बुधवार, अगस्त 06, 2008

बारिश ने खत भेजा है

आखिरी बार बारिश में कब भीगे थे तुम? क्या हुआ बारिश सुनकर सिर्फ कीचड़, रेंगता ट्रैफिक और घर जाते या ऑफिस आते हुए भीगने का डर ही सामने आता है। बचपन की उन यादों को कहां दफन कर दिया, जब कई बार पुरानी तो कुछ एक बार नई और कोरी कॉपी से भी पन्ना फाडक़र नाव बनाते थे। भैया से इसरार करते थे कि मेरी नाव सीधी कर दो। मां या चाची डांटती रहती थी कि पानी गंदा है, फुडिय़ा हो जाएगी, मगर मन कहां माने। आखिर अपनी बनाई किसी चीज को मंझदार में आगे बढ़ते देखने का सुख कौन खोना चाहता था। और फिर रात में सोते वक्त दीवारों से कैसी गीली सी गंध आती थी। एक नन्हा सा डर भी रहता था कि कहीं सांप चारपाई के पाए चढक़र मेरे ऊपर आ गया तो। इस डर के रास्ते कुछ देर के लिए ही सही भोले शिव की याद और एक-आध फुटकर सी जयकार हो जाती थी। अब तो जरा सा खटका भी नींद में खलल पैदा करता है और तब रात भर झींगुरों की चीख और मेंढकों की टर्र-टर्र बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह लगती थी। सुबह उठते थे तो लालटेन या बल्ब के पास पतंगों का ढेर देखकर मन घिनाता नहीं था। सुबह जब चौंपयारीबखरी का दरवाजा खोलते तो यकीन होता कि रात भर में ही दुनिया बदल गई होगी। हर पत्ती ज्यादा हरी और नहाई धोई लगती। जानवरों के बदन पर गीली सी रेखा बनी होती, गाय की आंखों में कीचड़ देख घिन नहीं आती। मगर ये सब हम बहुत पीछे छोड़ आए। अब मां से जिद कस्बे जैसा पिछड़ा भाव लगने लगा है। पालक की पकौड़ी के लिए चढ़ती कड़ाही की जगह बहुत शौक और मन हुआ तो किनारे खड़े खोमचे वाले की डलिया ने ले ली है। उस पर भी भाई लोगों का तुर्रा, बारिश में खा रहे हो बीमार पड़ जाओगे। बारिश होते ही रेन कोट खरीदते हैं। सच सच बताना कभी ये चिंता की है कि बाहर के बगीचे में पलने वाले बिल्ली के बच्चे पानी से कैसे बचेंगे। अब उनके लिए बोरा छिपाकर रखने का मन नहीं करता। नाव बनाना याद है या पैसा और करियर और जिंदगी और तमाम और बनाने के फेर में वो पाठ भी भूल गए.....
आज बहुत दिनों बाद बारिश महसूस की। न सिर्फ बदन पर बल्कि मन पर भी, वो जहां कहीं होता हो ।बारिश के साथ तेज हवा थी, सो पूरी तरह भीग कर मजा लेने की जरूरत नहीं पड़ी। तेज छींटे सिर से लेकर पांव तक बचपन की याद दिला रहे थे। मन किया बस यूं ही घंटों तर होता रहूं। जैसे नए बने घर की दीवारें तर की जाती हैं। जैसे बारिश में गाय को गुड़ खिलाया जाता है ताकि ठंड भी न लगे और दूध भी बढ़े....जैसे मां खूब रगडक़र सिर पोंछ रही हो और हमें फिर से बाहर भागने की जिद ने जकड़ लिया हो।एक बार ही सही बारिश में आंख बंदकर, सब भूल कर खड़े हो जाओ। कीचड़ की चिंता, कपड़े और जूते खराब होने की चिंता को चिता में डाल दो और हर रोएं में बारिश की बूंदों को कुछ देर के लिए ही सही पनाह दे दो...जिंदगी आबाद लगने लगेगी।

4 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

सच है, दिल तो करने लगा भीगने का. अच्छा लिखा है, बधाई.

सौरभ द्विवेदी ने कहा…

धन्यवाद टिप्पणी के लिए. आपका भीगने का मन करने लगा शायद इसी में इस पोस्ट को सार्थकता मिली। मॉनसून का मन भी हमसे यही कहता है.

दिलीप कुमार पाण्डेय ने कहा…

बारिश के मौसम में गांव की रातें कुछ ऐसी ही कटती हैं सौरभ भाई। मेरे गांव की रातें भी बारिश के बाद कुछ ऐसी ही हो जाती हैं । बारिश की रातों में चारपाई पर सांप चढ़ने का डर तो बचपन में मुझे भी सताता था। लेख अच्छा लगा

चंदन कुमार चौधरी ने कहा…

सामन्य धटना की अच्छी प्रस्तुति है। आलेख पढ़कर पुराने दिन याद आ गए। क्या करूं लगा कि मेरी कहानी आपने लिखी हो।