बुधवार, अगस्त 31, 2011

ब्रेन गार्ड चाहिए बॉडीगार्ड देखने के लिए

सौरभ द्विवेदी
एक स्टार
एक हीरो थे, अब लगातार फ्लॉप दे रहे हैं, इसलिए एक्टर हो गए हैं, नाम है अक्षय कुमार। उन्होंने दो एक साल पहले बैक टु बैक कई सुपरहिट फिल्में दीं। उन्हें और उनसे ज्यादा प्रॉड्यूसर्स को लगा कि फॉम्र्युला मिल गया है। उसके बाद अक्षय एक हिट के लिए तरस रहे हैं। मगर बॉडीगार्ड तो सलमान खान की फिल्म है, तो फिर अक्षय का जिक्र क्यों। आज मुझे लगा कि सलमान भी उसी रास्ते पर जा रहे हैं या कहें कि धकेले जा रहे हैं। वॉन्टेड, दबंग, रेडी के खुमार में डूबकर अगर ऐसी ही फिल्में वह करते रहे तो उनकी स्टार पावर पास्ट टेंस की चीज बन जाएगी। बॉडीगार्ड में एक भी नया थॉट, डायलॉग या स्टोरी पॉइंट नहीं है। जब फिल्म खत्म होने को आई तो डायरेक्टर सिद्धीक को क्रिएटिविटी की सूझी और उन्होंने क्लाइमेक्स में कहानी के साथ ऐसे खिलवाड़ किए कि आपकी कल्पना कराहती नजर आई।
आज रेग्युलर रिव्यू नहीं, आप तो बस फिल्म के कुछ फॉम्र्युलों के बासीपन पर उदाहरण सहित नजर फरमाएं।
सलमान की एंट्री : असली शॉट ट्रांसपोर्टर 2 से लिया गया। हीरो अपने एंट्री शॉट में बहुत सारे गुंडों की धुलाई करता है और बीच-बीच में कॉमिक सिचुएशन पर गुंडों समेत हंस भी लेता है। इस शॉट को प्रभु देवा ने वॉन्टेड में सलमान की एंट्री के लिए यूज किया। अभिनव कश्यप ने दबंग में यूज किया और अब सिद्दीक ने बॉडीगार्ड में यूज किया। मकसद 1, पब्लिक को ये बताना कि तुम्हारा नायक बिना किसी नखरे के कितनों की धुलाई कर सकता है। मकसद 2, सलमान के बदन से शर्ट नाम की चिडिय़ा को हट्ट-हुर्र करके उड़ाना। मकसद 3, आगे की फिल्म की टोन सेट करना।
सलमान की एंट्री का गाना : माफ कीजिए सलमान पर फिर लौट रहा हूं क्योंकि फिल्म उनके मजबूत बदन पर टिकी है।औसत फिल्म मगर सल्लू के फेर में अच्छी ओपनिंग पाई फिल्म रेडी याद है आपको। उसका गाना ढिंका-चिका की मस्ती को फ्लैशबैक से वापस लाइए। अब एक गाना सोचिए जो मस्त हो, मगर हुड़ दबंग-दबंग वाले वीर रस से भरा हो। आओ जी-आओ जी... आ गया है देखो बॉडीगार्ड गाना तैयार है। डोले फड़काते स्लीवलेस शर्ट पहने सलमान, उनके इर्द-गिर्द भुजाएं फड़काते, दंड पेलते तमाम नौजवान। अभी सिंघम में भी कुछ ऐसा ही था न।
हीरो के साथ जोकर : एक कार्टून नायक के इर्द-गिर्द ताकि फिल्म का कॉमेडी वाला कोटा पूरा किया जा सके। वॉन्टेड में ये काम मनोज पाहवा ने किया था। जानू जानू बोलकर, फनी कपड़े पहनकर और आयशा टाकिया के आसपास घूमकर। बॉडीगार्ड में रजत रवैल ने सुनामी सिंह का किरदार निभाया है, जो मोटा है मगर मजाकिया नहीं। जब उसके डायलॉग नहीं हंसा पाते, तो डायरेक्टर उन्हें गल्र्स के कपड़े पहनाने और फिर गल्र्स से पिटवाने का उपक्रम भी कर लेते हैं, मगर हंसी, वो तब भी पराई ही बनी रहती है।
कुछ खास आवाजें और एक पंच लाइन : जब मैं एक बार कमिटमेंट कर देता हूं, तो अपनी भी नहीं सुनता, भइया जी स्माइल जैसे पंच लाइन की तर्ज पर इस फिल्म में डायलॉग है मुझ पर एक एहसान करना कि मुझ पर कोई एहसान न करना। इसके अलावा सलमान के किरदार लवली सिंह की एक खास रिंगटोन और हर बार फोन बजने पर उनका कूल्हों को पुश करके चौंकना बेढब लगता है।
करीना कॉकटेल में फंसीं : कभी खुशी कभी गम में करीना का एंट्री शॉट याद करिए। इट्स रेनिंग...की तेज बीट, मस्कारा और लिपस्टिक लगातीं, चमकीली ड्रेस पहनतीं करीना। अब जब वी मेट की करीना यानी गीत को याद करिए। शानदार चटख कंट्रास्ट के कुर्ते पहनने वाली शोख नायिका।इन दोनों को मिला दीजिए। बॉडीगार्ड में करीना यानी दिव्या की एंट्री हाजिर है। इसके अलावा जब लवली और दिव्या की लव स्टोरी डायरेक्टर के हिसाब से गहरे भंवर में फंस जाती है, तब एक गाना शूट होता है। इस गाने के लिए उन्होंने मैं हूं न की सुष्मिता को, दे दना दन में अक्षय कटरीना के गाने को और थ्री इडियट्स के जूबी डूबी गाने में साड़ी में लिपटी करीना को बार-बार देखा और गाना बना दिया।
कुछ और फॉम्र्युले बाकी हैं अभी : वफादारी बहुत बड़ा मूल्य है। सिनेमा के पर्दे पर जैसे तस्वीरें बड़ी दिखती हैं ये मूल्य भी मैग्निफाई हो जाता है। उसी के इर्द-गिर्द है बॉडीगार्ड की कहानी। लवली सिंह के मां-बाप को सरताज सिंह राणा (राज बब्बर) ने बचाया, लवली उनका एहसानमंद है। अब लवली को उनकी बेटी दिव्या को बचाना है। मगर दिव्या को लवली से प्यार हो जाता है। यहीं से मुश्किल शुरू होती है। बॉडीगार्ड मालिक की बेटी से कैसे प्यार कर सकता है। यही है कहानी फिल्म की।यहां रुककर नाइनटीज में आई फिल्म बंधन को याद करिए। जो जीजा जी बोलेंगे, मैं करूंगा बोलते सलमान खान। यहां इसी रट के साथ प्रकट हुए, कि मैडम आई एम योर बॉडीगार्ड। कोई कुछ कैसे कर सकता है।
इसके अलावा स्टोरी आगे बढ़ाने के लिए इसमें कभी खुशी कभी गम की तरह मर चुकी साइड एक्ट्रेस है, जिसका बच्चा, मां की डायरी पढ़कर अपने पापा की लव स्टोरी के बारे में जानता है। फिर पापा को उनके असली प्यार से मिलवाता है। इसके अलावा गाने की और एक्शन की ऐसी-ऐसी सिचुएशन हैं, जिनका तर्क से नहीं तकलीफ से लेना देना है। फिल्म पूरा देखने की तकलीफ। बॉडीगार्ड देखने के लिए ब्रेन गार्ड चाहिए।

