शुक्रवार, जून 17, 2011

बहुत भड़भड़ है भिंडी बाजार में

मुंबई की तंग गलियों से बॉलीवुड के कैमरे को छिछोरा रोमैंस हो गया है। इसीलिए तो हर दूसरी फिल्म में ये वहां की तंग गलियों और चुस्त लिबासों के पीछे मंडराता नजर आता है। मगर लुच्चों की टोली में एक ही हीरो होता है, बाकी सब छिछोरे। वैसे ही कैमरे की ये कारीगरी शैतान या आमिर या दूसरी फिल्मों में तो अच्छी लगती है, मगर भिंडी बाजार में ये फॉम्र्युले से बंधी लगने लगती है। कैमरे की तरह कहानी भी एक फ्रेम में फिक्स की गई है। इस फिल्म में इतने ज्यादा रेंज वाले शानदार एक्टर्स की भरमार थी, मगर आखिर में सब कुछ जीरो बटा सन्नाटा साबित हुआ।
बरबादी का बेहतर नमूना

गुलाल के पीयूष मिश्रा यहां तबेला छाप गैंगस्टर पांडे बने हैं। उनके हिस्से कुछ होंठ जबाऊ, आंख को हल्के से मींचकर बोले जाने वाले डायलॉग आए हैं। के के मेनन पूरी फिल्म में सीटी बजाते सुर में चेस खेलने के दौरान वन लाइनर मारते दिखते हैं। शिल्पा शुक्ला कजरी के रोल में शुरू में कुछ कच्चापन और अल्हड़पन दिखाती हैं, मगर बाद में कहानी ऐसी भटकती है कि उनके लिए गुंजाइश नहीं बनती। ये वही शिल्पा हैं, जो चक दे इंडिया में बिंदिया नायक के किरदार की कुंठा, प्रतिभा और स्पर्धा को ऐसे जीती हैं कि शाहरुख के साथ साझा फ्रेम बराबरी पर छूटता है। फिल्म में सबसे ज्यादा रील हिस्से आई है प्रशांत नारायण और गौतम शर्मा के। प्रशांत नारायण के सांवलेपन में एक सुरमे जैसा स्याह सम्मोहन है। यहां फतेह के रोल में उन्होंने दमखम दिखाई है। मगर तेज के रोल में गौतम बहुत सपाट चेहरे के साथ सामने आते हैं। पवन मल्होत्रा को भाई के रोल में हम इतना देख चुके हैं कि अब लगता है जैसे किसी पुराने फिल्म का सीन देख रहे हों। हर बार ब्लैक फ्राइडे के टाइगर भाई का एटीट्यूड ही याद आता है उन्हें देखकर। दीप्ति नवल के हिस्से कुछ सादगी और कुछ बेचारगी आई थी। दीप्ति की एक्टिंग स्किल पर टिप्पणी करने का अभी मेरा दर्जा नहीं, मगर अफसोस कि फिल्म इतने ज्यादा किरदारों को संभालने में इतनी बिखर गई थी कि उनकी अधेड़ कुंठा और प्रतिकार अंधेरे में गुम गया। जैकी श्रॉफ क्लाइमेक्स से पहले पासिंग रिफरेंस में दिखते हैं और आखिरी में बीड़ू स्टाइल में आते भी हैं, तो बस यही लगता है कि न ही आते तो उनके लिए अच्छा होता।
ये इतने सारे सितारों का बैकग्राउंड इसलिए बताया ताकि अपनी बात को वजन दे सकूं। भिंडी बाजार में एक से बढ़कर एक एक्टर थे, मगर कैरेक्टर एक भी ऐसा नहीं बन पाया, जिसे आप हफ्ते क्या कुछ दिन भी याद रखें। भिंडी बाजार में भीड़ है, माल है, मगर एक भी माल ऐसा नहीं, जिस पर दाम लगाया जा सके।
कहानी घिसी पिटी
