मंगलवार, अक्तूबर 27, 2009

मेज पर मरे हुए बच्चों की मुस्कान और जय जिहाद

मेज पर मरे हुए बच्चों की मुस्कान...
यूनिवर्सिटी की उस पहाड़ी पर शाम के धुंधलके में सिगरेट का धुंआ कसैलापन पैदा नहीं कर रहा था। बीयर के कैन की टिन कभी उठते-खिसकते स्किन से छू जाती, तो बदन चिहुंक जाता, मगर जाने का मन नहीं करता। छह दिन कुढ़ने, जलने और कटने के बाद ये संडे आया था और इसे यूं ही नहीं बीतने देना था। शाम हल्की और फिर तेजी से सांवली हो रही थी और चट्टान पर परसते न पसरते याद आ रहा था कि कुछ ही देर में सामने का जंगल भी ठंड से बचने के लिए धुंध की चादर ओढ़ लेगा।
उसकी आंखों में शाम बीतने के साथ लाली उतर रही थी, गोया डूबते सूरज से उधार लेकर आई हो। नहीं, हिंदुस्तान की फौज हमें तबाह कर रही है, आप लोगों तक तो खबरें भी नहीं आ पाती हैं। सचाई जाननी है तो यहां दिल्ली में बैठकर मैगजीन पढ़ना बंद करो। एक बार घाटी में जाओ, धुंध की चादर-वादर सब भूल जाओगे। चार बोतल का नशा चार सेकंड में उतर जाएगा मियां। जब कनपटी के बगल से गोली निकलती है न, तो दिमाग यह पूछने के काबिल नहीं रह जाता कि ये पीतल दहशतगर्द उड़ेल रहे हैं या फौजी।
मुझे लगा जावेद की बात में दम है। इसलिए नहीं क्योंकि हाल ही में शोपियां और उसके बाद एक और स्टूडेंट के केस में पुलिस, फौज की ज्यादती सामने आई है, इसलिए भी क्योंकि वो खुद उसी कश्मीर का रहने वाला है, इसीलिए उसकी बात चाहे सही लगे या गलत, सुनी जानी जरूरी है। जावेद चालू था कि आज भी उसका पासपोर्ट कुछ ज्यादा देर तक चेक किया जाता है और जैसे ही वो बोलता है कि मैं कश्मीरी मुसलमान हूं, हवा कुछ ठहरकर बहने लगती है।
सिगरेट बुझ चली थी, मगर बात इतनी गर्म हो चुकी थी कि दूसरी जलाने का जी नहीं किया किसी का। यार बाकी सब तो ठीक है जावेद, मगर आजादी की लड़ाई में जब मजहब की बात लाई जाती है, तो दिक्कत पैदा होती है। मान लिया कि कश्मीरी हिंदुस्तान और पाकिस्तान किसी के साथ नहीं रहना चाहते, मगर इसे इस्लाम की लडा़ई, जिहाद कैसे कहा जा सकता है।
बंद करो ये सब राजनैतिक बातें यार, हफ्ते के छह दिन तो यही सब चलता है। साइंस रिपोर्टर ने फरमान सुनाया। सबको लगा कि बात वाजिब भी है और जायज भी। एक बार फिर बीयर के सुर्ख सुरूर में ठंड से गुफ्तगू शुरू हो गई। यार चखना बढ़ाना जरा, सलीम बोला। सलीम का किरदार भी दिलचस्पी की हदें छूता है। मल्लू है, ऐसा वो खुद बोलता है, मगर हिंदी में बात करना पसंद करता है। उसके घर में कुरान-शरीफ के बगल में शिवलिंग रखा है। म्यूजिक बनाता है क्योंकि उसे लगता है कि यही सबसे बेहतर तरीका है दुनिया को बेहतर बनाने का। सचिन के लिए किसी से भी भिड़ जाएगा, मगर क्रिकेट मैच कभी लाइव नहीं देखेगा। पूछो तो वही जवाब, यार ये धुकधुकी जो है न, ये मुझसे बर्दाश्त नहीं होती सचिन को देखते वक्त।
हां तो हम बात कर रहे थे सलीम की, ओए नमकीन बढ़ा जरा, नमकीन वाला अखबार बढ़ा दिया गया, मैं चीखने को हुआ, ये क्या बे, आज के ही अखबार पर फैला दी, सब तेल हो गया, मेरी पेज वन बाईलाइन छपी थी। कम्बख्तों तुम्हें नरक भी नसीब नहीं होगा। ठहाके तेज हो गए। लाइटर जलाकर उस खबर को देखा जाने लगा। भाई लोगों में से एक ने बुलंद आवाज में आसपास के जंगल, झाड़ी औऱ पहाड़ों को सुनाते हुए खबर पढ़ना शुरू किया। बीच में ब्रेक भी लिए क्योंकि बकौल उनके यार हिंदी पढ़ने में लग जाती है, आदत ही नहीं रही, बोलते वक्त तो एकदम सूंसूं रफ्तार, मगर पढ़ने में बाप रे। खबर एक पाकिस्तानी शख्स राणा शौकत अली के बारे में थे। अब उन लोगों ने कैसे पढ़ी सुनी सो छोड़ो और हमारी जबानी ही मसले की झलक पा लो। वैसे ये खबर के पीछे की खबर है और इसमें रंग कुछ गाढ़े और लकीरें कुछ तिरछी हो गई हैं, ताकि तस्वीर मुकम्मल रहे...
राणा पाकिस्तान के पंजाब सूबे के फैसलाबाद जिले में किराने की दुकान चलाते हैं। पतली-महीन सी आवाज, एकबारगी सुनने पर दिल्लगी का मन करे कि क्या यार, नाम राणा और आवाज रनिवास से आती हुई। बहरहाल, राणा की कहानी सुनने के बाद दिल्लगी का ख्याल भी नहीं आएगा, जेहन में। राणा फरवरी 2007 में नोएडा के पास एक गांव में खेती कर गुजारा कर रहे भाई की बेटी में शिरकत करने आए। राणा और उनकी बीवी और छह बच्चे। समझौता एक्सप्रेस से वापस जा रहे थे। राणा खिड़की के किनारे बैठे खैनी रगड़ रहे थे। बेगम छुटकी को गोद में लिए कभी सो जातीं तो कभी उसके हिलने पर पुचकार फिर सुलाने लग जातीं। बाकी बच्चे नींद के कच्चेपने से बेपरवाह थे। शायद बाजी और अम्मी की डांट के बाद जागकर ऊधम मचाने की गुंजाइश बची भी नहीं थी। एकदम से राणा को बोगी में अजीब सी गंध आती लगी। झुककर हथेली सूंघी कि कहीं मिलावटी तंबाकू तो नहीं रगड़ मारी, मगर तब तक गंध फैल चुकी थी। राणा फौरन दूसरे मुसाफिरों को जगाने लगे। गाड़ी आधा घंटा पहले ही पानीपत से गुजरी थी, इसलिए चाय पीकर झपकी लेने वाले फौरन जाग गए। इतने में जोर का धमाका हुआ और गैस और भी तेजी से फैलने लगी। राणा ने चीखकर बीवी को आवाज दी, मगर दूसरे धमाके में वो आवाज भी दब गई। बीवी ने सबसे छोटी आइसा को छाती में दबाया और बाहर की तरफ लपकी। जबतक गेट पर पहुंची, उसे याद आया, या खुदा बाकी बच्चे तो सो ही रहे हैं। मोहतरमा वापस लौटतीं, उससे पहले ही गैस का एक झोंका और आया और आग तेज हो गई। पीछे से किसी ने उन्हें धक्का दिया और तब तक बोगी जलने लगी। हवा थी, धुंआ था, चीखें थी और थी बेबसी। किसी की बीवी, किसी का बच्चा, किसी की मां तो कोई बेवा। एक-एक करके 69 जिंदा जल गए। कितना अजीब लगता है न ये बोलना, लिखना जिंदा जल गए। हाथ पर जरा सी गर्म बूंद मिजाज गर्मा देती है। यहां पूरा का पूरा शरीर जला। पहले सफेद हुआ, फिर सुर्ख और फिर आगे लिखे न जाने वाले रंग में तब्दील होता।