शनिवार, अगस्त 20, 2011

काफी सही, कुछ गलत है ये फिल्म


दिल्ली सिर्फ चांदनी चौक और करोल बाग में या जनपथ-राजपथ पर ही नहीं बसती। एक दिल्ली, खालिस-भदेस दिल्ली उन ग्रामीण इलाकों में बसती है, जो पहले दिल्ली की सरहद पर थे और अब इसका हिस्सा हैं। उस दिल्ली को सेल्युलाइड पर पहली बार जोरदार ढंग से प्रवीण डबास ने दिखाया है। प्रवीण को अब तक आप एक मॉडल एक्टर के तौर पर जानते थे, जो मॉनसून वेडिंग और खोसला का घोसला के लिए याद रह जाते हैं। मगर सही धंधे-गलत बंदे एक दूसरे डबास को हमारे सामने रखता है। न्यू यॉर्क फिल्म इंस्टिट्यूट में सीखी चुस्ती को किरदारों के डिटेल्स डिवेलप करने में यूज करता, साथ ही ग्रामीण दिल्ली के औचक ह्यूमर और बेचारगी को त्रासद रूप में पेश करता राइटर और डायरेक्टर, जो फिल्म के लीड रोल में भी है। सही धंधे, गलत बंदे की कहानी और कैमरे में कई अच्छे प्रयोग हैं, मगर ट्रैजिडी को गाढ़ा करने के लिए कहानी में कन्टीन्यूटी और टेंशन होना जरूरी है। वो कहीं-कहीं मिस होता है। हरियाणवी भाषा की वजह से ह्यूमर के लिए बहुत गुंजाइश थी, वो कहीं-कहीं ही नजर आता है। इसके अलावा एक्टर प्रवीण की बॉडी लैंग्वेज उतनी रफ नहीं हो पाती, जितने की उन्हीं का लिखा कैरेक्टर राजबीर डिमांड करता है। इतना सब कहने के बाद भी मैं आपको सलाह दूंगा कि ये फिल्म एक बार देखनी चाहिए। क्यों ये आगे बताता हूं।

कच्चेपन की महिमा

फिल्म की कहानी प्रवीण के अपने गांव कंझावला और अपने एक्सपीरियंस के इर्द-गिर्द घूमती है। कंझावला दिल्ली के बाहरी इलाके में बसा एक गांव है। प्रवीण के पिता समेत वहां के तमाम किसान सरकारी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ पिछले कई सालों से संघर्ष कर रहे हैं। इसी थीम को प्रवीण ने अपनी पहली कहानी का आधार बनाया। कहानी है चार लड़कों की, जिनके निकनेम से उनके किरदार की लय पता चलती है। ये बालक हैं राजबीर (प्रवीण डबास), सेक्सी (वंश भारद्वाज), अंबानी (आशीष नय्यर) और डॉक्टर (कुलदीप रूहिल)। राजबीर का बाप जमीन के रेट चढऩे के गुमान में दारू पी और गड्डी खरीद मर गया, फिर मां भी मर गई, जमीन बिक गई। सेक्सी जैसा की नाम से पता चलता है छिछोरा टाइप और चब्बी चेजर है। अंबानी हर वक्त कैलकुलेटर लिए फिरता है और एक बड़ा हाथ मार सेटल होना चाहता है। डॉक्टर बीवी बच्चों वाला है और मेडिकल स्टोर चलाने की वजह से ये नाम पाता है। कंझावला के रहने वाले ये चारों एक छुटभैया गैंग चलाते हैं और एमएलए का सपना पाले फौजी (शरत सक्सेना)के लिए घर खाली कराने, धमकाने जैसे काम करते हैं। फिर फौजी इनको सौंपता है अपने ही गांव के लोगों का धरना तुड़वाने का काम और यहीं पर राजबीर की आत्मा जाग जाती है। अगर डॉक्टर का डायलॉग लेकर कहूं तो उनके अंदर से आवाज आती है कि बदमाश हैं, मगर कमीने नहीं हम। अब एक तरफ है सूबे की सीएम, जमीन पर कब्जा कर इंडस्ट्री बनाने की फिराक में लगा घाघ बिजनेसमैन अग्रवाल(अनुपम खेर) और उसका साथ देता फौजी और दूसरी तरफ है राजबीर की चौकड़ी। बंदे गलत हैं, मगर इस बार काम सही उठाया है। कैसे निपटाते हैं वे मुश्किलें, इसी से फिल्म का अंत तय होता है।