एक गैंगस्टर फिल्म में क्या तत्व हो सकते हैं। दो युवा, जिनके बीच देर सवेर महत्वाकांक्षा की, बादशाहत की लड़ाई होनी है। ज्यादातर मामलों में इन्हें शुरूआत में दोस्त दिखाना मुफीद रहता है। जैसे कंपनी में मलिका और चंदू या फिर वंस अपऑन ए टाइम इन मुंबई में सुल्तान मिर्जा और शोएब खान के केस में आप इस फंडे को हिट होते देख चुके हैं। मगर यहां फतेह और तेज के बीच कोई कैमिस्ट्री ही नहीं दिखती, तो लास्ट में उनकी आपसी दगाबाजी भी कैसे चौंकाएगी। आइए कुछ और तत्वों के बारे में सोचते हैं। माफिया की रिश्तेदार होगी, जिसके साथ नए लौंडे का चिलमन के पीछे इश्क जमेगा, कुछ भ्रष्ट पुलिस वाले होंगे, एक बड़ा माफिया होगा, मुंबई के बेरोजगार छोकरे होंगे, गलियों में कुछ चेज सीन, एक दो आईटम नंबर, उसूल वुसूल की कुछ बातें और लास्ट में सब खल्लास। भिंडी बाजार में भी यही सब है।
ये इलाका पॉकेटमारों का अड्डा है, यहां मामू बोले तो लोकल डॉन बनने की फाइट है। मामू हैं पवन मल्होत्रा और उनके गुर्गे हैं प्रशांत नारायण, शिल्पा शुक्ला, गौतम शर्मा वगैरह। उधर पीयूष मिश्रा के गैंग में भी कुछ छुटभइये एक्टर हैं। मामू का अपनी रिश्ते की साली से लफड़ा, जो उनकी बीवी दीप्ति नवल यानी बानो को बुरा लगता है। साली को लेकर फतेह भी सेंटी है, मामू मरता है, फिर कुछ और लोग मरते हैं फिर पीयूष यानी पंडित मरता है और फिर सब मर जाते हैं अच्छी क्राइम माफिया थ्रिलर की तरह। फिल्म में सिमरन हैं, बस में सफर करने और घटिया से क्लाइमेक्स को पूरा करने के लिए। वेदिता प्रताप सिंह हैं शबनम के रोल में तंग कुर्ते में क्लीवेज दिखाने और सेक्स सीन की रस्म पूरी करने के लिए। और इस टाट में एक और पैबंद है जबरन ठूंसा कैटरीना लोपेज का आईटम नंबर।
तो फिर क्या करें
माफिया कहानियां बहुत पसंद हैं, तो मत जाइए, टेस्ट खराब होगा। बाकी कुछ ही महीनों में फिल्म किसी टीवी चैनल और डीवीडी पर आ ही जाएगी। भिंडी बाजार से मुझे बहुत उम्मीदें थीं, मगर ये उस फल की तरह निकली जो बाहर से सुर्ख लाल है और अंदर से सड़ा। पीली हरी रोशनी, नैरेशन की अझेल स्टाइल, जिसमें शतरंज की बिसात के साथ कहानी आगे बढ़ती है, सब कुछ जबरन ठूंसा लगता है। कहीं कहीं कुछ स्पार्क दिखता है, मगर वो फॉल्ट किए तार का स्पार्क है, बत्ती नहीं जलेगी इससे।

दिमाग का मस्त दही जमाया भूषण ने, हेहेहे

इस सीज़न में सीक्वेल की बाढ़ आई हुई थी। हर फिल्म के साथ सबसे बड़ी मुश्किल थी, पिछले बैगेज को ढोने की। शुक्र है कि भेजा फ्राय 2 इस बोझ तले नहीं दबी। पिछली फिल्म से इस फिल्म में सिर्फ एक ही चीज आई है, दि बेस्ट चीज और वे हैं हमारे टैक्स इंस्पेक्टर भारत भूषण। बाकी सब कुछ फ्रेश है। उनके दूसरे इंस्पेक्टर दोस्त, उनका प्यार, उनका अंदाज, और उनके गाने का शौक, जो फिल्म की जान है। मुझे दूसरों के पैरामीटर का तो नहीं पता, मगर मेरी समझ के मुताबिक भेजा फ्राय 2 इस समर में रिलीज हुई बेस्ट फिल्म है। टुच्ची- फूहड़ कॉमेडी बनाने वाले इस फिल्म को देखें और सद्बुद्धि पाएं। पब्लिक की चिंता न करें क्योंकि आज पहले शो में ही हॉल पूरा भरा नजर आ रहा था, जबकि इस फिल्म में न तो कोई आइटम सॉन्ग है और न ही सो कॉल्ड ओपनिंग दिलाने वाले स्टार।
