहीं होती, शैतान देखिए अगर जबड़ाभींच गुस्सा आता है, शैतान मत देखिए, अगर तेज और तीखे सिनेमा से जायका बिगड़ता है।

कहानी का झोल झपाटा
एक लड़की है, बहुत सुंदर नहीं है, वैसे भी बहुत सुंदर चीजें ड्रॉइंगरूम में सजाने और बार बार पोंछने के लिए ही होती हैं। खैर, लड़की का नाम एमी है। सनकी है। द रिंग की लड़की की तरह काली कूची सी ड्रॉइंग बनाती रहती है। मां उसकी पागल हो गई, मगर लड़की की याद और आदतों में और हां आज में भी, वो जिंदा है। लड़की का नाम एमी है और उसकी मां का सायरा। ये अंदर की दुनिया की बात थी। बाहर की दुनिया के लिए एमी एक रैंडम लड़की है, जिसका बाप एनआरआई है, अभी लॉस एंजिल्स से मुंबई शिफ्ट हुआ है। एक पार्टी में एमी की मुलाकात केसी से होती है। केसी भी अमीर बाप का बेटा है। सनकी सोल्जर है। एक मॉडल एक्ट्रेस तान्या शर्मा उसकी गर्लफ्रेंड है, और सेक्सुअल रिफरेंस न लें, तो दो रियली क्लोज बॉयफ्रेंड भी हैं। एक का नाम है डैश और दूसरे का जुबिन। जुबिन गीक टाइप है, तान्या के लिए कोमल कॉर्नर रखता है और डैश एक नंबर का ... है साला, अगर फिल्म की भाषा में कहें तो। फिर एक पार्टी में मुलाकात के बाद एमी भी इस गैंग में शामिल हो जाती है। ये उन छुट्टा सांड़ों की टोली है, जिन्हें लाइफ में किक चाहिए। किक भी बालकों जैसी। तेज कार चलानी है, चिल्लान है, पानी में धक्का देना है, नशा करना है, गुब्बारे में सूसू भरकर फेंकनी है टाइप। मगर ये हरकतें तो सिर्फ इंडीकेटर हैं। असल में तो पूरी की पूरी गड्डी को टर्न करना है। तो ऐसा होता है, क्योंकि ये ग्रुप एक एक्सिडेंट कर बैठता है। पुलिस वाला वसूली चाहता है और उसके लिए ये फिर एक स्टंट मारते हैं। मगर इनकी वो हरकत अच्छे से दारू फैला देती है ( दरअसल रायता फैलना अब भदेस भाषा का मुहावरा हो गया)। फिर शुरू होती है भागमभाग और इसमें लीड करते हैं इंस्पेक्टर माथुर। कड़क हैं, शॉर्प हैं, हैंडसम हैं मगर नैनों में बदरा छाप बिना डायलॉग वाली बीवी से उनकी फिल्म के क्लाइमेक्स के पहले तक नहीं बनती। क्यों नहीं बनती ये बताने की डायरेक्टर ने जरूरत नहीं समझी। कुछ मरते हैं, कुछ बचते हैं और इसके बीच जारी रहती है कैमरे की जोरदार शैतानी। कभी ये आड़ा तिरछा हो जाता है, कभी लगता है कि पॉज का बटन बस दबते दबते रह गया और कभी फास्ट फॉरवर्ड का बटन हल्के से दब जाता है।

