जस्ट जिंदगी क्योंकि सब
कुछ जिंदगी के लिए ही है। ऑफिस का कॉम्पिटिशन, सुबह की जॉगिंग, थिएटर में पॉपकॉर्न टटोलती उंगलियां या फिर सोने के पहले सोचने जैसा कुछ, यही सब मिलकर बनाता है जिंदगी को। हमें इस जिंदगी से तमाम शिकायतें हैं, मगर उन शिकायतों की पूंछ में लिपटी आती हैं तमाम उम्मीदें और उन्हें पूरा करने के लिए जोश।
हमारे मकसद में एक तपिश है, जो मुश्किलों के पहाड़ को धीरे-धीरे ही सही, पिघलाने का माद्दा रखती है, बशर्ते हम ठंडे न पड़ जाएं। इसलिए जिस कोने में कभी आपकी सेहत, तो कभी आपकी जेब को बचाए रखने और बेहतर करने के नुस्खे सुझाए जाते हैं, उस पर हमने इस बार जिंदगी की हरारत से जुडे़ कुछ ख्यालों को जगह दी है। वजह सिर्फ इतनी कि जिंदगी को बांहों में भींचने के लिए हमें भी तो कुछ करना होगा। तो नए साल से पहले जिंदगी को नई नजर से निहारने की कोशिश
खिल-खिल-खिल कर हंस दें
एक ही स्कूल, कॉलेज और दफ्तर में तमाम ऐसी शक्लें हैं, तमाम ऐसी आवाजें हैं, जो कभी हमें पसंद थीं। फिर एक दोपहर या शाम किसी बहस ने जंबो साइज हासिल कर लिया और हमारी मुस्कानों के बीच में इगो का सोख्ता आ गया, जिसने रिश्तों की सारी नमी को सोख लिया। कोई दोस्त, कोई कलीग या फिर कोई रिश्तेदार, जिसके साथ आपने कभी न कभी कुछ अच्छा वक्त जरूर बिताया है, अब उससे बात करने का, उसे देखने का दिल भी नहीं करता। तो कोशिश करें कि अच्छी यादों को बुरी यादों के ऊपर जीत हासिल हो। हम यह नहीं कहते कि ऐसी हर गलतफहमी या मनमुटाव को खत्म कर धर्मात्मा बन जाएं, मगर हां चुप्पी के कुछ सन्नाटों को एक हंसी के कहकहे के साथ खत्म किया जा सकता है। क्या पता आपकी हंसी फिर से नमी पैदा कर दे? और हां इन सबसे दूर हंसी की डेली डोज भी जरूरी है। आपसे किसी ने कभी तो कहा होगा, वेन यू स्माइल, यू डू वेल। सो डू वेल इन लाइफ।
हरी-भरी दुनिया पर टिकती हैं आंखें
ऑफिस है, काम है, घर की जिम्मेदारियां हैं, बीवी है, बच्चे हैं, एक फिक्स्ड रुटीन है। दोस्त हैं, दुश्मन हैं, सब कुछ है, मगर फिर भी कुछ है जो अधूरा-सा लगता है। शायद हमारे आसपास बदलती दुनिया के साथ हमारा रिश्ता बड़ा कामकाजी-सा हो गया है। तो फिर हम एक नए कुछ-कुछ बचपने-से-भरे एक्सपेरिमेंट पर हाथ आजमा सकते हैं। एक नन्हा-सा गमला, जिसमें हम खुद से इंतजाम कर भरेंगे, संडे की सुबह मिट्टी। मिट्टी भरते समय एक लंबी सांस ताकि नाक जो गीली मिट्टी की खुशबू भूल चुकी है, ताजादम हो जाए। इस सबके बाद अपनी पसंद का कोई एक पौधा। ये तुलसी भी हो सकता है और गुलाब भी।
उस पौधे या कलम को गमले में रोप दें। थोड़ा-सा पानी, थोड़ी-सी धूप, इसका रखें ध्यान। और हां कुछ ही दिनों बाद वह पौधा, जो आपकी स्टडी टेबल वाली खिड़की या रोशनदान के नीचे वाली जगह पर सुस्ता रहा है, आपका ध्यान खींचने लगेगा। उसका बढ़ना, उसके जिस्म पर नई-नवेली पत्तियों का आना, उसकी तली यानी मिट्टी में भुरभुरापन पैदा होना, सब कुछ आपको अलहदा लगेगा। दरअसल, मन किसी को हमारे प्यार की हरारत पा बढ़ते देख खुश हो जाता है। तो जनाब देर किस बात की, एक गमला तलाशना शुरू करिए और हां याद रखिए, हमारे अपने भी ऐसी ही हरारत की उम्मीद रखते हैं।
