शनिवार, नवंबर 12, 2011

जॉर्डन का जादू जबर्दस्त

सौरभ द्विवेदी
ऐसा कब होता है कि फिल्म के आखिरी शॉट के बाद, टाइटल खत्म होने के बाद, हॉल की लाइट्स जलने के बाद भी यंगस्टर्स एक इंतजार में स्क्रीन पर आंखें गड़ाए रहें। इस इंतजार में अफसोस नहीं, एक ख्वाहिश हो, कि शायद कुछ फिल्मी हो जाए। मगर ऐसा नहीं होता और यहीं रॉक स्टार हिंदी फिल्म के दायरे को कुछ बड़ा कर देती है। अंत के नाम पर आता है सरसों की डंडी पर रेशम सा लिपटा गाना तुम हो और रूमी की पंक्तियां - हम उस दुनिया में मिलेंगे, जहां पाप नहीं, पुण्य नहीं, बिछुडऩे का डर और वजह नहीं। संगीत, पागलपन, क'चापन, मासूमियत, मजाक और हां इन सबके साथ और बिना भी घ्यार, रॉक स्टार एक पेंडुलम से झूले पर बिठा ढाई घंटे में इन सब एहसासों के साथ सहलाती घुमाती है।

रॉक कर देंगे
स्टीफंस कॉलेज, दिल्ली का सबसे हेप क्राउड, नायिका हीर कौल दोस्तों के साथ बैठी है और पीतमपुरा का जाट जनार्दन जाखड़ उसके पास पहुंचता है। हाथों को क्रॉस करते हुए लहराता है और एक पैर उठा बोलता है, दोनों मिलकर रॉक कर देंगे। फिल्म में रणबीर रॉक से भी 'यादा रॉक करते हैं। भूल जाइए, टॉवल गिराकर किशोर कामनाएं जगाने वाले सांवरिया को, भूल जाइए वेक अप सिड के कन्फ्यूज मगर क्यूट युवा को, भूल जाइए प्रकाश झा की राजनीति के व्यूह रचते आधुनिक अर्जुन को, ये जाखड़ जिसे उसका घ्यार और संगीत जॉर्डन नाम बख्शता है, एक नए तिलिस्म को रचता है पर्दे पर। मिडल क्लास का बेढब फैशन, धारी और जाली वाले हाथ के बुने स्वेटर, उसके ऊपर डेनिम जैकेट, आवाज को आरोह-अवरोह के भंवर में फंसाए बिना संवाद अदायगी और संगीत के जुनून को स्याहपन बख्शती गाढ़ी दाढ़ी। माइक पर रणबीर की चीख कहीं दूर तक अंदर आपके अंदर गुम हो गूंजती रहती है। उन्होंने फस्र्ट हाफ में हिंदू कॉलेज के कुछ अनजान, कुछ सनकी-पागल युवा को ठीक वैसे ही जिंदा किया है, जैसा रियल लाइफ में इस कॉलेज में पढ़े इम्तियाज अली ने सोचा होगा। सेकंड हाफ उनसे डार्क होने की उम्मीद करता है, यहां चीख हैं, स्टेज पर भीड़ से घिरा होने पर भी अकेले होने की त्रासदी है । इन सबके ऊपर बादलों सा घिरा स्कार्फ सा इर्द गिर्द उड़ खुशबू बिखेरता घ्यार है।

और बाकी सब
नरगिस फाखरी की एक्टिंग वैसी ही है, जैसे आप हल्का सा मुंह खोले बैठे हों और कोई जीभ के किनारे एक छिला हुआ आंवला छुआ दे। एक खट्टी सी गुदगुदी जो रीढ़ की हड्डी से तलुए तक लहर पैदा
करती है। वह खूबसूरत दिखी हैं, यह कहना औसत कथन होगा। उन्होंने उम्मीद से कहीं 'यादा अ'छी एक्टिंग की है और इसका श्रेय अली के साथ उन्हें भी जाता है। कुछ छोटे मगर जरूरी रोल इस गाढ़े किस्से को और स्वाद बख्शते हैं। कैंटीन वाले के रोल में कुमुद मिश्रा, म्यूजिक कंपनी के मालिक के रोल में पीयूष मिश्रा, जर्नलिस्ट के रोल में अदिति राव ऐसे ही कुछ नाम हैं।

आगे बढ़ो, पीछे लौटो, फिर आगे बढ़ो
ये इम्तियाज अली के कहानी सुनाने का तरीका है। फिल्म बीच से शुरू होती है, कई बार शुरू से भी, फिर जंप मारती है, कभी बैक, कभी फॉरवर्ड। ये मूवमेंट कहीं भी खटकता नहीं, बल्कि एक अलग किस्म का जुड़ाव खिंचाव पैदा करता है। ऐसा जब वी मेट में हुआ, लव आजकल में भी हुआ और यहां भी है। इसके अलावा कन्फ्यूजन या हां और न की ठिठक उनके यहां प्रेम के पलने के दौरान केंद्रीय भाव होती है। इसकी शुरुआत उनकी पहली फिल्म सोचा न था से होती है और अभी तक ऐसा हो रहा है। हीर कहीं ठिठकी है ये कहने में कि जॉर्डन इसकी जिंदगी का हिस्सा बन गया है, जनार्दन भी रेलिंग पर इंतजार करता सा है और जब दोनों चादर के नीचे की सफेद दुनिया में ये कबूलते हैं, फिल्म एक पीले बुखार में आने वाली नींद सी मीठी हो जाती है।
कहानी के अलावा फिल्म के डायलॉग भी सुरीले और जोशीले हैं, कहीं आपको आदी बनाते, कहीं अदा दिखाते। अ'छा ये रहा कि नरगिस के हिस्से 'यादा हैवी डायलॉग्स नहीं एक जर्द खामोशी आई, जिसमें सूनापन ही अलग-अलग शेड्स लिए था।
रॉकस्टार मैं कुछ एक बार और देख सकता हूं, और यकीन है कि आप भी पहली बार देखने के बाद यही सोचेंगे। इसकी वजह है तमाम तहों में छुपा मगर फिर भी नुमायां होता है वो नूर, जिसे घ्यार कहते हैं।