इस साल की विदेशी फिल्मों की कैटिगरी में ऑस्कर के लिए भारत को अपना नॉमिनेशन मिल गया। पीपली लाइव है ही इतनी उम्दा फिल्म। इसे साढ़े चार स्टार दिए जा रहे हैं, पांच नहीं, क्योंकि परफेक्ट कुछ नहीं। खैर जुमलेबाजी को पीछे छोड़ मुद्दे की बात करें, तो पीपली लाइव दरअसल भारत लाइव है। इंडिया से या कहें दिल्ली और दूसरे मेट्रो से दूर गांव, जहां भारत रहता है। गांव, जहां किसान आज भी बकरियों को गोद में थामता है, पुरुष हर चौथे वाक्य में गालियां इस्तेमाल करते हैं और सास बहू के खांटी देसी गालियों के साथ झगड़े शुरू होते हैं, मैंने खत्म नहीं कहा क्योंकि ये किसी एक के खत्म होने के साथ ही खत्म होते हैं। पीपली लाइव जरूर देखिए, जबर्दस्त फिल्म है, लगातार हंसाती है, मगर आखिरी में जब आप हॉल की सीढिय़ों से उतरते हैं, तो सिर्फ सोच के साथ। शहर के दर्शकों के पास ये एक मौका है, इस मिथ को तोडऩे का, कि उन्हें अच्छी, एंटरटेनिंग और जमीनी फिल्मों की समझ कुछ कम है।
प्रेमचंद का नाम सुना है क्या?
हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े, सुने और बताए जाने वाले कहानीकार हैं प्रेमचंद। अगर हिंदी लिटरेचर से दूर-दूर तक कोई मतलब नहीं, फिर स्कूल में हिंदी की किताब में इनकी कुछ कहानियां आपने जरूर पढ़ी होंगी। प्रेमचंद की सबसे अच्छी कहानी है कफन। ये दो किसानों की कहानी है। घीसू और माधव की कहानी। घीसू की पत्नी मर रही है और दोनों उसको तड़पते देख हिल भी नहीं रहे हैं। डर है उनके अंदर कि कहीं एक गया तो दूसरा आग में पकते आलू न खा जाए। फिर औरत मर जाती है और घीसू-माधव जो पहले से ही कर्ज में डूबे हैं, कफन के लिए पैसे जुगाडऩे चलते हैं। पैसे मिल जाते हैं और उससे ये दोनों पूड़ी-सब्जी की दावत उड़ाकर दारू पी लेते हैं और ठगिनी क्यों नैना झमकाए गाते हुए ढेर हो जाते हैं। यही है गरीबी का सच और ऐसा ही सच पीपली लाइव में दिखाया गया है। फिल्म हर उस चीज पर व्यंग्य करती है, जिन्हें ये नाज है कि हम देश चलाते हैं। सरकार, प्रशासन, मीडिया, यहां घेरे में सब आए हैं, जबर्दस्त तरीके से। प्रशासन के लिए किसान का मरना तब तक कोई खबर नहीं है, जब तक वो देश के लीडिंग इंग्लिश चैनल में प्राइम टाइम बुलेटिन का हिस्सा न बन जाए। फिर लाइव आत्महत्या की खबर के फेर में टीआरपी के मारे हिंदी चैनल भी स्पॉट पर पहुंचते हैं और जरूरी से कहीं ज्यादा गैरजरूरी चीजों की ब्रेकिंग न्यूज बनाते हैं। आपको याद है, जब राहुल गांधी गांव जाते थे, तब एक ब्रेकिंग न्यूज ये भी बनती थी कि राहुल ने पूड़ी सब्जी खाई। बहरहाल, इसके साथ ही साउथ और नॉर्थ ब्लॉक में बैठकर जो बाबूशाही देश को फाइलों में कैद करती है, उस पर भी जबर्दस्त चोट की गई है। नेतागीरी का तो कहना ही क्या, इस देश में लाशों पर राजनीति कोई नई बात नहीं है। पीपली लाइव बहुत अच्छी फिल्म इसलिए नहीं है क्योंकि इसमें व्यंग्य किया गया है। ये इसलिए भी बहुत अच्छी फिल्म नहीं है क्योंकि इसमें सभी ने बहुत सधी हुई एक्टिंग की है, जबर्दस्त गंवई ढंग से डायलॉग बोले हैं। ये एक महान फिल्म है क्योंकि इसका अंत बहुत मार्मिक और झकझोर देने वाला है।