पुलिस आई, जांच का ऐलान हुआ। घायलों को अस्पताल भेजा गया। सियासत शुरू हुई, साथ में कुछ इंसानियत भी। राणा के परिवार में बीवी और बेटी बचे थे और खुद राणा जो दूसरी बोगी से एक बुढ़िया को नीचे उतार रहे थे, जब पहला धमाका हुआ। हल्के चोटिल इस परिवार को दिल्ली लाया गया और फिर वापस पानीपत जाकर उन्होंने अपने बच्चों ( तीन बेटे-दो बेटियों की शिनाख्त की)। कैसे कलेजा मुंह में आ जाता होगा न एक बाप का, जब अपने बच्चे की लाश देखकर वो बोले, हां ये मेरी आइशा है, ये मेरा अब्दुल है....
राणा अपने बच्चों की लाश लेकर वापस पाकिस्तान चले गए। कहानी यहीं खत्म हो जानी चाहिए थी क्योंकि वक्त बीतने के साथ जीना सिखा देता है, मगर जिंदगी कहानियों की माई है, अंदाजे से पहले थपकी देती, मगर खुद कभी नहीं सोती।
राणा अगले साल फिऱ पाकिस्तान से वापस आए। कुछ हिंदुस्तानियों ने समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट की बरसी पर हवन-पूजन औऱ सर्वधर्म सभानुमा प्रोग्राम किया था। यहां से किस्से में दूसरा किस्सा घुसता है।
पानीपत की कब्रिस्तान में कभी जाएंगे, तो वही मिट्टी के ढूहे, कुछ पुराने, कुछ नए पत्थर, लोबान, अगरबत्ती की गंध, एक दो आवारा कुत्ते, टोपी सीधी करते कोई बुजुर्ग, हिंदुस्तान के हर दूसरे कब्रिस्तान जैसा नजारा...मगर इस कब्रिस्तान में 32 लावारिस लाशें दफन हैं। उनके पत्थर पर किसी ने नहीं लिखा कि फलाने-फलाने यहां चैन की नींद सो रहे हैं। ये वो लाशें हैं, जो समझौता एक्सप्रेस के दौरान किसी के क्लेम न करने की वजह से यहां दफन कर दीं गईं। इनका वतन, इनका नाम, इनकी वल्दियत किसी को नहीं पता। और सच पूछिए तो ये सब हम जिंदा लोगों के लिए ही रची गई बातें हैं। मरे हुओं का कौन मसीहा....
राणा की कहानी पता चली एक मित्र के मार्फत। राणा एक बार फिर हिंदुस्तान आ रहे हैं। गोद में होने के बाद बची बेटी, अब कुछ बड़ी हो गई है और आगे से टूटे दांत से हवा बाहर आने के बाद भी ए फॉर एप्पल साफ बोल लेती है। राणा इस बार आ रहे हैं सरोजनी नगर ब्लास्ट की बरसी में शिरकत के लिए। उनका कहना है कि आतंक इंसान की जात और मजहब पूछकर उसे अपना शिकार नहीं बनाता, इसलिए इसके खिलाफ लडा़ई भी साझा होनी चाहिए। चूंकि राणा की कहानी, उनके जज्बे की खबर लिखनी थी, इसलिए राणा के दोस्तों से उनकी तस्वीर की डिमांड कर दी। दोस्त ने जो तस्वीर दी, वो एक नहीं दो थीं। एक तस्वीर में राणा अपने चार बच्चों के साथ बगीचे में बैठे हैं। एकदम फूल से बच्चे. कोई टीशर्ट के ऊपर टीशर्ट पहने, तो किसी के जूते और पैंट के बीच से मोजा झांकता। दूसरी तस्वीर में सबसे बड़ी बेटी सबसे छोटी बहन को हाथ में थामे खड़ी है। दोनों तस्वीरों को स्कैन कर लिया गया, ताकि सॉफ्ट कॉपी का इस्तेमाल किया जा सके। फ्रेम की हुई दोनों तस्वीरें मेरी डेस्क पर रखी थीं, कंप्यूटर के ठीक बगल में। काम करते-करते नजर पड़ी और चौंक गया। अजीब सा लगा ये सोचकर कि मेरी मेज पर चंद मरे हुए लोगों की तस्वीरें रखी हैं, मुस्कराती और मेरी तरफ देखती। आंखों में कुछ कांपने सा लगा। लगा कि बच्चे बस अभी कुछ बोल ही देंगे।
कानों में इन बच्चों की मां की आवाज गूंज रही थी। बड़ी हुलस के साथ वो बोली थीं सलाम भाईजान। रामकसम, इतनी मुहब्बत से आजतक किसी ने सलाम नहीं बोला था। फिर बातों का सिलसिला शुरू हुआ, तो अजीब लगना कुछ कम हुआ। जिंदगी में पहली बार पाकिस्तान कॉल लगाई थी। किसी ने मजाक में कहा भी देखना कहीं फोन टैप न हो रहा हो।
फटाक..................बोतल जब पहाड़ से टकराती है, तो तीन तरह की आवाजें आती हैं। आवाज इससे तय होगी कि बोतल खाली थी, भरी या आधीभरी। खाली बोतल की झन्न में न कर्कशता कम होती है, मगर कोफ्त कि क्यों जंगल गंदा कर रहे हो। पूरी भरी बोतल सिर्फ धोखे से फूटती है और उस गुदगुदाते पल का एहसास तब पुख्ता होता है, जब बोतल में भरे सामान के नुकसान की याद कम हो जाती है। तीसरी आवाज होती है किसी जावेद की, किसी रणंजय की, जो बहस के तेज होने के साथ बोतलें उछलने पर आती है। चौंकिए मत, उनके बीच झगड़ा नहीं हुआ था। मुद्दा अभी भी कश्मीर ही था, मगर आवाजें कुछ तेज हो गई थीं और इसी दौरान धोखे से, 24 कैरट धोखे से एक बोतल नीचे गिर कर टूट गई थी। जावेद ने आज पहली बार शराब चखी थी। उसकी जबान सुर्ख हो चुकी थी और वो जोर से पहाड़ी पर चढ़कर चीखा कि कमजोरों की आवाज नहीं सुनी जाती, इसीलिए तो सारा फसाद होता है। अरे आवाज तो सुनलो, करना किसको क्या है। आवाज बहुत तेज थी, सब चुप हो गए। रात का सन्नाटा इस शोर से आहत था। चुप्पी अंधेरे में घुल ही रही थी कि जावेद के गिरने की आवाज आई। भाई-भाई तीन लोग उसकी तरफ लपके। मना किया था न, मत पिला इसे नहीं झेल पाएगा, फैल जाएगा, उधर जावेद मियां मुस्कराते हुए बोले क्यों भाई अपना तो जय जिहाद हो गया न.......
क्या बकवास है, जय जिहाद। एक आवाज बोतल टूटने की, एक आवाज उस औरत के बोगी से नीचे गिरने की और फिर एक आवाज एडिटर की, स्टोरी पूरी हो गई क्या। मेरी मेज पर अभी भी मरे हुए बच्चे मुस्करा रहे थे। वो सच में कुछ कहना चाह रहे थे...गीली आंखों से, लरजती-तुतलाती आवाज से मगर हम सुन नहीं पाए क्योंकि कानों में जय जिहाद का जुमला अटका था।


