सोमवार, मई 19, 2008
मां से झगड़ा २
पिछले दिनों घर में शादी थी। बुआ जी की बेटी की। नेहा नाम है दीदी का। उम्र में महज ६ महीने का फासला है, इस वजह से अनुराग कुछ ज्यादा था उससे। इसकी एक वजह शायद कोई सगी बहन न होना भी रहा होगा। बहरहाल मैं अकसर उससे फोन पर पूछता तुझे क्या चाहिए। आखिरी मैं उसने झिझकते हुए कहा कि लाल गोटे वाली साड़ी। अच्छा लगा । सक्षमता का थोड़ा बहुत ही पता तब चलता है, जब आप अपनों की ख्वाहिश पूरी कर सकें। खैर लंबे अर्से बाद घर जा रहा था सो मां के लिए भी साड़ी खरीदनी ही थी। जब खरीदने पहुंचे तो जो साड़ी पसंद आई वो बजट से काफी ज्यादा थी। रकीब ने कहा- कोई बात नहीं जब पसंद आई है तो यही ले लो। अब तुम कमाते हो मां को अच्छी से अच्छी साड़ी पहनाओ। रकीब की बात जम गई। साड़ी लेकर घर पहुंचे। मां को पसंद आई तो अच्छा लगा। फिर उसने पूछा कितने की है तो झूठ नहीं बोल पाया। मां के सामने सब कुछ सच-सच बताने का मन क्यों करता है। सिगरेट पीने से लेकर हर चीज तक। खैर दाम सुनकर मां का माथा ठनका। शुरू हो गई कि ज्यादा पैसे की गर्मी चढ़ी है। खैर मामला शांत हुआ। इसमें साड़ी पर हाथ से हुए काम की तारीफ ने भी काफी रोल अदा किया। लेकिन उसके बाद से जब भी घर फोन करता हूं, अंत में आशीर्वाद के साथ एक सूत्र लिपटा हुआ आता है। बेटा पैसा बचाओ, इतनी महंगी साड़ी खरीदी, कसक के रह गई। अब मां को कौन समझाए कि उनका बार-बार इस तरह से टोकना मुझे भी कसक कर रह जाता है। माई की आंखों में लाल के कमाने की चमक देखने के लिए इतने जतन किए थे। मगर मां मन के भावों को छिपाना बखूबी जानती है। ... खैर ये थी मां से हुए ताजा झगड़े की राम कहानी... अब कुछ बात यारों की प्रतिक्रिया पर। शंभू जी का स्नेह में भीगा पोस्ट आया। हमारे शंभू जी बड़ी तपस्या करते हुए दिल्ली आए हैं। कई बार उनका मन करता है कि बिहार के अपने गांव दुआर वापस लौट जाएं लेकिन अभी थमे हुए हैं। शहर का लालच बहुत बुरा है। यहां की हर चीज लालच भरती है। या कम से कम हर चीज के लिए लालसा तो जगा ही देती है। शहर और सपना किसी अजनबी भाषा में साथ-साथ लिख दिए गए दो पदबंध से लगते हैं। उसी शहर में हम भी अपनी जिंदगी की राह तलाशने आए हैं।
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2 टिप्पणियां:
लालच शहर में रहने का नहीं है। लालच इसे जानने समझने का है कि कैसे दिल्ली के एसी रूम में बैठकर पत्रकार पूरे देश की खबर लिख देते हैं। समझना है कि तील की खेती तक नहीं जानने वाली कोई एंकर कैसे बापू की सत्याग्रह पर बोलती है। चंपारण का नाम तक नहीं जानने वाली एंकर कैसे अपने विचार को पेलती रहती है। जानना है कि कैसे नौकरशाह के बच्चे कलक्टर ही बनते है। जानना है कि कैसे नेता का बेटा नेता बन जाता है। जानना है कि कैसे फूटपाथ पर भी लाखों लोग अपनी जिंदगी गुजार देते हैं। अब तो बस एक दिन यही देखना है कि सौरव भाई दिल्ली की सलतनत पर काबिज हो और हम रायसीना हिल्स का हर कमरा किराये पर रिक्सेवाले को दे दें। आखिर दोस्त ठहरे आप सलतनत के मुखिया और हम बना दीजिएगा रायसीना हिल्स के विलासी भवन का मालिक। सचमुच सर बदला है टोपी नहीं। आखिरी बात तो कहना ही भूल गया। माता जी को शायद बहुत प्यार है आपसे आखिर नई दुलहनियां भी तो लानी है। सो पैसे जोर जोर कर रखिएगा।
Itna acha kaise likhte hai aap. Very sweet..:)
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