बुधवार, मई 12, 2010

सबसे मुश्किल काम : रोटी, बाई और काक्रोच

मुझे इस देश का पीएम बनना है और मुझे लगता है कि ये इस देश का ही नहीं बल्कि दुनिया का सबसे मुश्किल काम होगा। मगर मैं गलत हूं। आप भी मेरी बात मान जाएंगे, इस लिस्ट को पढऩे के बाद। मैं पिछले एक महीने से अपना फ्लैट सेट करने की कोशिश कर रहा हूं और इसी दौरान मुझे दुनिया के इन सबसे मुश्किल कामों के बारे में पता चला।

रोटी गोल कैसे होती है
हमारे फ्लैटमेट हैं मंकू जी। उन्हें दस हजार बार समझाया कि रोटी का आटा गीला नहीं करते। मुझे याद है मां भी यही बताती थी। मगर मंकू जी मानते ही नहीं। फिर और आटा डालना पड़ता है। मंकू जी के दोस्त हैं चंपू जी। वो भी आ जाते हैं कई बार रोटी बनते वक्त। रोटी बनाने का काम मेरा है। कभी लोई में आटा ज्यादा लग जाता है, कभी इतना कम कि रोटी बेलते वक्त चिपकने लगती है। और हां गोल, अभी तक बनाई कई सैकड़ा रोटियों में आठ-दस गोलाई पाते-पाते रह गईं। तो रोटी बेलना और वो भी गोल अमेरिका को खोजने जितना महान काम है। मां को कितनी आसानी होती है न इस काम में।

सारी सब्जियों का एक ही फॉम्र्युला
अभी मैं किचेन से बाहर नहीं निकल पाया हूं। मंकू जी सब्जी बनाएं या चंपू जी या फिर मैं, सबका एक ही सुपरहिट फॉम्र्युला है। प्याज, लहसुन, टमाटर और हरी मिर्च काटी। तेल गरम किया, हींग, जीरा डालकर ये सब सामान भूंजा। फिर हल्दी, धनिया पाउडर और गरम मसाला भूना और फिर सब्जी उड़ेल दी। गौर करिए, सब्जी चाहे भिंड़ी हो चाहे करेला, हमारा बनाने का तरीका यही रहता है। दाल में भी तड़का डालना हो तो सब्जी की जगह बस दाल डाल देते हैं। तो मुश्किल काम है सब्जियों के हिसाब से मसालों का कॉम्बिनेशन चेंज करना। हमारे किचेन में भी बहुत सारे मसाले हैं, थैंक्स टु रेनू ऑन्टी, मगर अभी उनके साथ एक्सपेरिमेंट की हिम्मत नहीं जुटा पाए।

कामवाली बाई का बवाल
एक अच्छी टाइम पर आने वाली, बहाने न करने वाली कामवाली बाई बहुत नसीब वालों को मिलती है, ये मैं अपने आप से रोज सुबह कहता हूं। फिर ये भी कहता हूं कि मैं नसीब वाला हूं, मगर उसे मैंने जॉब पाने और दूसरी चीजों में खर्च कर दिया है। पहली काम वाली बाई आईं, लैंड लॉर्ड के यहां भी वही काम करती थीं। दो दिन बाद अंकल-ऑन्टी गए, अगले दिन से बाई जी भी गईं। फिर पूरे 12 दिन बाद आईं। क्यों नहीं आईं। बेटी की तबीयत खराब थी। अरे कम से कम एक बार आकर बता तो दिया होता। फिर दो दिन पहले फस्र्ट फ्लोर पर रहने वाली भाभी जी के यहां आने वाली बाई जी को बोला। तैयार हो गईं। मगर दो दिन हो गए, अभी तक डोरबेल नहीं बजी। मंकू जी और मैं बर्तन धो डालते हैं। मगर कभी-कभी लगता है कि काश एक बाई जी फटाफट बर्तन धोतीं, तो हमें सिर्फ खाना बनाना पड़ता। और हां घर भी हफ्ते में दो-तीन बार ही साफ होता है इसी वजह से। टाइम से आने वाली बाई ढूंढऩा वाकई मुश्किल है।

छोटा काक्रोच, मोटा काक्रोच
बरसों पहले कानपुर में रहता था और खूब काक्रोच मारता था। फिर दिल्ली में रहा तो काक्रोच दिखने ही बंद हो गए। सोचता था शायद म्यूजियम जाकर देखना पड़े। मगर आपको ऐसा नहीं करना पड़ेगा। मेरे घर आइए न, हर वैरायटी और साइज का काक्रोच मिलेगा। दरवाजे के पीछे, बेड के नीचे। डे वन से ही पूरी बिरादरी से मेरी और मंकूजी की दोस्ती हो गई। फिर लक्ष्मण रेखा भी लाए और उसे लगाया भी, मगर काक्रोच तो रावण के भाई बंधु, रेखा को भी गच्चा दे गए। मंकूजी काक्रोच की लाशें उठातें हैं और मैं उन्हें ठिकाने लगाता हूं। पुण्य का काम है भाई। आपने किया है कभी। सुबह उठकर और रात में टहलकर इन्हें मारने का पुण्य भी मैं ही करता हूं।