फिल्म में कई चीजें बहुत अच्छी हैं। जैसे ओपनिंग ट्रैक में फोक सॉन्ग का इस्तेमाल, गांव के धुंधले-भूरे विजुअल और चार बच्चों का ऊधम, जो बाद में लीड कैरेक्टर बनते हैं। धरने के दौरान रागिणी का सीक्वेंस बहुत प्रामाणिक और उसकी वर्डिंग बहुत मौजू है। इसके अलावा कई जगह डायलॉग उम्दा हैं। बालकों ने अपने किरदार में नांगलोई, नजफगढ़ की हवा पानी को उतार कर रख दिया। मुंबई माफिया पर, उसकी मैकेनिज्म पर हमने बहुत फिल्में देखीं, मगर दिल्ली में ये तंत्र कैसे काम करता है, ये फिल्म बखूबी दिखाती है। यूं समझ लें कि खोसला का घोसला में प्लॉट के बाहर लाठी लिए खड़ा वो गबरू, जो अनुपम खेर की फैमिली से कहता है कि मैं तेरा फूफा ओमवीर, ये फिल्म उसी ओमवीर की अपनी त्रासदी की कहानी है।


काश यूं होता कभी

फिल्म में जमीन का मुद्दा है, सरकारी तंत्र के आगे बेबस किसान हैं, मीडिया का रोल है और गुस्साए युवा हैं। अन्ना मूवमेंट के इस मोड़ पर रिलीज हुई इस फिल्म को इससे बेहतर समय संदर्भ नहीं मिल सकता था। मगर फिल्म की स्क्रिप्ट कई जगह सुस्ताती और झोल खाती है, जिसकी वजह से दर्शक पहलू बदलने लगता है। सीएम के बेटे की कहानी, उसका एटीट्यूड और लास्ट में उसका गांव वालों के सपोर्ट में आना फिल्मी सा लगता है।राजबीर का लव ट्राएंगल जबरन ठूंसा गया है, गोया हीरो के एक दूसरे साइड को दिखाने पर ही उसके अंदर का ह्यूमन पूरा नजर आता। इसके अलावा अनशन की साइट पर मीडिया के नाम पर सिर्फ एक ही टीवी पत्रकार का होना अजीब लगता है। वह भी तब जब सूबे की सीएम का बेटा धरने पर बैठा हो। फिल्म में नई लोकेशन हैं, किरदारों का लहजा नया है, मगर इन कुछ बारीक चूकों के चलते इसकी विश्वसनीयता कुछ घट जाती है। फिल्म खुद की जगाई उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाती, इसलिए कुछ अफसोस भी रह जाता है। ऐसा फील आता है कि यार अच्छी थीम और ट्रीटमेंट था, बस थोड़ी सी गुंजाइश रह गई। मगर पहली फिल्म के लिहाज से डबास का होमवर्क जबर्दस्त लगता है। ये फिल्म एक अनछुई दिल्ली और उसके बाशिंदों की तकलीफ समझने के लिए देखिए, कच्ची यानी कंक्रीट के बजाय मिट्टी की जमीन पर रहने वालों की दिल्ली के लिए देखिए। अच्छी से चिन्नी भर कम, मगर एवरेज से कहीं ज्यादा है सही धंधे-गलत बंदे।
2.5 star