कह दूं तुम्हें
ऑफिस में बॉस की नई टाई नोटिस करते हैं, मगर बीवी ने कान के बुंदे कब बदले, यह याद नहीं। स्टेशनरी खत्म हो गई, यह याद है, मगर बेटी के कलर ब्रश लाना रोज भूल जाते हैं। आपकी डेस्क कुछ ज्यादा साफ है, होटेल में वेटर ने वाकई अच्छी-सी मुस्कान के साथ सर्व किया या फिर उम्मीद के उलट ब्लूलाइन के कंडक्टर ने या फिर ऑटो वाले ने मुस्कराकर आपको चौंका दिया, हर बार जरूरत होती है झिझक या सुस्ती को कंधों से झटकर थैंक्यू बोलने की, कॉम्प्लिमेंट की खुराक देने की।
हममें से हर कोई बदलाव को नोटिस करता है, अच्छी चीजों को अपने-अपने तईं याद रखता है, मगर फिर हम उन्हें बोलने से मुकर जाते हैं। लगता है क्या सोचेगा सामने वाला इस तरह से खुद को, खुद की चीजों को नोटिस किया जाते देखकर। सोचेगा, जरूर सोचेगा, मगर यकीन मानिए, सच्चे दिल से की गई सच्ची तारीफ उसे कुछ अच्छा ही सोचने पर मजबूर करेगी। तो फिर कह दीजिए दिल की बात, अपनों से। कुछ अपने ही अंदाज में। यह अंदाज मिसिंग यू का एसएमएस भी हो सकता है या फिर किसी पुराने दोस्त को फोन कॉल या ईमेल। प्यार भरी थपकी या फिर आंखों में ढेर सारी मीठी शरारत घोलकर बोला गया थैंक्यू भी जादू कर सकता है। तो नए साल को एक्सप्रेशन का साल बनाइए और कह ही दीजिए।
बोल के लब आजाद हैं तेरे
सड़क में गड्ढे क्यों हैं, ऑफिस में लोग दूसरों की सुविधा का ध्यान रखे बिना घंटों गॉसिप क्यों करते हैं, एक सुबह अगर हम खुद को आईने में देखें और बूढ़ा पाएं, तो ऐसे तमाम सवाल या ख्याल हमें घेरे रहते हैं और उनके बारे में सोचकर हम कसमसाते भी खूब हैं, मगर ऐसी कसमसाहट का क्या फायदा। वो कहते हैं न कि जिस गुस्से से कोई गुल न खिले, उसके होने का क्या फायदा। तो अपने आसपास की बातों के लिए, अपनी यादों के लिए या किसी और की कहानी को दुनिया को सुनाने के लिए ही सही बोलिए और अपने अंदर की आवाज को बाहर आने दीजिए। इंटरनेट की दुनिया है, चंद मिनटों की मेहनत से अपना ब्लॉग तैयार किया जा सकता है। किसी वेब पोर्टल के लिए कंटेंट तैयार किया जा सकता है। चंद हजार में आपकी अपनी वेबसाइट। हर मीडिया एजेंसी को तलाश है ऐसे ही लोगों की जो कुछ बोलना चाहते हैं, क्योंकि जमाना सिटिजन जर्नलिस्ट का है। मोबाइल पर बोलते हैं, दिन में आधा घंटे एसएमएस टाइप करते हैं।
तो ऐसा नहीं है कि इंडिया बोलता नहीं है, मगर इस साल ये बोल औरों तक मुकम्मल ढंग से पहुंचें, इसका इंतजाम करें। आप रेजिडेंट वेलफेयर असोसिएशन में बोलें, किटी पार्टी के बीच में बोलें, पैरंट्स मीटिंग में बोलें, मगर जब भी बोलें, दिल से बोलें। जिन चीजों को आपने महसूस किया है, उन्हें बोलें। और हां, अगर सबके साथ अपने ख्याल साझा करने से परहेज है, तो एक दिन स्टेशनरी की दुकान के सामने रुक जाएं और अपने लिए चमड़े के जिल्द या चिड़िया के कवर वाली डायरी या कॉपी खरीद लें और इसी पर लिखें। पहला हर्फ लिखने से पहले 15 मिनट से कम नहीं लगेंगे, मगर एक बार सिलसिला निकल पड़ा तो फिर थमाए नहीं थमेगा। तो फिर बोल क्योंकि जबां अब तक तेरी है।