ऑरिजनल ईडियट क्यों कहा
सागर बेल्लारी बहुत काबिल डायरेक्टर हैं, मगर मुझे फिल्म की प्रमोशनल टैगलाइन से शिकायत है। इसमें कहा गया है कि द ऑरिजनल ईडियट इज बैक। अरे भारत भूषण अगर सीधा है, सच्चा है और जो मन में होता है, सामने वही दिखाता है, तो ऐसे होने को क्या ईडियट होना कहेंगे। अब बात बेल्लारी की हो रही है, तो इसमें एक नाम और जोड़ लीजिए शरद कटारिया का। इस जोड़ी ने फिल्म का स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखे हैं और आपको तो पता ही है कि कॉमेडी फिल्म की जान उसके डायलॉग ही होते हैं। पुराने हिंदी फिल्मी गानों का स्टोरी में जबर्दस्त टाइमिंग के साथ यूज किया गया है। भूषण किसी भी सिचुएशन में फंसता है, निकलता गाने की डोर पकड़कर ही है। कहीं भी वल्गर बात नहीं, फूहड़ संवाद नहीं, बस रोजमर्रा की जिंदगी की हरकतों के सहारे बात आगे हंसती बढ़ती है। कटारिया और बेल्लारी को फुल माक्र्स।
मैं आपको एक कहानी सुनाऊं
ये भूषण का स्टाइल है। उसके पास हर सीन, हर सिचुएशन के लिए एक कहानी है। बहरहाल, आप तो फिल्म की आउट लाइन सुनिए। टैक्स इंस्पेक्टर भारत भूषण कौन करेगा गेस नाम का रिएलिटी शो जीतते हैं। 25 लाख जीतने के साथ उन्हें मिलता है क्रूज पर जाने का मौका। इस क्रूज पर हैं तमाम फर्जी कंपनियां खड़ी करके बिजनेस टायकून बनने वाला दिलफेंक अजीत तलवार और शो प्रॉड्यूस करने वाले चैनल की प्रॉड्यूसर और भूषण के जज्बात समझने वाली रंजनी। क्रूज पर भूषण की जान आफत में आ जाती है क्योंकि तलवार और उसका गैंग समझता है कि ये टैक्स इंस्पेक्टर उन्हें पकडऩे के लिए क्रूज पर आया है। इसी क्रूज पर भूषण का दोस्त और टैक्स इंस्पेक्टर शेखरन भी है। दुनिया जहान से बेफिक्र भूषण सबके साथ अच्छे से पेश आता है। फिर एक दिन डेक पर होता है एक हादसा और दुनिया क्रूज से निकलकर आईलैंड पर पहुंच जाती है। यहीं पर सबको मिलते हैं जिंदगी के सबक। और हां, भेजा फ्राय लगातार जारी रहता है।
वन मैन आर्मी विनय पाठक
भेजा फ्राय फ्रेंचाइजी की पहली फिल्म में विनय पाठक के अलावा रजत कपूर और रणवीर शौरी ने भी उम्दा रोल प्ले किया था। मगर सेकंड पार्ट पूरी तरह से विनय पाठक का वन मैन शो है। एक आदमी, एक आवाज, मगर उसी आवाज में इतने अलग अलग टोन और वेरिएशन। इतना भोला सा, प्यारा सा, ईमानदार सा और इसी वजह से कई बार बेवकूफ सा लगने वाला भारत भूषण अब बिलाशक हिंदी सिनेमा के सबसे ज्यादा याद रखे जाने वाले पात्रों में से एक है।