सिनेमा का शानदार सबक है नॉट ए लव स्टोरी

बहुत समय पहले की बात है, एक आवारा, बागी जीनियस मुंबई में पाया जाता था, नाम था रामगोपाल वर्मा। सब उसे रामू कहते थे।रामू ने कई एक सालों की मेहनत से मुंबई नगरी का ग्रैमर बदल दिया था। उनकी फैक्ट्री से निकली शिवा, सत्या, कौन, कंपनी जैसी फिल्मों ने कैमरे की लचक, बैकग्राउंड स्कोर की धमक और कहानी के कटीले असर को स्थापित किया। इस फैक्ट्री से अनुराग कश्यप जैसे तमाम प्रतिभाशाली डायरेक्टर, राइटर निकले। फिर कुछ सालों में ही रामू एक सनक का नाम हो गए।उन्होंने नाच, फूंक, वास्तुशा जैसी फिल्में बनाईं जो बॉक्स ऑफिस पर फेल रहीं और इस सनक में पूर्णाहुति का काम किया रामगोपाल वर्मा की आग ने। उस आग में रामू की इमेज ऐसी जली कि सरकार जैसी इक्का-दुक्का हिट भी उसे बचा नहीं पाईं।
आज की बात है कि पुराना रामगोपाल वर्मा परदे पर, कहानी में, कैमरे के पीछे लौट आया है। इस शुक्रवार को रिलीज हुई उनकी फिल्म नॉट ए लव स्टोरी इस बात की ताकीद पूरे तेवरों के साथ करती है। एक कहानी, जिससे हर कोई वाकिफ है, इतने सरल और सघन तरीके से अपने अंत तक पहुंचती है, कि सीखने को पूरा एक चैघ्टर मिल जाता है। स्टार नहीं, एक्टर अपने रोल ऐसे निभाते हैं कि बरसों याद रहने लायक मेमरी रील मिल जाती है। और कैमरा, उस पर तो पूरा एक पेज लिखा जा सकता है। जिसे सिनेमा का शौक है, जिसे कैमरे का शौक है, या जिसे सीन के समंदर की अनंत गहराइयां सीखनी हैं, उसे तो ये फिल्म बार-बार देखनी चाहिए। फिल्म में कैमरा हर फ्रेम में इतना कुछ कहता है कि नजर चूकी नहीं और एक गहरी अर्थपूर्ण व्याख्या मिस हो गई।भदेस लहजे में कहूं तो रामू का रौला पूरी ठसक के साथ कायम करती है ये फिल्म।
कहानी और कलाकार
हल्ला मचा है कि फिल्म मुंबई के नीरज ग्रोवर मर्डर केस पर बेस्ड है। नीरज एक टीवी कंपनी में था, जिसकी हत्या मारिया सुसाईराज नाम की मॉडल के प्रेमी एमिली जीरोम ने कर दी। इस फैक्ट के इर्दगिर्द फिल्म की कहानी बुनी गई है। अनुषा (माही गिल) मुंबई में है और एक्ट्रेस बनने के लिए पापड़ बेल रही है। घड़ी-घड़ी फोन कर हाल लेता है उसका प्रेमी रॉबिन(दीपक डोबरियाल), जो किसी दूसरे शहर में वाइट कॉलर जॉब कर रहा है। अनुषा देह के स्तर पर कोई सौदा नहीं करना चाहती इसलिए उसे आसानी से काम नहीं मिलता। फिर एक जगह बात बन जाती है और उसी दौरान बनता है कास्टिंग डायरेक्टर आशीष (अजय गेही) से उसका रिश्ता। ये रिश्ता दोस्ती का लगता है, कम से कम अनुषा की तरफ से, मगर एक रात अजय भावुक हो, शराब के नशे में खुद को अनुषा पर थोप देता है। फिल्म दिलाने की कृतज्ञता के नीचे दबी अनुषा कुछ नहीं कर पाती। उस रात की सुबह होती है रॉबिन की सरप्राइज विजिट के साथ। और फिर, रॉबिन अनुषा के फ्लैट का सीन देख गुस्साता है, कत्ल करता है, लाश को ठिकाने लगाता है, मगर आखिर में दोनों पुलिस के चंगुल में फंस जाते हैं।
इस सपाट घ्लॉट को रामू ने घना बनाया है, सिंपल एक्टिंग के जरिए। हर शॉट में दीपक और माही नेचरल रिएक्शन देते लगते हैं। इससे ठीक उस पल तो सीन जेहन में कोई ड्रामा पैदा नहीं करता, मगर कुछ मिनटों में वो आपके अंदर पैबस्त हो जाता है, अपने नेचरल टोन की वजह से। और इस पूरे प्रोसेस की वजह से आप फिल्म देखते नहीं, उसका हिस्सा बन जाते हैं। इस हिस्सेदारी में मदद करता है कैमरा, जो कभी तो रुक कर एक चेहरे, एक इमोशन या एक फ्रेम को गहरे से पकडऩे लगता है। पहले धुंधला और फिर साफ होता। या फिर हिलता डुलता रहता है, जैसे स्थिर गर्दन के ऊपर आंखें हिल रही हों, जूम इन जूम आउट हो रही हों।