तो ये दुनिया के सबसे मुश्किल कामों में से कुछ हैं, बाकी की लिस्ट अगले हफ्ते। तब तक चिल मारो चंडीगढ़

from my column sahar aur sapna for dainik bhaskar, chandigarh

एक ड्रामा राज का, एक उस भिखारन का...

जब नवभारत टाइम्स में था, तब ये ब्लॉग लिखा था अखबार की वेबसाइट के लिए, आज दोबारा पढ़ा तो कुछ ठीक लगा, सोचा आप सबके साथ शेयर करूं


एकदम धांसू शो चल रहा है बिग बॉस - 3 का। हर रूम में, हर कोने में कैमरे फिट हैं। हर शख्स जानता है कि रील चालू है। सब ससुरे ऐक्टिंग में लगे हुए हैं। दिखाना चाहते हैं मानो रिऐलिटी शो है लेकिन स्क्रिप्ट पहले से तैयार है। कैसे तमाशा रचना है, दर्शकों को बांधे रखना है। ऐसे में मेरे अंदर का क्लैप बॉय जो सपनों की दुनिया में हीरो बनने का सपना सजाए था, जोर से चीखना चाहता है - कट। बस भी करो। अब कितनी ऐक्टिंग करोगे?
मगर नहीं, कोई रुकने को तैयार नहीं। एक बात बताऊं? कई बार तो लगता है कि अगर ये लोग ऐक्टिंग करना छोड़ दें तो शायद पूरा शो ही इतना बोरिंग हो जाए कि कोई देखे ही नहीं। वैसे भी जबसे कमाल खान शो को छोड़कर गया है, आधा मज़ा खत्म हो गया है। राजू श्रीवास्तव की नौटंकी थोड़ा-बहुत गुदगुदा देती है, बस।
ऐक्टिंग बिग बॉस के आलीशान फ्लैट में है और सड़कों और गलियों में भी। अभी कल बाइक पर सवार होकर आ रहा था। भीकाजी कामा प्लेस की रेडलाइट पर रुका। कुछ औरतें शिकार की तलाश में घूम रही थीं। दुनिया की भाषा में कहें तो ये औरतें भिखारी थीं। लोगों से कह रही थीं कि मदद करिए। एक औरत के पेट में बच्चा है, उसे अस्पताल ले जाना है। ऑटो के पैसे दे दीजिए। इन औरतों को पिछले ढाई साल से इस रेडलाइट पर देख रहा हूं। एक औरत का पेट फूला भी इतने ही वक्त से देख रहा हूं। नहीं जानता, उनमें सच में कोई गर्भवती है या फिर कपड़ों की मदद से साड़ी के अंदर फूला हुआ पेट दिखता है। कई बार उसी रेडलाइट के किनारे तिकोनी जमीन पर इन औरतों को गुटखा चबाते, बच्चे खिलाते भी देखा है। वो खालिस उनका अपना वक्त होता है। खीज-सी उठती है। बहुत जोर से, जैसे दातों में कुछ ककरैला फंस गया हो और पूरा जी कसमसा जाए। कई बार लगता है मेरे पास ये औरतें आएंगी तो चीखकर कहूंगा, शर्म नहीं आती! मुझे तुम्हारा ड्रामा पता है। बगल में सफदरजंग और एम्स हैं और अस्पताल का बहाना गढ़ती हो। मगर ऐसा हो नहीं पाता। कभी महीनों पहले एक औरत पास आई भी थी, मगर इतना ही कह पाया कि मैं रोज यहां से निकलता हूं, सब पता है, कोई और शिकार खोजो।
मगर ड्रामा बदस्तूर जारी है। भूख का ड्रामा है, एक सुविधा का ड्रामा है या फिर सिर्फ मेरे मन का फितूर, नहीं पता। बाइक आगे बढ़ी तो महाराष्ट्र चुनाव कौंध गया। यूपी का हूं। मुंबई वाले मुझ जैसों को ही भइया कहते हैं न। अभी पिछले दिनों सुकेतु मेहता की किताब मैक्सिमम सिटी पढ़ी, तो मुंबई से प्यार-सा कुछ हो गया। शायद लेखक की बदमाशी या ईमानदारी थी, जिसने मुंबई के सच को इस रूमानी अंदाज में रचा कि मकबूल में पंकज कपूर का डायलॉग याद आ गया कि मियां मुंबई हमारी महबूबा है, इसे छोड़कर हम कहीं नहीं जाएंगे।