विनय ने न सिर्फ एक्टिंग अच्छी की है बल्कि फिल्म का सबसे अच्छा गाना ओ राही भी उन्होंने ही गाया है। ये गाना फिल्म खत्म होने के बाद क्रेडिट के दौरान आता है, तो ये हिदायत है आपके लिए कि हंसकर भागिएगा मत। पूरा गाना सुनकर ही निकलिएगा। इस गाने को म्यूजिक दिया है ओए लकी लकी ओए फेम स्नेहा खानवलकर ने।
बाकी एक्टर्स की बात करें तो के के मेनन अजीत तलवार के रोल में ठीक लगे हैं। बहुत महान नहीं, बेकार भी नहीं। प्रॉड्यूसर रंजनी बनी मिनीषा लांबा के हिस्से ज्यादा कुछ था नहीं। फिल्म की एक और उपलब्धि शेखरन के रोल में सुरेश मेनन हैं। उन्होंने इस गब्दू गोलू पोलू कॉमेडी को एक अच्छा टच दिया है। अमोल गुप्ते भी आईलैंड में निर्वासन की जिंदगी जी रहे बर्मन के रोल में फिट बैठे हैं। मगर उनके रोल की मियाद कुछ ज्यादा नहीं है।
क्यों है ये फिल्म शानदार
हम सिटी लाइफ में हमेशा हार्डकोर स्टैंड लेते हैं। क्योंकि फिल्मों के मामले में आपको ढीली नहीं सीधी रिकमंडेशन चाहिए होती है। तो हमारा मानना है कि भेजा फ्राय जरूर देखो। ये रहीं इसे देखने की कुछ और वजहें :
फिल्म के डायलॉग, चेहरे के एक्सप्रेशन और स्टोरी का मूवमेंट बहुत नेचरल है। कहीं भी चीजें लाउड नहीं होतीं, फूहड़ नहीं होतीं। ऐसे में धमाल--गोलमाल स्टाइल कॉमेडी की ओवरडोज से राहत मिलती है।
देखते वक्त ये सावधानी बरतो कि जहां भी फिल्म स्लो लगने लगे विनय पाठक के चेहरे पर फोकस कर दो, हंसी अपने आप आने लगेगी।
इस फिल्म को आप क्लास डिवीजन के संदर्भ में भी देख सकते हैं। वैसे ये थीम फेजा फ्राय में भी थी। कैसे एलीट क्लास के लिए मिडिल क्लास हरकतें मजाक की चीज होती हैं। मगर भूषण अपनी अच्छाई और सीधेपन से उन हाई फाई लोगों के खोखलेपन को तार तार कर देता है।
कुछ कमी भी है क्या
हां है न। पिछली फिल्म में भूषण का किरदार नया था, बॉक्स ऑफिस पर बहुत उम्मीदें नहीं थीं और ये पूरी तरह से स्लो ओपनिंग के साथ ठीक ठाक बिजनेस करने वाली मल्टीप्लेक्स मूवी थी। मगर इस बार फिल्म को शानदार ओपनिंग मिली है। जाहिर है कि उम्मीदें कुछ ज्यादा हैं। सेकंड हाफ में आईलैंड वाले हिस्से में नैरेशन कुछ स्लो हो जाता है। जब तमाम किरदार होते हैं तब कॉमेडी की टाइमिंग बेहतर रहती है। एक टाइम के बाद पब्लिक पर्दे पर सिर्फ विनय पाठक और के के मेनन को देखकर चट भी सकती है। कहानी कहीं कहीं स्लो लग सकती है। मगर याद रखिए कि ये धीमापन, ये भूषण की बकबक, ये खीझ ही फिल्म की जान है। तो खीजिए नहीं रीझिए क्योंकि ये कॉमेडी वाकई टेस्टी है।
भेजा फ्राय को साढ़े तीन स्टार।

शुक्रवार, जून 10, 2011

सिन की सनसनी से भरी शानदार शैतान

