शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010

ये खेल तो बहुत बिखरा है

खेलें हम जी जान से
1.5 स्टार
सौरभ द्विवेदी

अब से कोई एकआध महीने पहले की बात है, लाडो और धूप जैसी फिल्में बनाने वाले डायरेक्टर अश्विनी चौधरी से बात कर रहा था। आशुतोष गोवारिकर की बात चली, तो उन्होंने कहा कि बॉक्स ऑफिस पर कुछ भी हो, मगर आशू हर बार कुछ नया और जेन्युइन करने की कोशिश करता है। कुछ तो गजेंद्र सिंह भाटी के छुट्टी पर होने की मजबूरी और कुछ चौधरी जी की बात का भरोसा, खेलें हम जी जान से लास्ट तक देखी। इस देखने में बी- बीच में टूटती कहानी के अलावा पीछे बैठकर कभी फोन पर बात, तो कभी बकवास करते यंगस्टर्स के ग्रुप को झेलना भी शामिल था। फिल्म देखते हुए कई बार आंखें भीग आईं। मगर इसमें फिल्म की ज्यादा महानता नहीं थी। दरअसल मैं कुछ भावुक किस्म का इंसान हूं और तिरंगा लहराते देख हर बार आंख गीली हो जाती है। तो क्या किया जाए। लिखना है तो कहानी और बाकी चीजों पर टिप्पणी करूंगा ही, मगर आपको पहली सलाह यही है कि घर पर आराम से बैठें, एकआध महीने में फिल्म टीवी पर आ जाए, तब देखें। अगर दीपिका या अभिषेक के फैन हैं और हॉल पहुंच ही गए हैं, तो फस्र्ट हाफ में मत भागें। सेकंड हाफ कुछ बेहतर है।