दीपक ने अब तक ओंकारा, गुलाल जैसी फिल्मों में रॉ शेड वाले रोल किए हैं और जमकर किए हैं। मगर इस फिल्म में उन्हें रॉ हुए बिना उस पागलपन को दिखाना था, जो एकबारगी एक पल को हावी हो गया और फिर उस पल का करम मिटाने के लिए कायम रहा। उन्होंने बिना चीखे, बिना चेहरा बनाए रॉबिन की बेचैनी को शानदार तरीके से सामने रखा। माही इस फिल्म का सेंटर पॉइंट थीं और उन्होंने अनुषा के रोल में ये साबित कर दिया कि इंडस्ट्री को उनके एक्टिंग हुनर की कद्र करनी ही होगी।
रामगोपाल वर्मा की फिल्मों का रेग्युलर चेहरा हैं जाकिर हुसैन। उन्हें आप सरकार समेत तमाम फिल्मों में देख चुके हैं। इस फिल्म में वह इंस्पेक्टर माने बने हैं, कम देर के लिए आए हैं, मगर अपने गब्दू अपीयरेंस, ऑर्डिनरी ड्रेसअप में वो चिलिंग फैक्टर पैदा कर देते हैं, जो आप मुंबई जैसे घाघ शहर में एक सीआईडी ब्रांच के इंसपेक्टर में देखने की उम्मीद करते हैं।
कैमरा है नायकम
मैंने पहले भी कहा और अब इस पूरे पैराग्राफ में कहूंगा कि इस फिल्म की जान कैमरा है। एक सीन है जिसमें माही के फ्लैट में नंगी लाश पड़ी है। कैमरा उस लाश के मुड़े हुए पैर से अपना सफर शुरू करता है, उसके बैकग्राउंड में एक दूसरा नंगा अधदिखा पैर है माही का, उस पर जूम इन करता है और फिर उस फ्रेम में तीसरा पेयर आता है पैरों का, जो दीपक का है। यह पूरा सीन इतना सघन और प्रतीकात्मक है, कि आप सांस रोककर इसे पूरा का पूरा आत्मसात कर लेना चाहते हैं। नॉट ए लव स्टोरी में ऐसे तमाम सीन हैं। एक्ट्रेस का रोल हासिल करने के लालच में इस मोड़ तक पहुंची माही रो रही है और उसका सिर घर में एक दीवार पर टंगे छुटकू से मंदिर के फ्रेम पर टिक जाता है। मंदिर की मेटल सरफेस पर लिखा लाभ चमक रहा है उस दौरान। या फिर कमरे में एंटर करते ही कैमरे की राह में आ जाता है विंड चाइम, जिसके एक स्टिक पर मुस्कुराता आधा चांद बना है।
फिल्म के कैमरा वर्क की एक और खासियत इसका वीभत्स और घिनौना हुए बिना डर पैदा करना है। कहानी है कि लाश को कई टुकड़ों में काटा जाता है, मगर रामू कहीं भी इस सीन को नहीं दिखाते। खून का एक्स्ट्रा शॉट नहीं भरते। लाश को जलते नहीं दिखाते। फिर भी सब कुछ आपके जेहन में दिखता है। यहीं ये फिल्म क्लासिक के दर्जे की दावेदार हो जाती है। सोचें एक सीन है, जिसमें माही को एक कमरे से होकर बाहर जाना है। उस कमरे में लाश के कई टुकड़े पड़े हैं। माही उबकाई न महसूस करे, इसलिए दीपक उसका चेहरा जबरन थामता है ठोड़ी से और नजर ऊपर छत पर कर बाहर निकालता है। आपको पता है कि लाश है, आपको दिख नहीं रही, मगर आपके जेहन से हट भी नहीं रही।
और अंत में...
रामू रियलिटी टच वाली स्टोरी के राजा हैं। कंपनी, जंगल और सरकार जैसी फिल्मों में वह यह साबित कर चुके हैं। नॉट ए लव स्टोरी उसी कड़ी का एक अहम पड़ाव है। हमेशा की तरह संदीप चौटा का बैकग्राउंड स्कोर अच्छा है, मगर गाने कहीं कहीं फिल्म की तीव्रता घटाते लगते हैं। और यहां जिक्र करना जरूरी है फिल्म के क्लाइमेक्स का, जो तसल्लीबख्श भी है और ये बताता भी है कि कहानी हजार अंत लेकर पैदा होती है। ये फिल्म देखिए, मगर कूची कूची लव स्टोरी मोड में नहीं। डीटी में फिल्म देखने के दौरान इस तरह के कई कपल उठकर चले भी गए थे। फिल्म देखिए क्योंकि ये सिनेमा का एक नया सपना, एक नई सच्चाई आपके सामने रखती है।
4 स्टार