शैतानी बुजुर्गों को कम पसंद आती है, जाहिर है इसीलिए शैतान फिल्म उन्हें चिढ़ाती हुई, आजकल के बच्चों की तरह रैंडम और अजीब लगेगी। मगर वो कहते हैं न कि सनसनी तो सिन करने पर ही महसूस होती है। वैसे ही सनसनाहट फिल्म देखते हुए लगती रही। शैतान अच्छी है क्योंकि इसने एक बार फिर एक था राजा एक थी रानी, जैसे स्टोरी फॉर्मेट को तोड़ा। फिल्म फास्ट ट्रैक पर है, मगर ये ट्रैक सिंगल नहीं है। फिल्म में स्टार नहीं हैं, एक्टर हैं और इसी वजह से कैरेक्टर याद रह जाते हैं। कैमरा वर्क जबरदस्त है, मगर जो दर्शक अनुराग कश्यप का सिनेमा बखूबी देख चुके हैं, उन्हें इसमें बहुत ज्यादा नयापन नहीं लगेगा। बैकग्राउंड म्यूजिक कहानी के मोड़ के पहले बजने वाले जरूरी हॉर्न की तरह है, ताकि सब कुछ अनओके प्लीज न रहे। शैतान देखिए अगर लगता है कि लाइफ कूची कूची कू नहीं होती, शैतान देखिए अगर जबड़ाभींच गुस्सा आता है, शैतान मत देखिए, अगर तेज और तीखे सिनेमा से जायका बिगड़ता है।

कहानी का झोल झपाटा
एक लड़की है, बहुत सुंदर नहीं है, वैसे भी बहुत सुंदर चीजें ड्रॉइंगरूम में सजाने और बार बार पोंछने के लिए ही होती हैं। खैर, लड़की का नाम एमी है। सनकी है। द रिंग की लड़की की तरह काली कूची सी ड्रॉइंग बनाती रहती है। मां उसकी पागल हो गई, मगर लड़की की याद और आदतों में और हां आज में भी, वो जिंदा है। लड़की का नाम एमी है और उसकी मां का सायरा। ये अंदर की दुनिया की बात थी। बाहर की दुनिया के लिए एमी एक रैंडम लड़की है, जिसका बाप एनआरआई है, अभी लॉस एंजिल्स से मुंबई शिफ्ट हुआ है। एक पार्टी में एमी की मुलाकात केसी से होती है। केसी भी अमीर बाप का बेटा है। सनकी सोल्जर है। एक मॉडल एक्ट्रेस तान्या शर्मा उसकी गर्लफ्रेंड है, और सेक्सुअल रिफरेंस न लें, तो दो रियली क्लोज बॉयफ्रेंड भी हैं। एक का नाम है डैश और दूसरे का जुबिन। जुबिन गीक टाइप है, तान्या के लिए कोमल कॉर्नर रखता है और डैश एक नंबर का ... है साला, अगर फिल्म की भाषा में कहें तो। फिर एक पार्टी में मुलाकात के बाद एमी भी इस गैंग में शामिल हो जाती है। ये उन छुट्टा सांड़ों की टोली है, जिन्हें लाइफ में किक चाहिए। किक भी बालकों जैसी। तेज कार चलानी है, चिल्लान है, पानी में धक्का देना है, नशा करना है, गुब्बारे में सूसू भरकर फेंकनी है टाइप। मगर ये हरकतें तो सिर्फ इंडीकेटर हैं। असल में तो पूरी की पूरी गड्डी को टर्न करना है। तो ऐसा होता है, क्योंकि ये ग्रुप एक एक्सिडेंट कर बैठता है। पुलिस वाला वसूली चाहता है और उसके लिए ये फिर एक स्टंट मारते हैं। मगर इनकी वो हरकत अच्छे से दारू फैला देती है ( दरअसल रायता फैलना अब भदेस भाषा का मुहावरा हो गया)। फिर शुरू होती है भागमभाग और इसमें लीड करते हैं इंस्पेक्टर माथुर। कड़क हैं, शॉर्प हैं, हैंडसम हैं मगर नैनों में बदरा छाप बिना डायलॉग वाली बीवी से उनकी फिल्म के क्लाइमेक्स के पहले तक नहीं बनती। क्यों नहीं बनती ये बताने की डायरेक्टर ने जरूरत नहीं समझी। कुछ मरते हैं, कुछ बचते हैं और इसके बीच जारी रहती है कैमरे की जोरदार शैतानी। कभी ये आड़ा तिरछा हो जाता है, कभी लगता है कि पॉज का बटन बस दबते दबते रह गया और कभी फास्ट फॉरवर्ड का बटन हल्के से दब जाता है।

