गैंग्स ऑफ वासेपुर देखिए और इंडिया के सिनेमा पर गर्व कीजिए, घटिया फिल्मों को हिट करवाने के पाप से मुक्त होने का भी मौका है ये
सौरभ द्विवेदी
अकसर उन हजारों साल पहले पैदा हुए ऋषि मुनियों के नाम पर सिर झुकाना पड़ता था, जिन्होंने रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्य लिखे। वजह, कहानियों का अपार विस्तार, उसमें भरे हजार भाव और इन सबके बीच वीतराग सा पैदा करता एक दर्शन, जो जीवन के सार और उसके पार का भाष्य रचता है। कथा के इस तरीके को महाकाव्य यानी एपिक कहते हैं। सिनेमा हमारे समय में कथा कहने का सबसे ताकतवर तरीका है और आखिर सौ बरस के इंतजार के बाद इंडियन सिनेमा को अपना पहला महाकाव्य मिल गया। गैंग्स ऑफ वासेपुर फिल्म सिनेमा शब्द में गर्व भर देती है, मगर हमारे लिए बहुत बड़ी मुश्किल पैदा कर देती है। महज पांच-छह सौ शब्द में कैसे बताया जाए कि फिल्म में क्या है। बहरहाल, हर महाकाव्य की तरह यहां भी नियति और कर्म के बीच कर्म को चुनना होगा।
वासेपुर कहने को तो भूगोल के लिहाज से धनबाद में है, मगर हम सबके पास अपने अपने वासेपुर हैं। और यहां सिर्फ वर्चस्व की लड़ाई नहीं होती। घाट पर कपड़ों से पानी फचीटते लोगों के बीच रोमैंस होता है, काई से पटे तालाब की हरियाली में हरा भरा होता। यहां जब चिमटा गढ़ते लोहार से पूछा जाता है कि पतली नाल से क्या होगा, तो जवाब आता है कि गन फटकर फ्लावर हो जाएगी। हाथ में बंदूक आते ही हर युवा विजय दीनानाथ चौहान बन जाता है और अमिताभ के अंदाज में एक हाथ को हवा में टांग दूसरे से निशाना साधने लगता है। सवर्ण हिंदू घरों में कोई नीची जात का या मुस्लिम आता है, तो अलमारी से कांच के बर्तन झाड़ पोंछकर निकाले जाने लगते हैं। और पति की तमाम दिलजोई और बेवफाई के बावजूद पत्नी आखिर में बस यही कह पाती है कि घर में मत लेकर आना बस।
हमरे जीवन का इक ही मकसद है...बदला
दुश्मनी ज्यादा गाढ़ी होती है। बहे, जमे खून की तरह। या यूं कहें कि रगों में पानी सा खून बहता ही है किसी का खून बाहर निकाल जमने के लिए छोड़ देने को। और दुश्मनी वक्त की थाली में तरी की तरह फैले, इसलिए प्यार का मसाला चाहिए होता है बीच बीच में। गैंग्स ऑफ वासेपुर कहानी कहने को दुश्मनी की है, मगर इसके बीच में अनगिनत सूखे मुरझाए फूलों की खुशबू भी पैठी हैं। वासेपुर में कुरैशियों की चलती है। उनका काम मीट काटना। और आखिर में इंसान भी तो बस मीट ही है। सो उनका खौफ इंसानों पर सिर चढ़कर बोलता है। इनके बीच एक पठान राशिद खान सुल्ताना डाकू के नाम पर डाका डालता है। नए नए पइसे से सबका जी मचलाता है और राशिद को देश-निकाला दे दिया जाता है। नया मुकाम धनबाद, काम कोयले की खदान में हाथ सानना। सिर पर पनाह आती है ठेकेदार-मालिक-नेता रामाधीर सिंह की। मगर राशिद की आंख में बगावत का सुरमा उन्हें समय रहते दिख जाता है। राशिद दूसरे लोक रवाना हो जाते हैं, रह जाते हैं उनके भाई फरहान और बेटा सरदार। सरदार को रामाधीर सिंह को मारना नहीं है, खत्म करना है। धीमे-धीमे, कह के।
बस यहीं से सरदार और रामाधीर के बीच एक तराजू उग आता है। वजनों के लिए पाट लगातार बड़े करता। इस दौरान तमाम किरदार आते हैं और कहानी के कई रंग स्याह करते जाते हैं। पहले हिस्से के अंत तक पलड़ा एक ओर नहीं झुकता, लगातार हिलता रहता है, डराता रहता है, सहलाता रहता है।
क्यों दिए हैं पांच सितारे
- फिल्म की कहानी बेहद चुस्त है। तीन पीढिय़ों तक फैली कहानी, मगर कहीं से भी फैली नहीं। एक एक किरदार ऐसे रचा गया है, गोया वही फिल्म का केंद्रीय पात्र हो।
- गाने। अनुराग कश्यप की फिल्मों में ये न तो सिचुएशन पर ढाले गए होते हैं और न ही एक दम से बीच में आकर हीरोइन को हीरो संग पैर झमकाने का मौका देते। ये तो बस प्रोस के बदन पर पोएट्री की तरह पहनाए होते हैं। बेहद स्वाभाविक और सीन के सुख को सजीला करते। गैंग्स ऑफ वासेपुर के गाने बरसों बरस सुने जा सकते हैं।इसका म्यूजिक असल है, किसी स्टूडियो के एसी और साउंडप्रूफ कमरे की घुटन से मुक्त। शुक्रिया स्नेहा, वरुण और पीयूष।
- कास्टिंग एक क्लैसिक अध्ययन हो सकती है। एक्टिंग की बात करें तो मनोज वाजपेयी ने अगर हिम्मत कर सच बोलूं, तो अल पचीनो सी ऊंचाई हासिल की है। ये उनकी गॉडफादर है। उनके अलावा नवाजुद्दीन सिद्दिकी, पंकज त्रिपाठी, ऋचा चड्ढा, तिग्मांशु धूलिया जैसी एक लंबी कतार है, जिनकी तारीफ के लिए मेरे पास शब्द हैं, मगर फिलहाल जगह नहीं।
- डायरेक्शन। अनुराग जीनियस हैं, ये ब्लैक फ्राइडे से साबित कर चुके हैं। कल्पनाशील हैं ये नो स्मोकिंग बताती है। राजनैतिक समझ गुलाल से साबित हुई, तो बॉक्स ऑफिस का प्रेत देव डी के जरिए डिब्बे में बंद हो गया। अब बारी थी इन सबके मेल की। फिल्म में कैमरा दूरबीन लगी छलिया आंख की तरह है। माइन में विस्फोट के सीन हों, या कस्बे की हालात दिखाते पीपे के पुल पर घमासान, गोश्त की कटाई हो या गेंदे के फूल से लदे नेता। और इन सबको एक धागे में जोड़ते फिल्म के डायलॉग, जो तमाम गालियों के बावजूद शीलता को नकली साबित करते हैं और इसीलिए खरे लगते हैं। अनुराग ने औरों के साथ खुद अपने लिए भी बार बहुत ऊंचा उठा दिया है।
- फिल्म एक और हिस्से में जाती है, यानी सीक्वेल आएगा, मगर अधूरेपन के साथ खत्म नहीं होती। और इसी क्लाइमेक्स की वजह से हम कह सकते हैं कि ये इंडिया की गॉड फादर है।