वॉक पर चलें क्या
सर्दियों की शाम और गर्मियों की सुबह नेचर ने उन लोगों के लिए बुनी है, जो सपनों को चुनना जानते हैं। अच्छा गोल-गोल बात नहीं, पर बताइए आखिरी बार अपनों के साथ या खुद अपने साथ वॉक पर कब गए थे? यूं ही शरीर को कुछ सुस्त-सा छोड़कर, कदमों को खुद अपनी थाप पर डोलते देखने का मन नहीं करता? एक जर्मन थिंकर था नीत्शे। कहता था कि दुनिया के सारे महान ख्याल टहलते हुए ही आते हैं। तो फिर टहलिए। कोई वक्त तय नहीं, कोई रूट तय नहीं। बस यूं ही खाना खाने के बाद या शाम की चाय से पहले टहला जाए। आसपास की चीजों को कुछ ठहरकर देखा जाए।
हो सकता है कि एक दुनिया समानांतर बसी हो, जिसे टाइम से ऑफिस पहुंचने या फिर जल्दी घर पहुंचने के फेर में कभी देखा ही न हो। खैर दुनिया की छोड़िए और अपने भीतर की दुनिया का ही हाल जान लीजिए। पार्क में या फिर कम ट्रैफिक वाली सड़क के फुटपाथ पर या फिर दिन के शोर से दूर किसी चुप से मैदान में टहलिए और दिमाग को डोलने दीजिए, जहां दिल करे। यकीन मानिए कुछ बेहतर महसूस करेंगे। तो फिर सोचना कैसा, वॉक पर चलते हैं। धुंध के बीच अपने ख्यालों के साथ पार्टनरशिप करते हैं और फिर घर में घुसने से पहले सिर्फ अपने कानों को सुनाते हुए कहते हैं - हेलो जिंदगी।
छोटी चीजों का सुख
कार कब ले पाऊंगा, अपने घर का क्या होगा, मशीन है मगर पूरी तरह से ऑटोमैटिक नहीं। बीवी से बनती नहीं, बॉस समझता नहीं और बच्चे, अजी कुछ पूछिए मत, कम्बख्त पढ़ते ही नहीं। तो बड़ी शिकायतें हैं हमें जिंदगी से, अपने आसपास से और उनसे पार पाने के लिए हम किसी बड़े सुख का इंतजार करते हैं। कुछ भारी-भरकम सा, बहुत अच्छा-सा होगा। सुबहों का रंग और शामों की खुशबू बदल जाएगी। मगर इस बड़ी खुशी के इंतजार में हम छोटी खुशियों को फुटपाथ किनारे ठिठुरता छोड़ देते हैं, घर लाने के बजाय। संडे सुबह की खूब अदरक वाली कड़क चाय पीते हुए बतियाना या फिर रात गए रजाई के ऊपर ही मूंगफली से मुठभेड़ करना। सब भूल गए, वक्त की आपाधापी में। सच बताएं, भूले नहीं, मगर अब महसूस नहीं करते। दाल अब भी खाते हैं, मगर उसमें ताजा धनिया पत्ती पड़ी है या फिर लहसुन, पता ही नहीं चलता। मां या पत्नी या बेटी ने नई ड्रेस पहनी और बहुत प्यारी लग रही है, मगर ठहरकर उनको देखने का सुख नहीं लपकते।
पसंदीदा गाने के बोल खोजने की कौन कहे, अब तो गाने भी पूरा वक्त देकर नहीं सुने जाते। ड्राइव करते या काम करते हुए बैकग्राउंड के शोर की तरह गाने सुने जाते हैं। किताबें सिर्फ बीते बरसों या अधूरे सिलेबस की याद दिलाती हैं। मगर इन्हीं में छोटे-छोटे सुख छिपे हैं। इन्हीं से जुड़ी चीजों को करने में कभी बहुत लुत्फ आता था। हिम्मत न हारिए, बिसारिए न राम, सो अपने राम को आज से ही काम पर लगा दीजिए। कभी स्टोररूम से पुरानी मैगजीन निकालकर पलटिए या फिर एक दिन कॉपी का पिछला पन्ना फाड़कर किसी दूर के रिश्ते की बुआ या मास्टर बन चुके यार को खत लिख डालिए। हो सकता है कि दसियों बरस पहले बनाई गई अड्रेस बुक ढूंढने में वक्त लगे, मगर इस तरह से वक्त खर्चने का अलग मजा है।