एक्टर लोग का लेजर बिल
मंझे और जमे कलाकारों पर सब पहले लिखते हैं, इसलिए हम पीछे से शुरू करते हैं। शिव पंडित डैश के रोल में ठीक लगे हैं। खाने के किनारे की रखी सलाद की तरह, जिसे सब खाते हैं, मगर बात चिकन और पनीर की ही होती है। उनके रोल में वेरिएशन कम था। इसके उलट नील भोपालम का जुबिना श्रॉफ वाला रोल बहुत हटकर नहीं था, मगर सेंटी और जोक के बीच उनकी एक्टिंग क्लिक कर गई। केसी के रोल में गुलशन दीवार में गुल्ली की तरह फिट हो गए। हॉट, विटी, कमीना, सनकी और फिर लास्ट में कुछ सिंपैथी बटोरता। सब केसी बनना चाहते हैं, मगर सब केसी को कुत्ता बोलकर किनारे रहते हैं। डर लगता है न। शैतान इस डर के पार जाकर हरकतें करवाता है।
राजकुमार यादव को आपने एलएसडी और रागिनी एमएमएस में देखा है। अच्छे एक्टर हैं, मगर शैतान में ज्यादा लंबे रोल की गुंजाइश नहीं बनी। कीर्ति कुल्हारी के चेहरे पर ज्यादा भाव नहीं आते, शायद इसीलिए इंडस्ट्री ने उन्हें ज्यादा भाव नहीं दिया अब तक। और एमी यानी कल्कि कोचलिन की एक्टिंग की सबसे अच्छी बात ये है कि उन्हें एक्टिंग नहीं आती। एमी का रोल हो उनके लिए टेलर मेड लगता है। जैसे इमैद शाह की एक्टिंग में कोई एफर्ट नहीं दिखता, वैसे ही नए एक्टर्स में कल्कि का रोल है। मगर हमने अब तक कल्कि को इसी तरह के थोड़े से ट्रांस और थोड़े से ट्रॉमा वाले रोल में ही देखा है। कुछ उनका लहजा और कुछ हटकर फीचर्स। कभी रेग्यूलर फ्रेम में उनकी एक्टिंग देखने का मौका मिलेगा, तो रेंज पर कुछ बात होगी। राजीव खंडेलवाल को अब टीवी भूल जाना चाहिए। देर सवेर ये पिक्चर बनाने वालों का धंधा उन्हें उनकी सही जगह देगा। गुस्सा, खीझ और गति यानी स्पीड, सब कुछ है उनके पास। आमिर के बाद न जाने क्यों राजीव को अच्छे रोल नहीं मिले।
लॉस्ट फाउंड चांद
म्यूजिक टुक टुक टुक टुक, फिर ढोलक या ड्रम की बीट। ये सुरीला शोर फिल्म के ट्रेलर के टाइम से आप सुन रहे हैं। बैकग्राउंड स्कोर नई आवाजों से लैस है। ढिंचाक या भड़ाक टाइप सैकड़ों साल की बासी साउंड नहीं है। गानों की बात करें तो पापा जी के बचपन के टाइम का गाना खोया खोया चांद बहुत अच्छे से रीमिक्स कर यूज किया गया है। बाकी गाने याद नहीं रहे, जाहिर है कि इससे आपको आइडिया लग गया होगा कि फ्रंट ग्राउंड म्यूजिक कैसा है।
डिम लाइट, एक्शन, कैमरा चालू हो गया