शुक्रवार, अगस्त 12, 2011

आरक्षण क्यूईडी प्रॉब्लम नहीं है प्रकाश

सौरभ द्विवेदी
अमिताभ बच्चन, मैथ्स के प्रफेसर और एक प्राइवेट ट्रस्ट द्वारा चलाए जा रहे बेहद प्रतिष्ठित कॉलेज के प्रिंसिपल। एक बार अपने दूधवाले के तबेले में छोटे बच्चों को एक थ्योरम आसान उदाहरणों के जरिए सिखाते हैं। फिर एक शब्द बोलते हैं क्यूईडी यानी क्वाइट इजिली डन। डायरेक्टर प्रकाश झा ने आरक्षण जैसे जटिल मुद्दे का भी यही ट्रीटमेंट किया है, हमेशा की तरह। यहां आप ठहरकर याद कर सकते हैं गंगाजल, अपहरण और राजनीति को, प्रकाश फस्र्ट हाफ में उम्मीदें जगाते हैं, आपस में कई स्तरों पर गुंथा प्लॉट दिखाते हैं, मगर सेकंड हाफ में पहले से तय निष्कर्षों की तरफ हांफते हुए भागते हैं। यहां उनके अंदर के निर्देशक के ऊपर अंदर का बिजनेसमैन हावी हो जाता है। फिल्म को एक ड्रामेटिक और तसल्ली शुदा अंत तक पहुंचाने की हड़बड़ी उन पर हावी दिखती है। आरक्षण में भी यही हुआ। और इसके चलते मनोज वाजपेयी की उम्दा एक्टिंग, अमिताभ की रेंज और उनके सैफ और मनोज के साथ कुछ एक इंटेंस सीन वेस्ट हो गए। आरक्षण एक बार फिर इस यकीन को पुख्ता करती है कि बॉलीवुड बड़े कैनवस पर पॉलिटिकल एंगल वाला मुकम्मल स्टेटमेंट देता ड्रामा बनाने के लिए फिलवक्त तैयार नहीं।
कौन सी डोर खींचे, कौन सी काटे
पंडित छन्नू लाल मिश्र की हवा में बेताल सी डोलती आवाज जब आलाप भरती है और सुर फूटते हैं कौन सी डोर खींचे, कौन सी काटे, तो सम्मोहन पैदा होता है। सिनेमा और संगीत अपना धर्म पूरा करते लगते हैं। ये लाइन लिखने वाले प्रसून जोशी के हाथ चूमने का मन करता है। मगर फिर पूरी फिल्म के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि झा और फिल्म के राइटर अंजुम राजाबली नौकरी में आरक्षण, दलित और पिछड़ी जातियों के अंतर्विरोध, शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण और इस मैदान पर अपने-अपने पाले में खड़े हो हुंकारें भरते तमाम मोहरों को समेट नहीं पाए। फस्र्ट हाफ में फिल्म मोहब्बतें के नारायण शंकर के अनुशासन में सांस लेते गुरुकुल जैसे कॉलेज में शुरू होती है। प्रभाकर आनंद (अमिताभ) यहां के प्रिंसिपल हैं और दीपक कुमार (सैफ) यहां के सबसे होनहार स्टूडेंट, जो जाति से दलित हैं। प्रिंसिपल साहब की बेटी पूर्वी (दीपिका) दीपक की दोस्त है और ये दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं। इस ग्रुप में शामिल है सुशांत जो ऊंची जाति का है। इन सबके जीवन में हलचल आती है तब, जब सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली बेंच सरकारी शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी कैटिगरी के लिए 27 फीसदी रिजर्वेशन के पक्ष में फैसला सुनाती है। यहीं से राजनीति शुरू हो जाती है उस कॉलेज में जो प्राइवेट होने के कारण सीधे इस फैसले से प्रभावित नहीं होता, मगर यहां के लोगों की जातीय अस्मिता अचानक जाग जाती है। इस बीच कॉलेज के ही एक कोचिंग माफिया अध्यापक फलक पर उभरते हैं और अपनी राजनीति के जरिए रिजर्वेशन पर पक्ष और विपक्ष की फांक साफकर देते हैं। यहां होता है इंटरमिशन और लगता है कि आरक्षण और अनुशासन के बीच फंसा ये प्लॉट कुछ ठोस दिखाएगा। मगर इंटरवल के बाद फिल्म फोकस हो जाती है कोचिंग माफिया के ऊपर। कैसे कुछ कॉलेज और स्कूल अध्यापक अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करते। फिर खोलते हैं महंगी कोचिंग जिसमें एडमिशन को बच्चे मजबूर हैं क्योंकि उन्हें रैट रेस जीतनी है। ऐसे सीन में कॉलेज से रिजर्वेशन पर अपने स्टैंड के चलते चलता किए गए प्रिंसिपल साहब को एक व्यक्तिगत वजह मिल जाती है कोचिंग माफिया से लडऩे की और तमाम मुश्किलों के बाद क्या गरीब, क्या पिछड़े क्या अगड़े सबके बच्चे एक तबेला स्कूल में पढ़कर अपना भविष्य सुधारते हैं क्योंकि उन्हें पढ़ाते हैं कुछ नेक आदर्शवादी विचारों वाले लोग।
इस कहानी को सुनकर और अगर आप फिल्म देखने चले गए तो देखकर समझ नहीं आएगा कि आरक्षण फिल्म पर मचे बवाल की वजह क्या है। आखिर इसमें कुछ भी तो भयंकर, क्रांतिकारी या नया नहीं। और सेकंड हाफ में तो फिल्म फिल्मी ट्रीटमेंट के जरिए सबका भला करे भगवान की तर्ज पर बात करने ही लगती है।
एक्टिंग पर कुछ बातें
जैसा मैंने पहले भी कहा अमिताभ सफेद दाढ़ी और फॉर्मल जोधपुरी सूट में नारायण शंकर की याद दिलाते हैं। हां आवाज में कड़की की जगह एक सर्द नरमी जरूर है। फिर सेकंड हाफ में अपनों और दुश्मनों से जूझते वक्त वह विरुद्ध के मजबूर और फिर संकल्पशील पिता की याद दिलाते हैं, जो लेंस के पीछे छिपी पनियाई आंखों में अपने आदर्शों को घुलने नहीं देता। आरक्षण अगर कुछ जमी तो अमिताभ उसकी एक अहम वजह हैं। मनोज वाजपेयी ने मिथलेश सिंह के रोल में एक बार फिर कमाल अभिनय किया। राजनीति में भी वही बेस्ट थे।याद कीजिए वीरेंद्र प्रताप सिंह के हवा में हाथ झुलाकर करारा जवाब दिया जाएगा वाले डायलॉग को। मनोज अमिताभ के साथ किसी भी फ्रेम में कमजोर नहीं दिखे। साझा फ्रेम की ही बात करें तो अमिताभ से आरक्षण पर उनका स्टैंड पूछते सैफ उम्मीदें जगाते लगे। कलमी मूंछें और प्लेट वाली हेयर स्टाइल और बिना टक इन किए शर्ट में वह स्कॉलर वाली टिपिकल इमेज क्रिएट करते हैं। मगर सेकंड हाफ में उनकी एक्टिंग फ्लैट हो जाती है। स्क्रिप्ट में भी ज्यादा गुंजाइश नहीं बचती उनके लिए। दीपिका शहरी लड़की के रोल में चुहल के मोमेंट्स अच्छे से क्रिएट करती हैं, अच्छा लगता है गाने को वह एक देह बख्शती हैं, मगर उनके रोल में एक किस्म के भदेसपन की गुंजाइश थी, जो उन्होंने गंवा दिया।उन्हें अपने इलीट तेवर विसर्जित करने के लिए अपने को स्टार सैफ की ओमकारा देखनी चाहिए।प्रतीक बब्बर फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी हैं, उनका रोल अधूरा, उनके हाव-भाव भौंचक्के से। एक संभावनाशील एक्टर का इस तरह वेस्ट होना अखरता है।
और अंत में...
आरक्षण निराश करती है, कई स्तरों पर। इसमें शुरू किया गया राजनीतिक विमर्श सरलीकरण का शिकार है। इसके अलावा फिल्म में कई चीजें जबरन हैं, जैसे दे दे मौका गाना, जिसका कोई ओर-छोर और औचित्य नहीं। इसके अलावा कहानी को फाइनल रिलीफ देने के लिए हेमा मालिनी के किरदार का सहारा भी जमता नहीं। आखिर आरक्षण या एजुकेशन सिस्टम पर कोई भी लड़ाई इसी सिस्टम के अंगों के सहारे लड़ी जानी है, किसी गार्जियननुमा दैवीय से दिखते हस्तक्षेप के जरिए नहीं। प्रकाश झा ने दामुल जैसी तीखी क्लैसिक फिल्म बनाई, जो नहीं चली। झा ने बड़ी स्टार कास्ट के साथ राजनीति बनाई जो सुपरहिट रही। इस फिल्म में न तो तीखापन है और न ही बड़ी स्टारकास्ट के बावजूद हिट होने की कोई वजह।


