मंगलवार, जुलाई 06, 2010

तुम्हारे लिए

खिलखिलाते हुए हाथ से ढापकर सफेद रंग, सबसे बड़ा झूठ बोला औरत ने,
पनियाई सी हवा के रंग की थी तब तक दुनिया

उसके ब्लाउज के किनारे जम गया था उतरती धूप के साथ कुछ नमक
सफेद रंग ने ठीक उसी वक्त खोली थीं आखें

और फिर एक वक्त तुम डर गई थीं अपनी ही परछाईं से एक साथ
आंखों में भरा और फिर छलक उठा था रंग काला
परछाई के डर से पैदा हुई रात भी बालों से लिपट काली हो गई

नमी को सहलाने के लिए तुमने बढ़ाया हाथ
तुम्हारी बांह के नीचे फूट रहे थे भूरे हरे से अंखुए
कुलबुलाती हुई उस खोह से निकला आंच में पका हरा रंग
और निकलते ही हवा में गुम गया
पत्तियां निकली थीं शाम को घूमने
लौटते में उस हरे रंग का दुशाला ओढे पीहर चली गईं
पत्तियां हरी होती हैं तुमने कहा कुछ ठहरकर ओस से

और फिर तुमने कहा प्यार
वो शर्माकर भागने लगा इस खुले निमंत्रण से
तुम झुकीं और उसे होठों से टटोल राहत देने लगीं
लजाते, थरथराते प्यार का सहारा बने होंठ लाल हो गए

मगर एक और लाल था, जिसे तुमने छुपाना चाहा,
जिसे तुमसे भी ज्यादा कुछ पल पहले शरमाते प्यार ने छिपाना चाहा,
ठोस पहाड़ों की जांघों से बह निकली जब धार
तो लाल रंग कुछ गाढ़ा होने लगा,


किनारे आ लगे थे हम
और फिर उस धार को ढांपते
कभी नमक की ढेलियों तो कभी पत्तियों से

रंग नहीं हैं दुनिया में अब मरदों
औरतों ने तुमसे झूठ बोला है

सौरभ द्विवेदी
18 फरवरी 2010