और फिर ः -अब फिर कभी मरे हुए बच्चों की तस्वीरें नहीं लगाउंगा। कम्बख्तों को देखकर भूल जाता हूं हिंदुस्तान और पाकिस्तान का फर्क, हिंदू और मुसलमान का फर्क, सिर्फ दर्द का, प्यार का और पाकीजगी का मजहब याद रहता है।
-फिर कभी मरे हुए बच्चों की मुस्कान नहीं देखूंगा। इन्हें देखकर दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, इस्लामाबाद, लंदन, न्यू यॉर्क और दुनिया के तमाम कोनों में हुए बम धमाकों में मारे गए बच्चों की मुस्कान दिखती है। मगर मुस्कान के दुधिया रंग के ऊपर खून के कुछ छींटे भी होते हैं।
- अब फिर कभी मैं पाकिस्तान फोन नहीं करूंगा। नेताओं पर गुस्सा आने लगता है यार, आखिर क्यों सरहदें खिंचीं और खिंची भी तो उन्हें बना क्यों रहने दिया गया
- और सबसे आखिर में उन भाई बंधुओं को राम-सलाम जो इस पोस्ट को पढ़कर मुझे गाली सुनाएंगे, बुरा-भला कहेंगे। कोई पाकिस्तान को कोसेगा, कोई इस्लाम को, तो कोई हिंदुओं को...मगर एक गुजारिश है कुछ भी लिखने से पहले याद करना, आखिरी बार किसी मरे हुए बच्चे की मुस्कराती तस्वीर देखकर आंख गीली हुई थी क्या......