जिसकी मौत पर हल्ला मचा है, वो तो नहीं मरता, मगर एक बूढ़ा और एक जवान जरूर मरता है। ये एक साथ दोहरी मार पड़ती है हमारे जेहन पर, क्योंकि बूढ़ा जब मरा तो किसी ने उसकी खबर नहीं ली, जबकि वही भूख से मरा और जवान जब मरा, तो उसे किसी और की मौत बता दिया गया।
कहानी के रेशे में छिपी कहानियां
मुख्य प्रदेश नाम के एक काल्पनिक स्टेट को रचा गया है, जहां के सीएम हैं यादव जी, जो जल्द ही उपचुनाव में खड़े हो रहे हैं। इसी विधानसभा में एक गांव है पीपली, जहां रहते हैं कर्ज में डूबे दो भाई - नत्था (ओंकार दास मानिकपुरी) और बुधिया ( रघुबीर यादव) । दोनों कफन कहानी के किरदारों की तरह कुछ काम करने के बजाय बैठकर चिंता करते हैं। फिर कर्ज दूर करने के लिए सीएम यादव के गुर्गे भाई ठाकुर के पास जाते हैं। वहां से उन्हें मिलती है दुत्कार और व्यंग्य में डूबी एक सलाह कि जा मर जा, किसान की आत्महत्या पर सरकार पैसे देती है। पीपली पहुंचा एक स्टिंगर यानी टेंपरेरी पत्रकार राकेश चाय सुड़कते हुए जब नत्था के मरने के ऐलान की बात सुनता है, तो खबर छाप देता है। इसके बाद कद्दू में शिवलिंगनुमा स्टोरी कर रहा हिंदी मीडिया और टीआरपी न आने को लेकर बॉस की डांट खाती इंग्लिश मीडिया इस गांव में अड्डा जमा लेती है। यहीं से शुरू होता है राजनीति, प्रशासन और एक्सक्लूसिव का खेल। ये खेल मेरे प्यारे देश के लोग टीवी पर रोज देखते हैं, फिर भी फिल्म में इसे देखकर हंसी भी आती है और अंत में एक सोच का सूत्र भी दिमाग में छोड़ जाती है। नत्था मरता नहीं है, मगर गायब जरूर हो जाता है।
इसी कहानी के समानांतर चलती है एक बुजुर्ग या कहें कि हड्डियों के एक ढांचे की कहानी, जिसका नाम है होरी महतो। होरी भी कर्ज में अपनी जमीन गंवा चुका है, मगर उसने कोई ऐलान नहीं किया या कहें कि खुद को परमशक्तिशाली समझने वाले न्यूजतंत्र को उसमें टीआरपी की गुंजाइश नजर नहीं आई, इसलिए होरी खबर नहीं बनता। होरी को सामने लाता है वही स्टिंगर राकेश, जिसे शुरुआत में तो लगता है कि पता नहीं बुड्ढा बिना कोई जवाब दिए कौन सा खजाना खोज रहा है। दरअसल होरी मिट्टी खोदकर बेचता है। फिर एक दिन उसी मिट्टी के गड्ढे में बिना कोई खबर बने मर जाता है, भूख की वजह से। ये सब देखकर राकेश के अंदर का भारत जागता है, मगर इंडिया को न राकेश की परवाह है, न होरी की। फिर नत्था की खोजबीन के फेर में में राकेश भी मर जाता है। सॉरी मैं गलत लिख गया, राकेश नत्था की खोज में नहीं, बल्कि उस शक्तिशाली तंत्र का हिस्सा बनने के लालच में मर जाता है। टीवी वाली मैडम को एक्सक्लूसिव देने के चक्कर में राकेश मर जाता है, मगर किसी को भी इसकी खबर नहीं होती। टीवी वालों के लिए तो ये नत्था की मौत थी।
फिल्म खत्म होती है और आखिरी शॉट में लौटता है इंडिया। दिल्ली में बनती मेट्रो, दिल्ली में बनती इमारतें और इन्हीं इमारतों के बीच काम करता बुधिया, गुमनाम। उसके परिवार वालों को कोई मुआवजा नहीं मिला क्योंकि नत्था हादसे में मरा है। नत्था के नाम से आत्महत्या के लिए इच्छुक किसानों की मदद के लिए बना नत्था कार्ड भी उसके परिवार को नहीं मिलता क्योंकि इसके लिए गरीबी रेखा के नीचे जीवनयावन करने वालों के जीवन को प्रमाणित करने वाला बीपीएल कार्ड चाहिए। कागजों पर चलती योजनाएं और किसानी में मरता देश, मगर दिल्ली आबाद है, तो देश आबाद है के भरम में जीते मिडल क्लास को ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए।