फिल्म की कहानी
चटगांव की कहानी है, 1930 में शुरू होती। टीएनएजर्स हैं जो फुटबॉल के मैदान पर अंग्रेजों के कैंप बना लेने से परेशान हैं। ये बच्चे पहुंचते हैं क्रांतिकारी मास्टर सूर्यसेन के पास। सुरजो दा का ये रोल प्ले किया है अभिषेक बच्चन ने। सूर्यसेन बच्चों से कहते हैं कि देखते हैं क्या किया जा सकता है। इस बीच गांधी जी के उस वादे को एक साल पूरा हो गया है, जिसमें उन्होंने क्रांतिकारियों से श का रास्ता छोडऩे की अपील की थी और वादा किया था कि एक साल में इसके अपेक्षित नतीजे सामने आएंगे। अब बंगाल के क्रांतिकारियों का दल सूर्यसेन के नेतृत्व में इकट्ठा हो रहा है। उन्होंने तय किया है कि जब मंजिल एक है, तो गांधी जी के अलावा दूसरा रास्ता भी अपनाया जा सकता है।
ये दल तय करता है कि वे एक साथ चटगांव के सभी सरकारी ठिकानों पर कब्जा कर बगावत का बिगुल फूंक देंगे। इस बीच बच्चे भी एक दिन यूरोपियन क्लब के बाहर अंग्रेजों से भिड़ जाते हैं और फिर गुस्से में भरकर सुरजो दा के पास पहुंचते हैं। वो कहते हैं कि हमें आजादी चाहिए, ताकि हमारा खेल का मैदान भी अंग्रेजों से आजाद हो जाए।
उधर कहानी में जितनी भी गुंजाइश है, उतना रोमैंस डालने के लिए इंट्रोड्यूस किया जाता है, चारुलता और कल्पना को। चारुलता का रोल बिशाखा सिंह ने प्ले किया है और कल्पना, जिन्हें पूरी फिल्म में कोल्पेना कहकर पुकारा जाता है, बनी हैं दीपिका पादुकोण। ये दोनों भी सुरजो दा के दल में शामिल हो जाती हैं। चटगांव विद्रोह की तैयारी शुरू हो जाती है। बच्चों को ट्रेनिंग दी जा रही है और 18 अप्रैल यानी विद्रोह के दिन के लिए एक एक डिटेल्स तैयार हो रहे हैं।
मगर उस दिन की स्क्रिप्ट वैसी नहीं रह पाती, जैसी क्रांतिकारियों ने सोची थी। गुड फ्राइडे की वजह से क्लब में यूरोपियन जमा नहीं होते और उन्हें वहीं बंधक बनाने की स्कीम फेल हो जाती है। उधर आर्मरी में क्रांतिकारियों को हथियार तो मिल जाते हैं, मगर कारतूस नहीं। इन दो वजहों से क्रांतिकारियों को तमाम मोर्चे छोड़कर जंगल की तरफ भागना पड़ता है और फिर शुरू होता है धरपकड़ का खेल। इस खेल को बहुत लंबा खींचा गया है। इस बीच जब भी कोई किशोर मरता है, आंखें गीली हो जाती हैं। आखिरी में सूर्यसेन भी पकड़ लिए जाते हैं और ये विद्रोह नाकाम हो जाता है।
आप सोच रहे होंगे कि कैसा कम्बख्त इंसान है, पूरी कहानी सुना डाली। अब क्या करें, थियेटर में तो आप जाने से रहे, तो कम से कम रिव्यू पढऩे का कुछ फायदा तो हो।
अतीत के बोझ तले आशुतोष
खेलें हम जी जान से देखते हुए कई बार लगान की याद आई। वहां भी सामने अंग्रेज थे, एक नैरेटर था, भारत के पुराने मैप के सहारे कहानियों की जगह दिखाई गई थी और था एक खेल। यहां तो टाइटल ही खेल से जुड़ा है, मगर जिस स्पोट्र्समैन शिप को ये रिफलेक्ट करता है, कहानी में उसका रिफरेंस बहुत कम नजर आता है। अगर जी जान से क्रांति की बात हो रही है, तो उसे खेल नहीं कहा जा सकता। अगर खेल की वजह से टीनएजर्स के भड़कने की बात हो रही है, तो उसे कन्विंसिंग तरीके से दिखाया नहीं गया।
फिल्म में दीपिका और अभिषेक के बीच का एंगल बेहद नकली है और साफ तौर पर बॉक्स ऑफिस के दबाव में ठूंसा गया लगता है। आशुतोष ने लगान, स्वदेस और जोधा अकबर जैसी फिल्में बनाईं। व्हाट्स योर राशि भी एक जोखिम भरा एक्सपेरिमेंट था, मगर खेलें हम जी जान से किसी भी तर्क और एंगल से एक सिफर कोशिश ही कही जाएगी। फिल्म देखते हुए कभी रंग दे बसंती याद आती है, तो कभी भगत सिंह पर बनी फिल्में, कई बार तो आपको दूरदर्शन पर पंद्रह साल पहले आने वाला सीरियल युग भी याद आ जाएगा। फिल्म नई जमीन, नया तरीका, कहीं भी रजिस्टर नहीं होती।
एक्टिंग क्या करें
इस बारे में कुछ भी लिखने से पहले मेरा कन्फेशन। सरकार के दिनों से अभिषेक बच्चन मुझे बहुत पसंद हैं। और दीपिका भी मुझे अच्छी लगती हैं, लव आजकल के दिनों से ही। तो अभिषेक कई फिल्मों बाद अपनी दाढ़ी से मुक्त नजर आए और उनकी एक्टिंग ठीक थी। ऐसे कैरेक्टर में वो लाउड नहीं हुए, मगर जूनियर बच्चन भी क्या करें, फिल्म की कहानी इतने हिचकोले खाती है कि इस तरह की परफॉर्मेंस का अपने आप दम निकल जाता है। दीपिका के चेहरे पर हमेशा की तरह फ्लैट से एक्सप्रेशन थे। हां, बच्चों ने शानदार रोल किया। आपको स्वदेस का चीकू याद है। वो अब बड़ा हो गया है और इस फिल्म में एक टीनएजर बना है। बाकी बच्चों ने भी अपने चेहरे और अंदाज रजिस्टर करवा दिए। चारुलता के रोल में बिशाखा सिंह दीपिका से बेहतर एक्टिंग करती नजर आई हैं। सिकंदर खेर को फिल्म में क्यों लिया गया, ये या तो आशुतोष बता सकते हैं, या अभिषेक बच्चन, जो उनके करीबी दोस्त हैं।

पोस्टमॉर्टम हाउस

खेलें हम जी जान से, भूरे कैनवस पर बहुत ज्यादा कैलकुलेशन के साथ बनाई गई फिल्म है। लोकेशन निश्चित तौर पर सब की सब नई हैं, मगर मिस्टर गोवारिकर पब्लिक पइसा खर्च करके कहानी और एक्टिंग देखने जाती
है, लोकेशन नहीं। फिल्म की कहानी बिखरी हुई है और सबसे बड़ी बात, ये कई जगह भयानक सुस्ती की शिकार है। खेलते तो हम सब जी जान से हैं, मगर फिल्म पूरे ईमान से नहीं बनाई गई है। फिल्म में म्यूजिक रहे, न रहे कुछ फर्क नहीं पड़ता। कुछ एक जगहों पर पर डायरेक्टर की कल्पनाशीलता दिखती है। मसलन, सुरजो दा, जब फांसी के तख्ते पर खड़े हैं, तो उन्हें पोल पर तिरंगा लहराता दिखता है तमाम अंधेरे के बीच। मगर ऐसे एकआध सीन इस फिल्म का बंटाधार होने से नहीं रोक सकते। फिल्म की कमजोर प्रमोशन और खाली हॉल से भी यही लगता है कि ये खेल तो बिगड़ गया।

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