पंकज जी, एक दिन हम भी अपने सपनों का सूटकेस लिए मुंबई आएंगे। मगर मुंबई में एक राज ठाकरे भी रहता है। औऱ यहीं से दिक्कत शुरू होती है। राज ठाकरे, जो अब हीरो बनने की कगार पर है। राज ठाकरे कभी हंसता नहीं। हंसता भी है, तो रैलियों के दौरान कभी-कभी, जब किसी लालू यादव या सोनिया गांधी का मज़ाक उड़ाता है। वो हंसी भी होठों के किनारे से फिसलने के पहले ही लपक ली जाती है। राज के माथे पर हमेशा त्यौरियां चढ़ी रहती हैं। बहुत गुस्सा जज्ब किए हो जैसे। ऐसा लगता है कि जैसे क्लैप बॉय को एंग्री यंगमैन मिल गया हो। राज ठाकरे बडे़ काबिल नेता होंगे। जब कोई उद्धव का नाम और शक्ल भी नहीं जानता था, तब से राज ठाकरे बाल ठाकरे के काम यानी राजनीति में हाथ बंटा रहे हैं। मगर बाल को भी पुत्रमोह मार गया और उन्होंने राज को दरकिनार कर उद्धव को पार्टी की कमान सौंप दी।
कुछ महीने बीते और राज ने पार्टी से किनारा कर लिया। मगर चाचा की पाठशाला में सीखा पाठ नहीं भूले। चाचा ने मद्रासियों को निशाना बनाया था, राज ने कहीं बडा़ लक्ष्य रखा और यूपी-बिहार के लोगों को निशाना बनाया। वही तेवर, वही कलेवर। मीडिया ने राज को बड़ा बनाया, ये बात अक्सर लोग कहते हैं। मगर मीडिया को भी कितना दोषी ठहराया जाए? हम कैमरों पर फिल्माए गए सनसनीखेज सच के इतने आदी हो गए हैं कि हमें हर दिन सोने से पहले खीज उतारने के लिए तमाम राज ठाकरे जैसों की जरूरत पड़ती है।
राज आपको उन औरतों की याद नहीं दिलाता, जो डर बेचती हैं? कहीं बेचारी औरत का बच्चा सड़क पर ही हो गया तो, कितना अनर्थ हो जाएगा! एक लिजलिजा-सा डर भर जाता है। और कई लोगों के हाथ जेब तक चले जाते हैं। राज भी ऐसा ही डर बेच रहे हैं। किसकी है मुंबई, राज की, मराठियों की, या उन मछुआरों की, जो सुबह-सवेरे मुंबा देवी का नाम लेकर खुद को समंदर में झोंक देते हैं। मुंबई हम सबकी है, क्योंकि इसे हम सबने बनाया है। मगर कैमरे के सामने यह भी एक रटा-रटाया छिछला-सा सच लगता है। इसीलिए तो कैमरे के पीछे रहने वाले करण जौहर राज की धमकी मिलते ही भागे चले जाते हैं राज की शरण में। और कैमरे वाले रिपोर्टर उनके घर के बाहर जुट जाते हैं, दयनीयता और समपर्ण के इस जादुई और काले पल को कैद करने। जोर से क्यों नहीं चीखता कोई...कट, अब बस भी करो, बहुत हो गया तमाशा।
आज रामगोपाल वर्मा औऱ सरकार राज लिखने वाले प्रशांत पांडे सोच रहे होंगे कि अब सरकार का तीसरा हिस्सा लिखने का समय आ गया है। जैसे सरकार में दोनों बेटों की मौत के बाद आखिरी में सुभाष नागरे ( अमिताभ बच्चन) कहता है कि चीकू को बुलाओ, वैसे ही क्या बाल ठाकरे आखिर में कहेंगे कि राज को बुलाओ। अभी भी बात नहीं बिगड़ी है। और फिर केके का सरकार में बोला गया वह डायलॉग, अब क्या करेगा सरकार, तो अब क्या करेंगे राज ठाकरे।
ड्रामा जारी है, हर तरफ, पूरे शोर के साथ, तमाशे के साथ। हर दिन नए ऐंगल के साथ कैमरा घूम रहा है। कोई होगा, जो कयामत के दिन, या युग बदलने के दिन रील लेकर बैठेगा, एडिट करने के लिए, या फिर दुनिया की यह पिक्चर भी डिब्बाबंद ही रह जाएगी?