एक्टर लोग का लेजर बिल
मंझे और जमे कलाकारों पर सब पहले लिखते हैं, इसलिए हम पीछे से शुरू करते हैं। शिव पंडित डैश के रोल में ठीक लगे हैं। खाने के किनारे की रखी सलाद की तरह, जिसे सब खाते हैं, मगर बात चिकन और पनीर की ही होती है। उनके रोल में वेरिएशन कम था। इसके उलट नील भोपालम का जुबिना श्रॉफ वाला रोल बहुत हटकर नहीं था, मगर सेंटी और जोक के बीच उनकी एक्टिंग क्लिक कर गई। केसी के रोल में गुलशन दीवार में गुल्ली की तरह फिट हो गए। हॉट, विटी, कमीना, सनकी और फिर लास्ट में कुछ सिंपैथी बटोरता। सब केसी बनना चाहते हैं, मगर सब केसी को कुत्ता बोलकर किनारे रहते हैं। डर लगता है न। शैतान इस डर के पार जाकर हरकतें करवाता है।
राजकुमार यादव को आपने एलएसडी और रागिनी एमएमएस में देखा है। अच्छे एक्टर हैं, मगर शैतान में ज्यादा लंबे रोल की गुंजाइश नहीं बनी। कीर्ति कुल्हारी के चेहरे पर ज्यादा भाव नहीं आते, शायद इसीलिए इंडस्ट्री ने उन्हें ज्यादा भाव नहीं दिया अब तक। और एमी यानी कल्कि कोचलिन की एक्टिंग की सबसे अच्छी बात ये है कि उन्हें एक्टिंग नहीं आती। एमी का रोल हो उनके लिए टेलर मेड लगता है। जैसे इमैद शाह की एक्टिंग में कोई एफर्ट नहीं दिखता, वैसे ही नए एक्टर्स में कल्कि का रोल है। मगर हमने अब तक कल्कि को इसी तरह के थोड़े से ट्रांस और थोड़े से ट्रॉमा वाले रोल में ही देखा है। कुछ उनका लहजा और कुछ हटकर फीचर्स। कभी रेग्यूलर फ्रेम में उनकी एक्टिंग देखने का मौका मिलेगा, तो रेंज पर कुछ बात होगी। राजीव खंडेलवाल को अब टीवी भूल जाना चाहिए। देर सवेर ये पिक्चर बनाने वालों का धंधा उन्हें उनकी सही जगह देगा। गुस्सा, खीझ और गति यानी स्पीड, सब कुछ है उनके पास। आमिर के बाद न जाने क्यों राजीव को अच्छे रोल नहीं मिले।
लॉस्ट फाउंड चांद
म्यूजिक टुक टुक टुक टुक, फिर ढोलक या ड्रम की बीट। ये सुरीला शोर फिल्म के ट्रेलर के टाइम से आप सुन रहे हैं। बैकग्राउंड स्कोर नई आवाजों से लैस है। ढिंचाक या भड़ाक टाइप सैकड़ों साल की बासी साउंड नहीं है। गानों की बात करें तो पापा जी के बचपन के टाइम का गाना खोया खोया चांद बहुत अच्छे से रीमिक्स कर यूज किया गया है। बाकी गाने याद नहीं रहे, जाहिर है कि इससे आपको आइडिया लग गया होगा कि फ्रंट ग्राउंड म्यूजिक कैसा है।
डिम लाइट, एक्शन, कैमरा चालू हो गया
अब फिल्म जल्दी बनती है। वजह, कैमरे को हमेशा खूब सारी नेचरल लाइट नहीं चाहिए। वजह, लाइफ में हमेशा बहुत सारी नेचरल लाइट और हीरो हीरोइन पर हजारों वाट का फोकस नहीं होता। तो लाइट नीली हो, लाल हो या शैतान की बात करें तो हरापन लिए पीली और फिर काली हो, चीजों को उनके सही शेड में दिखाने में मदद करती है। पूरी फिल्म डार्क है, काली करतूतें गहरे रंग में ही कैद की जा सकती हैं। भिंडी बाजार के इलाके में क्रॉस फायरिंग हो या एक्सिडेंट के बाद स्लो साइलेंट मोशन में कैमरा मूवमेंट, सब कुछ अपने साथ पब्लिक को तेज और सुस्त करते हैं।
