शुक्रवार, जुलाई 11, 2008
पुरानी दिल्ली संग पहली डेटिंग...
दिन हो गए ब्लॉग पर कुछ लिखे। पिछले दिनोंं जमकर ऑस्कर जीतने वाली मूवी देखीं। मसनल गर्ल इंटरप्टेड, ब्लड डायमंड , फिलाडेल्फिया और भी बहुत सारी। एक बात को साफ है यारों। हॉलिवुड इस बात का खास तौर पर ध्यान रखता है कि फिल्म जिस मकसद से बनाई जा रही है वो पूरा हो। स्टोरी लाइन बेहत चुस्त होती है। कैरेक्टर मेंं इनवॉल्व होने के लिए पूरा वक्त मिलता है। पेस और ठहराव को सेल्युलाइड पर दिखाने मेंं उनकी कोई सानी नहीं। हमारे यहां निर्देशक जब कभी ठहराव का खूबसूरत इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं सीन ज्यादातर लाउड हो जाते हैं। बहरहाल मुझे कोई फिल्म क्रिटीक का धंधा पानी तो शुरू करना नहींं जो आप लोगोंं को ज्ञान देते फिरूं। रकीब को तो वैसे भी इस बात की बहुत शिकायत रहती है कि जब मौका मिले शुरू हो जाता है लडक़ा गोला देने में। ये हमारे रकीब का अपना अंदाज है हमेंं कंट्रोल मेंं रखने का। वैसे भी फुल स्टॉप न हो तो नया सेंटेंस शुरू नहीा हो सकता। कल एक और खास अनुभव हुआ। पहली बार बाइक पर सवार होकर पुरानी दिल्ली की गलियोंं मेंं भटक रहा था। एक स्टोरी के सिलसिले मेंं तुर्कमान गेट इलाके की तरफ जाना हुआ था। जिन जनाब ने पता बताया था उन्होंने हिदायत भी दी थी कि बेहतर होगा कि आप कुछ फासले पर ही गाड़ी खड़ी कर रिक् शे से जाएं। मगर हमेंं तो ऐसा लगता था कि भाई कस्बे से होकर आएं हैं। ऊबड़ खाबड़ सडक़ोंं और बाजार की तंग गलियों मेंं भला हमारी राइडिंग पर कोई कैसे उंगली उठा सकता है। सो पिल पड़े। साथ मेंं एक दोस्त भी थी। कंधे पर कभी कभी उसकी मजबूत होती पकड़ बता रही थी कि उसे न तो मेरी बॉर्न बाइकर वाली डीलिंग पर ऐतबार था और न ही दिल्ली मेंं इतनी तंग गलियों की उम्मीद। सोने पर सुहागा ये कि गाड़ी का हॉर्न भी खराब था। अब जरा इत्मिनान हो तो कुछ पल हॉर्न की भी कहानी सुन लीजिए। हमने ठीक कराया था हॉर्न पिछले दिनों। रकीब ने खास तौर पर खटारा को बेहतर खटारा बनवाने के लिए रुपये उधार दिए थे। लेकिन जनाब हॉर्न तो पहले भी ठीक था। मगर हमारे मिस्त्री साहब जिनका नाम है मियां मुशर्रफ बोले कि नहींं साहब हॉर्न तो ठीक नहींं था। हमने नया लगा दिया था। अब क्या कहते उनसे कि हमें जरदारी समझ रखा है क्या जो तुम्हारे झांसे मेंं आ जाएंगेष मगर रकीब इंतजार कर रहे थे और अपन का बहस का कोई मूड भी नहींं था तो सोचा चलो जब कलाई पुत ही रही है तो थोड़ी कम या ज्यादा क्या फर्क पड़ता है। सो 90 रुपये हॉर्न की राह पर कुर्बान हो गए।मगर पहली बरसात के बाद ही कमबख्त हॉर्न दगा दे गया। ससुरा मायके मेंं जाकर बैठ गया है। जब बारिश होती है उसके अगले रोज बजता है। कहींं से पानी की छुअन पाकर दिमाग की गर्मी ठीक हो जाती होगी शायद। मगर इससे पहले की आप रकीब को रुआब से बताएँ कि अब हॉर्न भई ठीक हो गया है फिर से आराम फरमाने लगता है साला। हां तो साहब हम बता रहे थे कि पुरानी दिल्ली की गलियोंं मेंं भटक रहे थे। पहले से दूसरे और दूसरे से पहले गियर तक का सफर तय करते। और आखिरकार हम पहुंच ही गए चांदनी महल इलाका। कूड़े के ढेर से बजबजाता ये इलाका कभी बहादुर शाह जफर द्वारा अपने कव्वाल उस्ताद को दिया गया था। अब जब पहुंचे तो किनारे एक बकरी और बकरे में संभोग करवाया जा रहा था। जगह की किल्लत कहिए या कुछ और कि अब जानवरोंं को गर्भ धारण करवाने के लिए भी सडक़ का ही इस्तेमाल होता है। आसपास हल्ला मचाते बच्चे थे। इनमें ही ढूंढने थे मुझे आने वाले कल के साबरी बंधु जिनके गले से निकले सुर उर्स के दौरान पीर से मुलाकात का जरिया बनते हैं।हम जिनसे मिलने के लिए पहुंथे थे वो छज्जे पर टंगे हमारा ही इंतजार करते थे। कानपुर के अहातों मेंं बने तंग मकानोंं का याद दिलाती संकरी सीढिय़ां। बचपन मेंं जब भी ऐसी सीढिय़ां से पाला पड़ता था बस एक ही ख्याल ऊपर पहुंचने या नीचे उतरने तक हमसाया रहता था कि अगर पैर फिसला तो सिर मेंं कितनी चोट आएगी।अंदर हमारे मेजबान थे जिनके वालिदैन को कव्वाली सम्राट का खिताब बख्शा गया था। इंटरव्यू के दौरान कव्वाली के बारे में तमाम मालूमात हासिल किए। मेजबान का जोर था कि उनके और उनके बच्चोंं का जमकर जिक्र किया जाए। मीडिया खबरोंं की खोज में रहती है, लेकिन खबर बनाने वाले ही जब खबर बनने का लालच दिखाने लगें तो तकलीफ होती है देखकर। आप कह सकते हैं कि उनमें ये लालच भरने के लिए भी हम ही जिम्मेदार हैं। इस पर चर्चा फिर कभी।....बहरहाल आखिर मेंं मेजबान ने हमें कुछ खूबसूरत नज्में सुनाईं। इनमेंं एक थी अमीर खुसरो साहब की छाप तिलक सब दीन्ही तोहसे नैना मिलाइके। कुछ याद आया क्या। शाद अली की साथिया में इससे मिलता जुलता गाना था झूठ कपट छल कीन्हीं....आपसे साथ किसी के नैनों ने कपट किया है क्या...इस ठगी का शिकार होने मेंं बहुत मजा है बंधु...मगर हौसला चाहिए लुटने का.......
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
3 टिप्पणियां:
दोस्त जैसा की हमेशा होता है लिखा लाजवाब है, लेकिन थोडी जल्दी में रहते हो। और हाँ छाप तिलक सब छीनी है...
yes aalok ji i am in hurry, dony know why, well thanks for the post
yaar ek kasbaai gandh hai puranee dilli mein..
एक टिप्पणी भेजें