अब फिल्म जल्दी बनती है। वजह, कैमरे को हमेशा खूब सारी नेचरल लाइट नहीं चाहिए। वजह, लाइफ में हमेशा बहुत सारी नेचरल लाइट और हीरो हीरोइन पर हजारों वाट का फोकस नहीं होता। तो लाइट नीली हो, लाल हो या शैतान की बात करें तो हरापन लिए पीली और फिर काली हो, चीजों को उनके सही शेड में दिखाने में मदद करती है। पूरी फिल्म डार्क है, काली करतूतें गहरे रंग में ही कैद की जा सकती हैं। भिंडी बाजार के इलाके में क्रॉस फायरिंग हो या एक्सिडेंट के बाद स्लो साइलेंट मोशन में कैमरा मूवमेंट, सब कुछ अपने साथ पब्लिक को तेज और सुस्त करते हैं।
पांच और अनुराग कश्यप का फाइनल पंच
अब इस फिल्म की सबसे जरूरी बात। फिल्म के डायरेक्टर का नाम बताया गया है बिजॉय नांबियार। बतौर प्रॉड्यूसर एक नाम है अनुराग कश्यप का। ये भाईसाहब रामगोपाल वर्मा के असिस्टेंट थे। बात में तमाम फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी और आप उन्हें देव डी वाले अनुराग कश्यप के नाम से जानते हैं। अनुराग ने सत्या के रिलीज होने के बाद एक फिल्म लिखी थी, जिसमें पद्मिनी कोल्हापुरी की बहन तेजस्विनी थीं। और थे के के मेनन, आदित्य श्रीवास्तव जैसे कुछ कलाकार। पांच दोस्त, सीले अंधेरे में गुम आशंकित रॉक स्टार, उन्हें पैसे की जरूरत, एक का नकली किडनैप, फिर कोई मर जाता है, फिर कई मर जाते हैं, भागमभाग, पैसा और मिस्ट्री। सेंसर बोर्ड को लगा कि फिल्म में हिंसा बहुत है और ये आजतक रिलीज नहीं हुई। शैतान पांच की दस साल अडवांस कॉपी है। मगर आपने तो पांच देखी नहीं, तो नांबियार और अनुराग का शुक्रिया, कि वो सनक, वो सीलन सो कॉल्ड सुनहरे पर्दे पर एक नए रूप में आई। फिल्म अनुराग कश्यप की है क्योंकि इसमें उसी का मुंबई है। ये मुंबई ब्लैक फ्राइडे के चेज सीन में दिखता है, स्लमडॉग में दिखता है, उम्मीद है कि भिंडी बाजार में दिखेगा और शैतान में दिखा है। कैमरे की नजर से गंदा और वर्जिन सा मुंबई। इससे फिल्म की रेंज और नयापन बढ़ जाता है। कैमरा वर्क भी उन्हीं के स्कूल के ख्यालों से चलता दिखता है। पॉज, क्लोज शॉट या फिर बिल्कुल ऊपर या नीचे कैमरा लिटाकर शॉट। भाषा भी भदेस है, गाली है, गंदी बातें हैं, मगर यही गंदगी तो बॉलीवुड की नकली सफाई को दूर करने के लिए जरूरी है। हालांकि अनुराग इस बात से इत्तफाक नहीं रखते और ट्विटर पर सफाई देते हैं कि ये नांबियार की फिल्म है, मगर आम पब्लिक को इस तरह की मुंबइया लंतरानी से ज्यादा मतलब नहीं। फिल्म में पेस है, एक्टिंग है, ड्रामा है और इसीलिए मजा भी है। शैतान को साढ़े तीन स्टार। आधा स्टार कम क्योंकि कहीं कहीं कहानी के कुछ सिरे कुछ ज्यादा ही सिंबॉलिक तरीके से पूरे किए जाते हैं। मसलन, इंसपेक्टर माथुर की बीवी का घर से जाना और आना। खैर ये तकनीकी डिटेल्स छोड़ो और शैतान जाकर देखो, फैमिली नहीं फ्रेंड्स के साथ। जय हिंद।