शनिवार, अगस्त 06, 2011

नेक ख्यालों वाली बोरिंग फिल्म

टीवी सिरीज को फिल्म में बदलने के अपने जोखिम हैं। टीवी सीरियल 24 मिनट का और कम से कम तीन ब्रेक वाला होता है। ऐसे में हफ्तों महीनों में जिन किरदारों से राब्ता कायम होता है, उनकी हरकतों के साथ एक पहचान स्थापित हो जाती है। इसलिए आगे चलकर बार बार वो तनाव नहीं बुनना पड़ता, जो किसी किरदार को उसकी खास रंगत मुहैया कराता है। ऑफिस ऑफिस बीते बरसों का ऐसा ही सीरियल था। इसके किरदार अपनी सिग्नेचर टोन के साथ हमारी बातचीत और जेहन का एक हिस्सा बन गए थे। पानी में जो दिखती नहीं, वो छवि हूं मैं, मुसद्दी लाल नाम है मेरा, कवि हूं मैं, जैसे तमाम वन लाइनर आज भी बिना किसी जतन के याद हैं, क्योंकि ऑफिस ऑफिस सहज ह्यूमर का अड्डा था। शुक्ला जी की पान की पीक, ऊषा जी का खींचकर बोलना वही तो और भाटिया जी के रोल में गब्दू टेट्रा चिन दिखाते मनोज पाहवा का हमेशा समोसे खाते रहना, सब कुछ सरकारी तंत्र पर बुने गए व्यंग्य का एक अनिवार्य हिस्सा लगता था।
सीरियल पर इतनी बात क्योंकि इसकी थीम पर बनी फिल्म चला मुसद्दी ऑफिस ऑफिस में ये सब किरदार और यही सरल बातें होने के बावजूद कुछ मिसिंग है। कहानी उबाऊ हो जाती है, अपेक्षित हो जाती है और किरदार बिना सींग के पालतू बैल जैसे हो जाते हैं, जो अपने ऊपर बैठा कौआ भी नहीं उड़ा सकते।
कई पेच ढीले रह गए
फिल्म में पुराने सेटअप के अलावा एक नया किरदार आया है बंटी त्रिपाठी का। ये मुसद्दीलाल जी के बेटे हैं और निठल्ले हैं। इसे निभाया है गौरव कपूर ने।स्किनी से गौरव कपूर एमटीवी वी टीवी के यो टाइप प्रोग्रैम होस्ट करें और टाइम मिले तो आईपीएल मैच के पहले बेवकूफाना सवाल पूछें। फ्रेम में एक तरफ पंकज कपूर और दूसरी तरफ गौरव कपूर को देखना कागजी नींबू वाले अचार को पीतल के बर्तन में रखने की तरह है। मुसद्दी लाल के चेहरे की करुणा गौरव की ओवर एक्टिंग के चलते मजाक में बदल जाती है। और याद रहे मुसद्दी मजाक का नहीं पीड़ा से उभरे व्यंग्य का नायक है। इसीलिए वो कॉमेडी सर्कस के जमाने में कुछ भदेस ठहाकों की जमीन मुहैया कराता रहा है। इस पैच वर्क के अलावा जमे जमाए कैरेक्टर भी दोहराव के शिकार लगे हैं। फिल्म उनके ढर्रेदार डायलॉग के सहारे आगे बढऩे के जतन में घिसटने लगती है। ऐसा लगता है कि जैसे पूरी फिल्म के दौरान डायरेक्टर राजीव मेहरा इस उहापोह के शिकार रहे कि मुसद्दीलाल की टोन और चेहरे के भावों के उतार चढ़ाव के जरिए कॉमेडी पैदा की जाए या उनके आसपास जमा सरकारी जमूरों की टोली के बोल बचनों के जरिए।
कुछ भला भी लगा क्या
एक सरकारी कर्मचारी दूसरे सरकारी कर्मचारी से : कहते हैं ठीक कर देंगे, अरे हम कोई बीमारी थोड़े ही न हैं, जो ठीक हो जाएंगे।
सरकारी तंत्र की मानसिकता पर ऐसे ही कुछ मार्के वाले व्यंग्य हैं फिल्म में, जो गुदगुदाते हैं। इसके अलावा चपरासी शुक्ला का हर बात के बाद पान की पीक थूकने का मेटाफर अच्छा है। इस बारे में सोचते ही कि कोई आगे पीछे देखे बिना कहीं भी पान थूक सकता है, एक घिन सी उठती है। मगर कमाल ये कि पूरी फिल्म में वो पीक सिर्फ एक बार दीवार पर दिखाई गई। बाकी रील में कैमरे को पीक गिरने की आवाज सुनाने तक सीमित रखा गया। इस अदृश्य पीक से जो घिन पैदा होती है, वो कहीं गहरी है। दरअसल ये पीक नहीं वो बदबू है, सीलन है, जो हर सरकारी दफ्तर में भरी है। आप यहां एंटर करिए, सफेद कलई से पुती दीवारें, काली भूरी हो चुकी कुर्सियों पर झूलते बाबू, चाय ले जाता छोटू, खैनी रगड़ते चपरासी और बेअदबी से बात करते कर्मचारी नजर आएंगे।
और अंत में...
फिक्स्ड ट्रैक से हटकर कुछ अप्रत्याशित होता लगता है फिल्म के अंत में, मगर फिर ये भी लगे रहो मुन्ना भाई के घूस से तंग बूढ़े वाले सीन से प्रेरित लगता है। इसके अलावा गाने के नाम पर मुसद्दी मुसद्दी गाते मकरंद देशपांडे कहानी की सुस्ती को और भी बोझिल कर देते हैं। फिल्म में बार--बार कॉमनमैन की बात की गई है। मगर डायरेक्टर भूल जाते हैं कि आम आदमी कॉमेडी फिल्म हंसने के लिए देखने जाता है, घड़ी देखने के लिए नहीं। वह ये भी भूल जाते हैं कि अकेले पंकज कपूर के सहारे फिल्म नहीं खिंच सकती।