पांच और अनुराग कश्यप का फाइनल पंच
अब इस फिल्म की सबसे जरूरी बात। फिल्म के डायरेक्टर का नाम बताया गया है बिजॉय नांबियार। बतौर प्रॉड्यूसर एक नाम है अनुराग कश्यप का। ये भाईसाहब रामगोपाल वर्मा के असिस्टेंट थे। बात में तमाम फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी और आप उन्हें देव डी वाले अनुराग कश्यप के नाम से जानते हैं। अनुराग ने सत्या के रिलीज होने के बाद एक फिल्म लिखी थी, जिसमें पद्मिनी कोल्हापुरी की बहन तेजस्विनी थीं। और थे के के मेनन, आदित्य श्रीवास्तव जैसे कुछ कलाकार। पांच दोस्त, सीले अंधेरे में गुम आशंकित रॉक स्टार, उन्हें पैसे की जरूरत, एक का नकली किडनैप, फिर कोई मर जाता है, फिर कई मर जाते हैं, भागमभाग, पैसा और मिस्ट्री। सेंसर बोर्ड को लगा कि फिल्म में हिंसा बहुत है और ये आजतक रिलीज नहीं हुई। शैतान पांच की दस साल अडवांस कॉपी है। मगर आपने तो पांच देखी नहीं, तो नांबियार और अनुराग का शुक्रिया, कि वो सनक, वो सीलन सो कॉल्ड सुनहरे पर्दे पर एक नए रूप में आई। फिल्म अनुराग कश्यप की है क्योंकि इसमें उसी का मुंबई है। ये मुंबई ब्लैक फ्राइडे के चेज सीन में दिखता है, स्लमडॉग में दिखता है, उम्मीद है कि भिंडी बाजार में दिखेगा और शैतान में दिखा है। कैमरे की नजर से गंदा और वर्जिन सा मुंबई। इससे फिल्म की रेंज और नयापन बढ़ जाता है। कैमरा वर्क भी उन्हीं के स्कूल के ख्यालों से चलता दिखता है। पॉज, क्लोज शॉट या फिर बिल्कुल ऊपर या नीचे कैमरा लिटाकर शॉट। भाषा भी भदेस है, गाली है, गंदी बातें हैं, मगर यही गंदगी तो बॉलीवुड की नकली सफाई को दूर करने के लिए जरूरी है। हालांकि अनुराग इस बात से इत्तफाक नहीं रखते और ट्विटर पर सफाई देते हैं कि ये नांबियार की फिल्म है, मगर आम पब्लिक को इस तरह की मुंबइया लंतरानी से ज्यादा मतलब नहीं। फिल्म में पेस है, एक्टिंग है, ड्रामा है और इसीलिए मजा भी है। शैतान को साढ़े तीन स्टार। आधा स्टार कम क्योंकि कहीं कहीं कहानी के कुछ सिरे कुछ ज्यादा ही सिंबॉलिक तरीके से पूरे किए जाते हैं। मसलन, इंसपेक्टर माथुर की बीवी का घर से जाना और आना। खैर ये तकनीकी डिटेल्स छोड़ो और शैतान जाकर देखो, फैमिली नहीं फ्रेंड्स के साथ। जय हिंद।

2 टिप्‍पणियां:

vivekkumarjnu ने कहा…

यार सौरभ ! तुम फ़िल्म समीक्षा भी कहानी की तरह लिखते हो, पढ़ कर सोचता हूँ कि ये सौरभ की नयी कहानी है या फ़िल्म पर honestly समीक्षा ठीक लगी क्यों कि ये उन मुद्दों जैसे कौन एक्टर ठीक है, कैमरा कितना है और ये कहाँ पाँच से जुड़ती है, पर बात करती है ।
दृश्यों के symbolism पर तुम्हारी बात जमी और साथ ही तुम्हारा लहज़ा भी।
फ़िल्म देख कर और लिखूँगा।

jitendra nath jeetu ने कहा…

film ve dekha ..aur apki repot lambi chori padhi..behad honestly likha hai aapne..anurag ki kai film dekhe hai..but paanch abhi tak nahi dekhe..