शनिवार, मई 17, 2008
जिन्हें जाये तिनहीं लजाए...मां से झगड़ा १
मां से मेरी कभी पटरी नहीं खाई । लेकिन मैं हर नालायक की तरह उनसे बहुत प्यार करता हू। मां से प्यार करने में एक सहूलियत भी रहती है । जब मन किया उसकी सीने पर सिर रखकर बोल दिया पुच्ची करो न। कभी झुंझलाती तो कभी दुलारती मां कहती हटो पूरा काम पड़ा है घर का । इतने बड़े हो गए लेकिन लड़कपना नहीं गया। अब मैं मां को क्या बताऊं कि उनके साथ कभी जाएगा भी नहीं। खैर इन सबके बावजूद मेरा मां से झगड़ा है। जब उनसे जाति से लेकर छींकने जैसे अंधविश्वास सहित किसी मुद्दे पर बहस होती थी तो आखिरी में उनका ब्रह्मास्त्र चलता था । साला कल का लौंडा चला है मुझे पढ़ाने । अरे चौंकिए मत मां गाली नहीं देती लेकिन हमारे यूपी में साले अब गाली कहां रह गई है। खैर इस पर भी मैं जब नहीं मानता और बहस को हवा पानी देता रहता तो आखिरी में मां कहती । है तेरी शनीचर की जिन्हें जाए तिनहीं लजाए। माई तेरा बेटा तुझे लजाने के लिए परदेस में नहीं बसा है। इंतजार तो बस उस दिन का है जब अपनी पटकथा झूठी लड़कियां पूरी करूंगा। इसमें आज के जमाने की बेटियों की कहानी है जो अपनी मां से बहुत प्यार करती हैं लेकिन साथ ही एक डर के साथ भी जीती हैं कि कहीं वे भी अपनी मां की तरह न बन जाएं। कहीं उनके भी तमाम औजार किंतु परंतु और मर्यादा की आड़ में भोथरे न कर दिए जाएं। झूठी लड़किय बड़े शहर में आई हैं अपना वजूद साबित करे का सपना लेकर। उन्हें बॉयफ्रेंड के साथ घूमने भी जाना है मगर ये बात मां से छिपाने के लिए यह भी कहना है कि मां रेशमा की बर्थ डे पार्टी में जा रही हूं। उन्हें किस करने में झिझक नहीं लेकिन शादी के लिए मां बाप की रजामंदी भी चाहिए। और हां खबरदार जो किसी ने उन पर महज इसलिए तरस दिखाने या सटने की कोशिश की कि वे लड़कियां हैं....बीते दिनों एक नई दोस्त बनी। डॉक्युमेंट्री की दुनिया से बावस्ता है वो। उसे बड़ी कसक है कि पापा के जाने के बाद हम सब तो अपने करियर की राह नापने में लग गए मां अपने कोने में टीवी के किरदारों से यारी करने के लिए मजबूर हो गई। सो मेरी दोस्त ने फैसला किया कि छुट्टी पर जाने के बजाय मां के साथ वक्त बिताया जाएष मगर कुछ ही दिनों में ये संकल्प सजा बनता दिखने लगा। मां अपने तमाम डर बेटी पर लादने सी लगी। ये मत किया कर जमाना खराब है। ऐसे सब से मत घुलामिलाकर लोग गलत मतलब निकालते हैं आदि इत्यादि। अब वो कैसे बताए कि इसी खराब जमाने में आपके बाद भी और फिलहाल आपके साथ भी मुझे जीना है। अपनी मंजिल तलाशनी है। मां बेटी के बीच कब वक्त ने आकर दीवार चुन दी पता भी नहीं चला। बेटी स्टोर रूम में रखी उस पेंटिंग को बाहर निकालकर फ्रेम करवाना चाहती है जो मां ने अपनी शादी के ठीक बाद या सपाट लहजे में कहें तो जवानी के दिनों में बनाई थी। उस पेंटिंग में नहाने के बाद बाल सुखाती एक लड़की है। बदन पर महज एक तौलिया है वो भी बालों से लिपट लिपट हमेशा के लिए घरौंदा बनाने की इजाजत मांगते पानी को सहेजने के लिए। औरत के भरे पूरे खूबसूरत स्तन साफ नजर आ रहे हैं। उनमें मादकता है , अपने होने की एंठन है और है थोड़ा सा शरारती नमकीनपन। सत्तर के दशक में मां ने जब ये पेंटिंग बनाई होगी तब मिडल क्लास की क्या मानसिकता रही होगी बताने की जरूरत नहीं। मां ने जैसे अपने औरतपन को सहेजने के लिए ही वो तस्वीर बनाई थी। उसकी एक एक लकीर मानो चुनौती दे रही थी कि ये मैं हूं। मैं एक भरी पूरी पूरी की पूरी अपने होने पर कतई शर्मिंदा न होती औरत। क्या तुममें हिम्मत है इसे अपनी आंखों के सामने बनाए रखने की। पेंटिंग में निप्पल्स तक की बीरीकियों पर ध्यान दिया गया था। फिर वक्त की धूल तले उस पेंटिंग के रंग हल्के प़ड़ने लगे। कभी पापा से दो दिन झगड़कर उस पेंटिंग को ड्राइंग रूम में टांगने की जिद करती मां ने बड़ी होती दीदी और उनकी आने वाली सहेलियों का हवाला देकर पेंटिंग को पहले अपने कमरे में टांग लिया औऱ फिर स्टोर रूम तर पहुंचा दिया। क्या मां को दीदी में अपनी आग नजर आने लगी थी। क्या मां उसकी तपिश से जलने का डर पाल बैठी थी।...कल बताऊंगा आगे का किस्सा...
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4 टिप्पणियां:
अगली कडी का बेसब्री से इन्तजार रहेगा ।
आभार,
मजेदार है,
सौरव दा आपका भदेस दोस्त शंभू। बहुत दिनों से आपकी बाट जोह रहा था। आखिर मिल ही गये। अच्छी कहानी लिखने के साथ साथ अपने मौलिक बिचार का दस्त जरूर करते रहियेगा। कॉलेज में भी मैं आपका बड़ा फैन था। अभी भी हूं। अब तो शायद आपने अपना नंबर बदल लिया है। मेरा नंबर होगा नहीं आपके पास। खैर कोई बात नहीं मन में लगन होगी तो मुलाकात हो ही जाएगी। बस हर दिन आपके बौद्धिक श्रम का रस लेना चाहता हूं। बस लिखते जाइये। आपकी कृपा से अभी तक दिल्ली में बेवकूफ बनने का मजा ले रहा हूं। देख रहा हूं धन, गुण, और बौद्धिकता का तमाशा।
आपका भदेस
शंभू
स्वागत है आपका..
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