आप देख सकते हैं कि
पीपली लाइव सिर्फ किसानों की आत्महत्या और सरकारी इमदाद की कहानी ही नहीं है, ये इंडियन मीडिया की कहानी भी है। फिल्म में दो लीडिंग किरदार एनडीटीवी की जर्नलिस्ट बरखा दत्त और फिलहाल स्टार न्यूज में काम कर रहे पॉलिटिकल एडिटर दीपक चौरसिया से प्रेरित हैं। हालांकि हिंदी रिपोर्टर की कार्यशैली दीपक से मेल नहीं खाती, ये मेल खाती है इंडिया टीवीनुमा रिपोर्टिंग से, जिसमें मिट्टी के दबे हुए टुकड़े को भी नत्था की आखिरी निशानी बताते हुए बुलेटिन खींचा जाता है। गांव के मुद्दे पर पर भी अमेरिका को दोषी बता दिया जाता है और भेडिय़ा आया भेडिय़ा आया की तर्ज पर सब एक दूसरे के पीछे भागते हैं। शॉट बनाने के लिए कुछ नहीं मिलता, तो नत्था कितनी बार हल्का होने जा रहा है, इसके भी फुटेज तैयार किए जाते हैं। पीपली लाइव को मीडिया में बहुत जगह मिली है, पर क्या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इससे मिले सबक को भी अपने अंदर कुछ जगह देख पाएगा?
आपको देखनी ही होगी ये फिल्म क्योंकि
टीवी पत्रकार से डायरेक्टर बनी अनुषा रिजवी ने कोई भी कसर नहीं छोड़ी। एक-एक शॉट वास्तविक लगता है फिल्मी नहीं। फिल्म की भाषा में गालियों का प्रयोग किया गया है, जिस पर शहरी दर्शक सबसे ज्यादा हंसते हैं। जी हां, अब गालियों का बड़े पर्दे पर इस्तेमाल उतना बुरा नहीं रहा। महंगाई डायन के अलावा इंडिनय ओशियन का म्यूजिक खासतौर पर उनका गाना चेला माटी राम बहुत सटीक बैठता है। ओमकार दास और रघुवीर की तो हर तरफ चर्चा हो रही है, मगर बाकी किरदारों ने, जिनके नाम तलाशने के लिए शायद घंटों इंटरनेट खंगालना पड़े, जबर्दस्त एक्टिंग की है। तो फिर अगर आप हैं महंगाई के मारे या फिर हैं देश से दूर, तो देखिए ये सिनेमा क्योंकि आजादी की उमंग में डूबने से पहले कुछ सवाल पूछे जाने बाकी हैं खुद से। कहीं शहर के शोर में ये सवाल अनसुने तो नहीं रह जाएंगे।
शुक्रवार, अगस्त 13, 2010
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5 टिप्पणियां:
सौरभ आज ही फ़िल्म देखी। लम्बा लिखना है , वो बाद में, खैर.. होरी महतो की मौत का प्रसंग और फ़िल्म के आखिरो शाट में हिलता हुआ कैमरा जो नोयडा के टोल ब्रिज से होता है हुआ नत्था पर रुकता है जो मजदूर बन गया है और दिल्ली के वो होर्डिन्ग्स जो उस शाट में दिखते है इस व्यव्स्था प एक तमाचा है। फ़िल्म का आखिरी शाट अनुशा रिजवी(?) की काबिलियत का सबूत है। फ़िल्म है तो बढ़िया है ही ।
जय जय. बढ़िया है.
सर आपके लेख से प्रभावित हूँ , करीब दो साल बाद मैं मूवी देखने जरुर जाऊंगा. दरअसल मैं ऐसी ही फिल्म का इंतज़ार कर रहा था. बुहत सुन्दर विश्लेषण है.
भारत लाइव तो पढ़ लिया । अच्छा लगा । अब पीपली लाइव देखी जाए । बाकी बातें तभी सही ।
सर आपके लेख के बारे में क्या लिखूं वो तो हमेशा की तरह उम्दा है ही और पीपली लाइव मेरे पास शब्द नहीं हैं...क्योंकि थियेटर की सीढि़यां उतरते हुए मैं खामोश था...असलियत से वास्ता जो पड़ गया
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