नेक ख्यालों वाली बोरिंग फिल्म

टीवी सिरीज को फिल्म में बदलने के अपने जोखिम हैं। टीवी सीरियल 24 मिनट का और कम से कम तीन ब्रेक वाला होता है। ऐसे में हफ्तों महीनों में जिन किरदारों से राब्ता कायम होता है, उनकी हरकतों के साथ एक पहचान स्थापित हो जाती है। इसलिए आगे चलकर बार बार वो तनाव नहीं बुनना पड़ता, जो किसी किरदार को उसकी खास रंगत मुहैया कराता है। ऑफिस ऑफिस बीते बरसों का ऐसा ही सीरियल था। इसके किरदार अपनी सिग्नेचर टोन के साथ हमारी बातचीत और जेहन का एक हिस्सा बन गए थे। पानी में जो दिखती नहीं, वो छवि हूं मैं, मुसद्दी लाल नाम है मेरा, कवि हूं मैं, जैसे तमाम वन लाइनर आज भी बिना किसी जतन के याद हैं, क्योंकि ऑफिस ऑफिस सहज ह्यूमर का अड्डा था। शुक्ला जी की पान की पीक, ऊषा जी का खींचकर बोलना वही तो और भाटिया जी के रोल में गब्दू टेट्रा चिन दिखाते मनोज पाहवा का हमेशा समोसे खाते रहना, सब कुछ सरकारी तंत्र पर बुने गए व्यंग्य का एक अनिवार्य हिस्सा लगता था।
सीरियल पर इतनी बात क्योंकि इसकी थीम पर बनी फिल्म चला मुसद्दी ऑफिस ऑफिस में ये सब किरदार और यही सरल बातें होने के बावजूद कुछ मिसिंग है। कहानी उबाऊ हो जाती है, अपेक्षित हो जाती है और किरदार बिना सींग के पालतू बैल जैसे हो जाते हैं, जो अपने ऊपर बैठा कौआ भी नहीं उड़ा सकते।
कई पेच ढीले रह गए
फिल्म में पुराने सेटअप के अलावा एक नया किरदार आया है बंटी त्रिपाठी का। ये मुसद्दीलाल जी के बेटे हैं और निठल्ले हैं। इसे निभाया है गौरव कपूर ने।स्किनी से गौरव कपूर एमटीवी वी टीवी के यो टाइप प्रोग्रैम होस्ट करें और टाइम मिले तो आईपीएल मैच के पहले बेवकूफाना सवाल पूछें। फ्रेम में एक तरफ पंकज कपूर और दूसरी तरफ गौरव कपूर को देखना कागजी नींबू वाले अचार को पीतल के बर्तन में रखने की तरह है। मुसद्दी लाल के चेहरे की करुणा गौरव की ओवर एक्टिंग के चलते मजाक में बदल जाती है। और याद रहे मुसद्दी मजाक का नहीं पीड़ा से उभरे व्यंग्य का नायक है। इसीलिए वो कॉमेडी सर्कस के जमाने में कुछ भदेस ठहाकों की जमीन मुहैया कराता रहा है। इस पैच वर्क के अलावा जमे जमाए कैरेक्टर भी दोहराव के शिकार लगे हैं। फिल्म उनके ढर्रेदार डायलॉग के सहारे आगे बढऩे के जतन में घिसटने लगती है। ऐसा लगता है कि जैसे पूरी फिल्म के दौरान डायरेक्टर राजीव मेहरा इस उहापोह के शिकार रहे कि मुसद्दीलाल की टोन और चेहरे के भावों के उतार चढ़ाव के जरिए कॉमेडी पैदा की जाए या उनके आसपास जमा सरकारी जमूरों की टोली के बोल बचनों के जरिए।
कुछ भला भी लगा क्या
एक सरकारी कर्मचारी दूसरे सरकारी कर्मचारी से : कहते हैं ठीक कर देंगे, अरे हम कोई बीमारी थोड़े ही न हैं, जो ठीक हो जाएंगे।
सरकारी तंत्र की मानसिकता पर ऐसे ही कुछ मार्के वाले व्यंग्य हैं फिल्म में, जो गुदगुदाते हैं। इसके अलावा चपरासी शुक्ला का हर बात के बाद पान की पीक थूकने का मेटाफर अच्छा है। इस बारे में सोचते ही कि कोई आगे पीछे देखे बिना कहीं भी पान थूक सकता है, एक घिन सी उठती है। मगर कमाल ये कि पूरी फिल्म में वो पीक सिर्फ एक बार दीवार पर दिखाई गई। बाकी रील में कैमरे को पीक गिरने की आवाज सुनाने तक सीमित रखा गया। इस अदृश्य पीक से जो घिन पैदा होती है, वो कहीं गहरी है। दरअसल ये पीक नहीं वो बदबू है, सीलन है, जो हर सरकारी दफ्तर में भरी है। आप यहां एंटर करिए, सफेद कलई से पुती दीवारें, काली भूरी हो चुकी कुर्सियों पर झूलते बाबू, चाय ले जाता छोटू, खैनी रगड़ते चपरासी और बेअदबी से बात करते कर्मचारी नजर आएंगे।
और अंत में...
फिक्स्ड ट्रैक से हटकर कुछ अप्रत्याशित होता लगता है फिल्म के अंत में, मगर फिर ये भी लगे रहो मुन्ना भाई के घूस से तंग बूढ़े वाले सीन से प्रेरित लगता है। इसके अलावा गाने के नाम पर मुसद्दी मुसद्दी गाते मकरंद देशपांडे कहानी की सुस्ती को और भी बोझिल कर देते हैं। फिल्म में बार--बार कॉमनमैन की बात की गई है। मगर डायरेक्टर भूल जाते हैं कि आम आदमी कॉमेडी फिल्म हंसने के लिए देखने जाता है, घड़ी देखने के लिए नहीं। वह ये भी भूल जाते हैं कि अकेले पंकज कपूर के सहारे फिल्म नहीं खिंच सकती।