7 टिप्‍पणियां:

NILAMBUJ ने कहा…

अगर ये कहानी है तो बहुत बढ़िया.
उपन्यास है तो बढ़िया शुरुआत.

शरद कोकास ने कहा…

अच्छी साहित्यिक पत्रिकाओ ,कथादेश ,ज्ञानिदय ,वागर्थ आदि मे कहानी भेजो ।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढ़िया कहानी है।

विनीत कुमार ने कहा…

संवेदना को बचाए रखने की जिद तक ये एक अनिवार्य कहानी है। इस तरह की चीजें ब्लॉग को लेकर चलनेवाले विमर्शों के बीच एक नए संदर्भों को जन्म देती है। बहुत सुंदर।.

रंजना ने कहा…

Aapki is katha ke kathy aur shilp ne to bas mantramugdh kar poorntah nishabd kar diya hai...

Aapki is katha aur pratibha dono ki main kayal ho gayi...

Aaise he jhakjhorne jagane wale kritiyon ki aawashykta hai aaj...

Aise hi sundar likhte rahen...Anant shubhkamnayen..

BishtMohnish ने कहा…

hey saurabh u write really well man..i just loved it..when in college, never got any chance to speak u about ur writing skills..today charu suggested me to read ur blog n im glad that i did.
-mohnish (ADPR, IIMC)

चंदन कुमार चौधरी ने कहा…

आपको पढ़ना बहुत ही अच्छा लगता है। आप अपने ब्लॉग में कम लिखते हैं। यह जानते हुए भी मैं अक्सर यहां आता हूं। विचार है, भाषा में प्रवाह है, शब्दों का सागर है, और है आपका अन्तरमन जिसका कोई जबाव नहीं। आग्रह कि अधिक लिखें। आपके अगले पोस्ट का इंतजार रहेगा।