मगर क्लैप बॉय जोर से चीखना चाहता है, ताकि बंद हो यह ऐक्टिंग और एडिटिंग चालू हो। कभी आपके अंदर ऐसी चीख उठती है क्या...


ये ब्लॉग एंट्री नवभारत टाइम्स के लिए लिखी थी, सो वहीं से साभार

गुरुवार, मई 06, 2010

लाल साड़ी तुम्हारा इंतजार कर रही है नीरू

मौत क्या करती है, आपको दार्शनिक बना देती है, भीतर कुछ सूखने सा लगता है, कुछ मरने सा लगता है। ऐसा लगता है कि जो मरा, उसके साथ आपकी हरहराती जिंदगी का भी एक टुकड़ा मर गया। पिछले कुछ दिनों से आप दिल्ली में काम करने वाली एक पत्रकार निरूपमा पाठक की मौत से जुडी़ खबरें पढ़ रहे हैं। मैं निरूपमा को जानता था। बहुत तकलीफ हो रही है पिछले वाक्य में है की जगह था लिखकर। उस लड़की ने हमेशा मुस्कराकर हैलो सर बोला था और हमने डेढ़ साल में कुल जमा 100 सेंटेंस भी नहीं बोले होंगे आपस में। उसकी मौत से चंद हफ्तों पहले फोन पर बात हुई थी। तब तक वो शादी का फैसला कर चुकी थी। मैंने सिर्फ यही कहा कि बडा़ फैसला है सोचकर करना और करना तो उस पर कायम रखना। उन दिनों भोपाल में था। नीरू को परिवार की कमी न अखरे, इसलिए दिल्ली अपनी बहन को फोन किया और कहा कि एक सुहाग के रंग की साड़ी खरीदना। एक लड़की अपना प्यार पा रही है। मगर शादी नहीं हुई क्योंकि नीरू के पिता का खत आ गया था, जिसमें उसे अपने प्यार और सनातन धर्म का वास्ता दिया गया था। फिर एक दिन नीरू दिखी, मगर उसे बुलाया नहीं। वो भी शायद नजर बचा रही थी। मुझे लगा उलझन में होगी, फिर बात करूंगा। अब कभी बात नहीं कर पाऊंगा उससे, अब हमेशा उसकी बात करूंगा और हां मेरी अल्मारी में रखी नीरू की साड़ी सुहाग के रंग से धीमे-धीमे खून के रंग में तब्दील होती लग रही है।

ऑफिस में काम कर रहा था, जब उसके मरने की खबर मिली। दिमाग सन्नाटे में आ गया। फिर अगले दिन पता चला कि उसने स्यूसाइड किया है। सुनकर अजीब लगा, आखिर क्या वजह रही होगी उन चमकीली आंखों के हमेशा के लिए बंद हो जाने की। फिर अगले रोज एक मित्र ने नीरू की दो तस्वीरें भेजीं। सॉरी उसकी लाश की दो तस्वीरें भेजीं। एक घर में लेटी हुई, दूसरी पोस्टमॉर्टम हाउस में। उसने उसी लाल रंग की टीशर्ट पहन रखी थी, जैसा रंग बौद्ध भिक्षु पहनते हैं। शांति का रंग। टीशर्ट जैसा एक लाल रंग उसकी गर्दन पर भी था। बाद में पता चला कि नीरू को गला दबाकर मारा गया और बाद में स्यूसाइड दिखाने के लिए फांसी पर लटकाने की कोशिश में ये निशान बना।
रात में पानी पीने उठता हूं, दिन में लैपटॉप ऑन करता हूं, शाम को कुछ सोचते हुए काम से जूझता हूं, बार-बार वो लाल निशान मेरी आंखों को पहले गीला और फिर लाल कर जाता है। ये लिखते हुए भी ऐसा ही कुछ हो रहा है।
नीरू मरी तो तमाम लोगों की पकी हुई नींद टूट गई। अगर पत्रकारों के साथ ऐसा हो सकता है, तो फिर बाकियों की बिसात क्या। और ध्यान रहे ये अपराध हरियाणा की किसी खाप पंचायत ने नहीं सो कॉल्ड मिडल क्लास वेल एजुकेटेड फैमिली ने किया। फिर नीरू के गर्भवती होने को लेकर भी बहस शुरु हो गई। अदालतें बैठेंगी, किसी को जमानत मिलेगी तो किसी को सजा। उसके प्रेमी की जिंदगी भी आगे बढ़ जाएगी और मेरी भी।

मगर उस लाल रंग को देखते ही जो निशान आंखों के सामने तैरने लगेगा उसका क्या? मेरी अल्मारी में रखी उस लाल साड़ी का क्या, जो नीरू के लिए ली थी। नीरू बहुत नीर पाया तुमने और हमने भी।