इन छोटी चीजों के सुख में आदतों को सहलाना शामिल है तो सभ्यता को ठेंगा दिखाते हुए हाथ से चावल खाना भी। बस ऐसा कुछ जो अच्छा लगे, जिंदगी के पूरेपन का एहसास कराए।
खुद की मुहब्बत में पड़ गए
और अब इस बार की आखिरी बात। हमें सब प्यार करें, इससे पहले जरूरी है कि खुद हम खुद से प्यार करें। और खुद से प्यार करना उतना ही मुश्किल है, जितना बीवी को रिझाना या गर्लफ्रेंड से पहली बार दिल की बात कहना। खुद से प्यार तभी कर पाएंगे, जब खुद के सपनों के साथ ईमानदारी से पेश आएंगे। अपनी क्षमताओं के साथ इंसाफ करेंगे और अपने लिए सबसे ज्यादा सख्त बनेंगे। मगर जनाब सवाल सिर्फ सख्ती का नहीं है। खुद से प्यार करने के लिए खुद को छूना, महसूस करना और देखना भी जरूरी है। कभी सुबह ब्रश करते या शाम को कंघी करते हुए अचानक शीशे पर नजर ठहर जाती है और हम खुद की शक्ल को एक अलग ही ढंग से देखने लगते हैं। यह मैं हूं, ऐसा दिखता हूं, मेरी आवाज ऐसी है और दुनिया मुझे और मेरे काम को इस नाम के साथ जोड़ती है। या फिर ऐसा ही कोई पहली नजर में अजीब-सा लगता ख्याल। तो फिर जल्दी से शीशे के सामने से हटने के बजाय खुद को नजर भरकर देख लें। अपनी जरूरतों का, अपनी हेल्थ का और अपने स्वादों का ख्याल रखें, मगर ऐसे कि खुद से प्यार हो जाए, खुद पर दुलार बढ़ जाए।
नए साल में क्या कर सकते हैं, यह तो आप ही बेहतर जानते हैं। चलते-चलते सिर्फ इतना ही कि जेनरेशन एक्स, वाई, जेड के लोग अपनों से छोटों और बड़ों की बातों को हमेशा खारिज करने के बजाय समझने की कोशिश जरूर करें। और हां, नए दौर के लोग खासतौर पर अपने विचारों को कुछ वक्त के लिए ही सही, साइड पॉकेट में रखकर बुजुर्गों की सुन लें, क्योंकि जो उनके पास है वह कहीं नहीं। किसी कवि की इन पंक्तियों के साथ आप सबको हैपी जिंदगी का नया साल मुबारक हो।
संभावनाओं से लबालब भरा हुआ ये साल
यदि बस में होता मेरे
तो बांध देता इसे मां के पल्लू से
और फिर रोज मांगता उससे
एक खनकता हुआ दिन।
रविवार, दिसंबर 27, 2009
ऐ जिंदगी गले लगा ले
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zindagi
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4 टिप्पणियां:
बहुत उम्दा पोस्ट लिखी है।बहुत बहुत बधाई।
है ना मुश्किल जिंदगी को समेटना ....कई बार सोचा के आज शायद सकेर कर किसी सफ्हे पे डाल के छूट जायेगे ...र..पर बारहा .जुदा शक्ल लेकर रोज दरवाजा खटखटा देती है ..........कभी कभी हमशक्ल सी किसी ओर सफ्हे पे दिखती है ........
तुम्हे पढना किसी रूमानी अहसास से गुजरना लगा...... ..शानदार .पोस्ट......बेमिसाल .अंदाज ....बिलकुल ऐसा जैसा मुझे लिखने की कई बारखवाहिश हुई है .....
आपको पढ़ना बहुत ही अच्छा लगा। आप न सिर्फ अच्छा लिखते हैं ब्लकि सोच भी उम्दा है। भाषा पर तो जबर्दस्त पकड़ है।
गड्गडा दिए गुरु !
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